भारतीय शास्त्रीय नृत्य की ओर साधना के रूप में देखनेवाले प्रसिद्ध कथ्थक नर्तक पद्मविभूषण पं. बिरजू महाराज !

पं. बिरजू महाराजजी

१. भारतीय शास्त्रीय नृत्य साधना का ही एक अंग होना !

अ. भारतीय शास्त्रीय नृत्य साधना का एक अंग होने से उसे ‘नृत्यसाधना’ कहा जाना ! : ‘भारतीय शास्त्रीय नृत्य ईश्वर के साथ सान्निध्य रखने के (साधना) के विविध मार्गाें में से एक है’, ऐसा मुझे लगता है; इसीलिए उसे ‘नृत्यसाधना’ कहा गया है ।

     नर्तक को नृत्यकला के साथ संगीत का पर्याप्त ज्ञान हो, तो उसकी कला को अधिक अवसर मिलता है । नर्तक के लिए ध्यान-धारणा एवं प्राणायाम-आसन करना भी महत्त्वपूर्ण होता है । कथ्थक नृत्य करने हेतु सांस पर नियंत्रण, पर्याप्त शक्ति और क्षमता होना बहुत आवश्यक है ।’ – पद्मविभूषण पं. बिरजू महाराज, देहली

(संदर्भ – पद्मविभूषण पं. बिरजू महाराज के संदर्भ में प्रकाशित समाचारों से संकलित)

२. पं. बिरजू महाराज नृत्य करते समय निरंतर श्रीकृष्ण के सान्निध्य में होते, इसे दर्शानेवाला प्रसंग

अ. ‘नृत्य’ एक साधना है तथा भाव होनेवाले नर्तक के माध्यम से ईश्वर द्वारा ही नृत्य किया जाना : ‘नृत्य कहा जाए, तो अध्यात्मक और कहा जाए, तो साधना है । मूलतः मैं कहां नाचता हूं ? नृत्य के कार्यक्रम से पूर्व तैयारी पूर्ण होने के उपरांत मैं मेरे गुरु और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं, ‘मैं तैयार हूं । अब आगे का काम आपका…’ और सचमुच ही मेरे माध्यम से मेरे गुरु ही नृत्य करते रहते हैं, मेरे ईश्वर ही नृत्य करते हैं और मैं उन्हें नाचते हुए देखता रहता हूं और उन्हें दाद देता रहता हूं । यह भले ही आध्यात्मिक अंग से जा रहा हो; परंतु अंततः जहां आत्मा है, वहां अध्यात्म तो होता ही है । ईश्वर निरंतर मेरे साथ ही होते हैं । हर रात १२ बजे मेरा देवतापूजन समाप्त होता है । कई पीढियों से चली आ रही श्रीकृष्ण की मूर्ति मेरे साथ निरंतर यात्रा करती है । अब भी मैं आपके साथ दूरभाष पर बोल रहा हूं और वह मेरे मित्र इसी स्थान पर मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं । ऐसे यह श्रीकृष्ण मुझमें आकर नाचेंगे नहीं तो क्या करेंगे ? मंदिर तो भगवान से मिलने का माध्यम होता है । हमारा शरीर भी इसी प्रकार का मंदिर है । जब मैं रंगमंच पर खडा रहूंगा, तब भगवान आएंगे ही और नाचेंगे ही ! उन्हें वैसे देखने में रोचकता है ।’’ – पद्मविभूषण पं. बिरजू महाराज, देहली (दैनिक लोकमत के मुंबई संस्करण के संपादक श्री. विवेक गिरिधारी द्वारा पं. बिरजू महाराज से दूरभाष पर पं. बिरजू महाराज से की गई भेंटवार्ता ! दैनिक ‘लोकमत’, २९.४.२०१२)

३. पं. बिरजू महाराज में अहं न्यून था, यह दर्शानेवाला प्रसंग

अ. शिष्य के नृत्य से अन्यों को आनंद मिलने हेतु गुरु को प्रार्थना करनेवाले ! : ‘शिष्य को सदैव ही गुरु के पैर पकडने होते हैं; परंतु शिष्य को घुंगरू (दीक्षा) देते समय गुरु शिष्य के एक बार ही पैर पकडते हैं । मैं मेरे पास नृत्य सीखने के लिए आनेवाले प्रत्येक शिष्य को मेरे गुरु, नृत्य की गुरुपरंपरा का स्मरण कर उनसे और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं ।’ ‘इन्हें (शिष्य को) उनके पैर में बंधे हुए इस घुंगरू के नाद से भविष्य में सभी को उज्ज्वलता, शांति और आनंद देना संभव हो ।’ – पद्मविभूषण पं. बिरजू महाराज, देहली

४. कथ्थक के प्रकार प्रस्तुत करने के संदर्भ में पं. बिरजू महाराज द्वारा आध्यात्मिक स्तर पर मार्गदर्शन

अ. वंदना – कला के प्रस्तुतीकरण के आरंभ में भगवान का स्तवन करना और नृत्य को लोगों के सामने प्रस्तुत करना आवश्यक होने से दर्शकों की समझ में आए; इसलिए उसे शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करने की आवश्यकता होना : ‘संगीत में कोई भी कृत्य करने से पूर्व अपने इष्टदेवता का ध्यान (स्मरण) करना आवश्यक होता है । इसलिए कोई भी कृत्य करने से पूर्व भगवान के स्तुतिपर गीत, वंदना इत्यादि के माध्मय से भगवान की स्तुति गाई जाती है । हम भगवान की पूजा शब्दों के बिना कर सकते हैं; परंतु दर्शकों के सामने कला प्रस्तुत करते समय वह उनकी समझ में आए, इसके लिए शब्दों की आवश्यकता होती है, अन्यथा ध्यान के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती । ध्यान में एकाग्रता होती है और उसी में भगवान की पूजा होती है ।’ – पद्मविभूषण पं. बिरजू महाराज, देहली

५. पं. बिरजू महाराज की कथ्थक नृत्य में श्रेष्ठता दर्शानेवाला प्रसंग

अ. पैरों में बंधे हुए १५० – २०० घुंगरूओं में से विशिष्ट घुंगरु ही बजाकर दिखाना, साथ ही केवल पैर और पैरों की उंगलियों को हिलाकर घुंगरूओं में से सप्तसुर निकालकर दिखाना : ‘देवदास’ फिल्म में निहित ‘काहे छेड मोहे’ इस गीत का नृत्यनिर्देशन करते समय उन्होंने एक प्रसंग में पैरों में बंधे हुए उपर से तीसरी पंक्ति में निहित पांचवां घुंगरू बजाकर दिखाया । उसके उपरांत उन्होंने केवल पैर और पैरों की उंगलियां हिलाकर घुंगरूओं में से सप्तसुर – ‘सा रे ग म प ध नि सा’ निकालकर दिखाए । इससे उस समय उस सेट पर उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति अपने स्थान पर ही स्तब्ध खडा था ।’ – सिद्धार्थ अकोलकर (वॉट्स एप से साभार)

श्रीमती सावित्री वीरेंद्र इचलकरंजीकर

     प्रसिद्ध कथ्थक नर्तक तथा पद्मविभूषण पुरस्कारप्राप्त पं. बिरजू महाराज (ब्रिजमोहन मिश्रा) का १६.१.२०२२ की मध्यरात्रि में हृदयगति रुक जाने से निधन हुआ । वे ८३ वर्ष के थे । वे कथ्थक नृत्य के लखनऊ कालका-बिंदादीन घराने के अग्रणी नर्तक थे । उन्होंने आयु के १३ वें वर्ष से देहली की संगीत भारती नामक संस्था में अध्यापन आरंभ किया । वे भारतीय कला केंद्र और संगीत नाटक अकादमी के कथ्थक केंद्र में सिखाते थे । सेवानिवृत्ति के उपरांत उन्होंने ‘कलाश्रम’ नृत्य संस्था आरंभ की । भारतीय शास्त्रीय नृत्य विशेषकर कथ्थक नृत्य को भारत में, साथ ही विदेश में सामान्य लोगों तक पहुंचाने में इनका अमूल्य योगदान है । उनके तालबद्ध एवं लालित्य से ओतप्रोत कथ्थक नृत्य की सभी दर्शकों को अनेक दशकों तक मोहिनी रही । नृत्य करते समय श्रीकृष्ण के साथ निरंतर सान्निध्य होता था । जीवनभर कला की साधना करनेवाले पद्मविभूषण पं. बिरजू महाराज ने नृत्य करते-करते अध्यात्म कैसे जिया, यह उनके द्वारा विविध स्थानों पर बताए प्रसंगों से ध्यान में आया । उसे इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास कर रही हूं । जीवनभर कला की साधना करनेवाले कथ्थक नृत्यकला के तपस्वी पद्मविभूषण पंडित बिरजू महाराज को भावपूर्ण श्रद्धांजली !

संकलनकर्ता – श्रीमती सावित्री वीरेंद्र इचलकरंजीकर, नृत्य अभ्यासिका, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा.