सरकार की ‘एथिक्स कमेटी’ और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद को न्यायालय का नोटिस !
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) – इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता अरुण कुमार गुप्ता ने एक शोध के आधार पर दावा किया है कि गंगाजल के द्वारा कोरोना का उपचार किया जा सकता है । उन्होंने इस संबंध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट की है और उच्च न्यायालय ने इसे स्वीकार कर लिया है । याचिका में “कोरोना के उपचार के लिए गंगाजल के उपयोग की अनुमति मांगी गई है । याचिका पर सुनवाई के दौरान न्यायालय ने केंद्र सरकार की ’ एथिक्स कमेटी और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद’ को नोटिस भेजकर ६ सप्ताह में उत्तर देने का निर्देश दिया है । शोध दल के अनुसार यदि गंगाजल को नासिका छिद्रों में डाला जाए तो वह पूरे शरीर में फैल जाता है और श्वसन तंत्र में छिपे विषाणुऒं को नष्ट कर देता है।
१. अधिवक्ता अरुण कुमार गुप्ता ने अप्रैल २०२० में कोरोना की पहली लहर के समय राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को गंगाजल के कोरोना पर होनेवाले परिणाम के संबंध में शोध भेजा था तथा कहा था कि ‘गंगाजल के औषधीय गुणों का शोध करने का प्रयत्न करना चाहिए । यह शोध उस समय भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद को भी भेजा गया था; परंतु उसने इसमें कोर्इ विज्ञान नहीं है, यह कहते हुए खारिज कर दिया था ।यह शोध खारिज करने के उपरांत बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के ५ वरिष्ठ डॉक्टरों के एक दल ने इस पर पुनः से शोध किया । शोध निबंध सितंबर २०२० में एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।
२. अधिवक्ता अरुण गुप्ता ने कहा कि ‘बैक्टीरियोफेज'(बैक्टीरिया खाने वाले ) के माध्यम से कोरोना संक्रमण का दो प्रकार से उपचार किया जा सकता है । कोरोना नाक पर आक्रमण करता है । गंगोत्री के २० किमी आगे से गंगाजल लाया गया था।गंगाजल से ‘ नेज़ल स्प्रे ’ बनाया गया और ६०० लोगों को नाक द्वारा गंगाजल दिया गया । जिन लोगों को नेज़ल स्प्रे दिया गया, उनकी कोरोना की जांच नकारात्मक (निगेटिव) आई तथा जिन लोगों को नेज़ल स्प्रे नहीं दिया गया, वे कोरोना से पीडित पाए गए ।
३. याचिका के संबंध में अधिवक्ता अरुण कुमार गुप्ता ने कहा, ‘हजारों वर्षों से हमारी यह श्रद्धा रही है कि गंगाजल कभी खराब नहीं होता । इसमें कभी भी विषाणु उत्पन्न नहीं होते । गंगा नदी में १ सहस्र ३०० प्रकार के बैक्टीरियोफेज मिले हैं । अब नए शोध से पता चला है कि गंगाजल कोरोना संक्रमण के उपचार के लिए भी परिणामकारक सिद्ध हुआ है । केवल ३० रुपये में एक नेज़ल स्प्रे बना सकते हैं और उसके द्वारा कोरोना से पीडितों पर उपचार कर सकते हैं, तो भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद इसे क्यों नकार रही है ? केंद्र सरकार को स्वयं इस पर शोध करना चाहिए।
४. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने यह शोध खारिज करते हुए कहा है ‘अधिवक्ता अरुण गुप्ता के पास ‘क्लीनिकल डेटा’ नहीं था, इसलिए उनका शोध खारिज कर दिया गया । इसके उपरांत बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के डॉक्टरों के एक दल द्वारा शोध करने के पश्चात भी सरकार ने कुछ नहीं किया, इसलिए मुझे न्यायालय की शरण में जाना पड़ा, एेसा अधिवक्ता”गुप्ता ने स्पष्ट किया ।
५. अधिवक्ता गुप्ता ने कहा कि जब प्रकरण सरकार की एथिक्स समिति के पास गया, तो उन्होंने कहा कि गंगा जल देना “अनैतिक” है । मैं पूछता हूं, यह ‘अनैतिक’ क्यों है ? अनेक युगों से गंगाजल में तथ्य और औषधीय गुण हैं इसमें विषाणुऒं को मारने की क्षमता है, तो इस पर शोध करने के स्थान पर शोध को खारिज क्यों किया जा रहा है ?
वर्ष १८९६ में किया गया था शोध !
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के न्यूरोलॉजी विभाग के प्रा. विजय नाथ मिश्र ने कहा कि वर्ष १८९६ में हैजे की महामारी के समय डॉ. हैकिंग ने एक शोध किया था । जिसमें यह पाया गया कि जो लोग गंगाजल पीते हैं उन्हें हैजा नहीं होता । लंबे समय तक इस शोध पर किसी ने ध्यान नहीं दिया । १९८० में सामने आया कि सभी नदियों में बैक्टीरियोफेज होते हैं । गंगाजल में १ सहस्र ३०० प्रकार के बैक्टीरियोफेज होते हैं प्रा. गोपालनाथ ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में १९८० से १९९० तक बैक्टीरियोफेज की सहायता से रोगियों का उपचार किया था।
अधिवक्ता अरुण कुमार गुप्ता द्वारा किया गया शोध
अधिवक्ता अरुण कुमार गुप्ता ने गंगा किनारे रहने वाले ४९१ लोगों का सर्वेक्षण किया । प्रतिदिन २७४ लोग गंगा में स्नान कर गंगाजल पीते थे। वे कोरोना से संक्रमित नहीं हुए । दूसरी आेर २१७ एेसे लोग थे, जो गंगा नदी के पानी का उपयोग नहीं करते थे । उनमें से २० लोग कोरोना संक्रमित हो गए तथा दो की मृत्यु हो गई ।