महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित कार्यशाला में जिज्ञासुओं के लिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का मार्गदर्शन

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ‘स्पिरिच्युअल साइन्स रिसर्च फाउंडेशन’ संस्था के प्रेरणास्रोत हैं । पूरे विश्व में अध्यात्मप्रसार करने के उद्देश्य से उन्होंने ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ की स्थापना की है । इस विश्वविद्यालय की ओर से भारत के गोवा स्थित आध्यात्मिक शोध केंद्र में ५ दिनों की आध्यात्मिक कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं । इन कार्यशालाओं का उद्देश्य है – ‘जिज्ञासुओं को साधना के प्रायोगिक भाग की जानकारी देकर उनकी साधना को गति प्रदान करना’ । परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा इन कार्यशालाओं में उपस्थित जिज्ञासुओं के लिए किया मार्गदर्शन यहां दे रहे हैं । (भाग ५)

१. साधना

१ ए. भगवान सहायता करते हैं, तब उनका आभार न मानें; क्योंकि भगवान आभार के परे हैं !

श्रीमती मामी सुमगरी : मैं पिछले कुछ दिनों से गोवा के आश्रम में रह रही हूं । यहां प्रत्येक व्यक्ति सदैव हंसमुख रहता है । साधकों के हास्य के कारण मुझे उनसे अपनापन लगता है और आनंद भी होता है । यहां मुझे अत्यधिक अच्छा लगा ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : यह वातावरण आपको अपने शहर और देश में भी निर्माण करना है । यहां उपस्थित ‘एसएसआरएफ’ के साधक स्वयं के देश में ऐसा वातावरण निर्माण करने का प्रयास कर रहे हैं । क्या आपको उनसे कुछ प्रश्न पूछना है ?

श्रीमती मामी सुमगरी : मुझे केवल आभार मानना है ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : जब भगवान सहायता करता है, तब उसका आभार न मानें । भगवान आभार के परे हैं । जो व्यक्ति पराया अथवा दूर का है, उसका हम आभार मानते हैं । भगवान हमारे अपने है । इसलिए उनका आभार मानने की क्या आवश्यकता ? हम स्वयं भगवान से एकरूप हो गए, तब क्या हम स्वयं का आभार मानेंगे ? भगवान आपके निकट आकर सहायता करता है । इसका अर्थ आप भगवान के ही एक अंश हो गए हैं । भगवान को छोडकर अन्यों का आभार माने । हमें भगवान मिलता है, तब हमारी मन और बुद्धि कार्यरत नहीं होती । हम आनंदावस्था में रहते है और इस स्थिति में शब्द न होकर सभी शब्दों के परे होता है । यही स्थिति आप अनुभव कर रहे हैं ।

१ ऐ. ईश्वरप्राप्ति होने तक साधना के प्रयासों के प्रति संतुष्ट न हो !

श्रीमती श्वेता क्लार्क : श्रीमती शरण्या देसाई अपने १० माह के बच्चे को अपनी मां के पास छोडकर इस ५ दिवसीय कार्यशाला में आई है । उनमें साधना की अत्यधिक लगन है । उन्होंने कार्यशाला में भलीभांति सहभाग लिया । इस समय वे अत्यधिक उत्साही और आनंद में हैं ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : शरण्या, क्या आपको स्वयं में कुछ परिवर्तन अनुभव होते हैं ?

श्रीमती शरण्या देसाई : २ वर्ष पहले मैं यहां आई थी । उसकी तुलना में मुझे स्वयं में अत्यधिक परिवर्तन अनुभव होते हैं । अब मुझे शांति लग रही है । मुझे ५ दिवसीय आध्यात्मिक कार्यशाला के लिए आश्रम में आ पाना असंभव लग रहा था; परंतु मुझे ही समझ में नहीं आया कि यह कैसे संभव हुआ । भगवान की कृपा और माता-पिता के सहयोग के कारण मैं यहां आ पाई । सभी ने यहां आने के लिए मुझे अत्यधिक सहायता की । इसीलिए मैं कार्यशाला में आकर आनंद की अनुभूति ले पाई ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : किसी व्यक्ति में साधना करने की तीव्र लगन हो, तो भगवान सदा उस व्यक्ति की सहायता करते हैं । जिस व्यक्ति में लगन अल्प होती है वह उसका दोष भगवान को देता है और कहता है, ‘घरवाले मुझे आने की अनुमति नहीं देते ।’ वास्तव में उनमें लगन न होने से वैसा होता है ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : आप योग्य मार्ग पर हैं । सभी इनका उदाहरण ध्यान में रखें । यहां जो कुछ बताया गया, वह उन्होंने कृति में लाया है । इसलिए उनकी प्रगति हो रही है । आप पहले की तुलना में अधिक आनंद में हैैं न ?

श्रीमती शरण्या देसाई : हां परम पूज्य; परंतु विगत पूरे वर्ष साधना के अपेक्षित प्रयत्न करने में मेरे प्रयास अल्प रहे ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : प्रत्येक साधक को ‘मेरे साधना के प्रयास अल्प हो रहे हैं’, ऐसा ही लगना चाहिए । जिस क्षण ‘मुझसे भलीभांति प्रयास हो रहे हैं’, ऐसा लगता है । उस समय अहं में वृद्धि होती है, जिससे साधना में अधोगति होती है । ईश्वरप्राप्ति होने तक ‘मेरे ईश्वरप्राप्ति के प्रयास पर्याप्त नहीं हैं’, ऐसा ही लगना चाहिए । (क्रमशः)