हिन्दुओ, आइए श्रीराम जन्मभूमि की खोज करनेवाले सम्राट विक्रमादित्य के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं !
प्रत्येक हिन्दू के मन में एक आस होती है कि ‘जीवन में न्यूनतम एक बार श्रीरामजन्म भूमि के दर्शन कर धन्य होना चाहिए ।’ सम्राट विक्रमादित्य ने अत्यंत लगनपूर्वक और ईश्वर पर अपार श्रद्धा रखकर श्रीराम जन्मभूमि की खोज की और उसके उपरांत वहां विधिवत राममंदिर का निर्माण किया । उनके परिश्रम के कारण ही आज हम श्रीराम जन्मभूमि के दर्शन कर सकते हैं तथा प्रभु श्रीराम की मूल मूर्ति के दर्शन हमें श्री कालाराम मंदिर में होते हैं । इसलिए सम्राट विक्रमादित्य के प्रति जितनी कृतज्ञता व्यक्त करें, उतनी कम है ! ‘सम्राट विक्रमादित्य की लगन और भाव हममें भी निर्माण होने दीजिए’, ऐसी प्रभु श्रीराम के चरणों में प्रार्थना है !’ – (श्रीचित्शक्ति) श्रीमती अंजली गाडगीळ
१. संपूर्ण भारत के ७ मोक्षनगरों में अग्रस्थान पर है अयोध्या !
षट्गुणैश्वर्य भगवान श्रीविष्णु के चरणकमल ही अवंतिकापुरी (वर्तमान उज्जैन) है । शिवकांची और विष्णुकांची (वर्तमान कांचीपुरम, तमिलनाडु) ये दोनों श्रीविष्णु की जांघें हैं । नाभिस्थान द्वारकापुरी और हृदयस्थान मायापुरी (वर्तमान हरिद्वार) है । कंठस्थान (गला) मथुरानगरी है तथा नासाग्र पर काशीपुरी (वर्तमान काशी, वाराणसी) स्थित है । इतने ब्रह्मपदों के वर्णन कर ‘परब्रह्मस्वरूप अयोध्या भगवंत का शीर्षकमल है’, ऐसा ऋषियों ने अयोध्या का वर्णन किया है ।
इससे समझ में आता है कि ये सप्तपुरी साक्षात भगवान श्रीविष्णु की देह है । हमारी भारतभूमि में साक्षात ईश्वर का वास है । इससे ध्यान में आता है कि भारत में जन्म लेना कितना बडा भाग्य है । इन सातों मुख्य मोक्षनगरों में (जहां निवास, जन्म और मृत्यु मिलने से मोक्ष की अपेक्षा की जा सकती है, ऐसे नगरों में) अयोध्यानगर अग्रस्थान पर है । जगप्रसिद्ध सूर्यवंश की उत्पत्ति यहीं हुई थी तथा बडे-बडे धर्मात्मा राजा भी यहीं हुए थे ।
१ अ. अयोध्या का ३ बार उद्धार होना : इस अयोध्यानगरी का ३ बार उद्धार हुआ है । प्रथम सूर्यवंशी राजा रुक्मानंद एकादशी के व्रतप्रभाव से अयोध्यानगरी के समस्त जीवों को वैकुंठ ले गए थे । कुछ समय पश्चात इसी वंश में राजा हरिश्चंद्र का जन्म हुआ । वे अपने सत्यव्रत के प्रभाव से अयोध्या की प्रजा को वैकुंठ ले गए । उसके उपरांत इसी श्रेष्ठ रघुवंश में त्रैलोक्याधिपति प्रभु श्रीरामचंद्र अवतरित हुए । उन्होंने भी निजधाम जाते समय अयोध्यावासियों को सरयू नदी में स्नान करवाया तथा दिव्यदेह प्रदान किए एवं सबको स्वयं के साथ वैकुंठ ले जाने की तैयारी की । उस समय वे श्री हनुमान को पास बुलाकर बोले, ‘‘मेरे पश्चात अयोध्या का राज्य तुम संभालो और कल्प तक (अंत तक) अचल राज्य करो ।’’ यह आज्ञा देकर प्रभु ने हनुमानजी को अयोध्या की गद्दी पर बिठाया । तब से प्रभु श्रीरामचंद्रजी की आज्ञा को शिरोधार्य मानकर हनुमानजी अभी तक वहीं बैठे हैं । सांप्रत अयोध्या के मुख्य देवता श्री हनुमानबली जागृत हैं ।
१ आ. प्रभु श्रीराम के पुत्र लव-कुश का पुनः अयोध्यानगरी का पुनरुत्थान करना : प्रभु श्रीराम के निजधाम लौटने के उपरांत बहुत समय तक अयोध्यानगरी उदास स्थिति में थी । अयोध्या पर दृष्टि घुमाने पर जहां-तहां घनघोर अरण्य, वानरसेना और सरयू नदी ये तीन ही दिखाई दे रहे थे । इसके अतिरिक्त चौथा स्थान हनुमानजी का था । अन्य कोई वस्तुएं शेष नहीं रह गई थीं । कालांतर से प्रभु श्रीराम के पुत्र लव-कुश ने स्वर्गद्वार तीर्थ पर श्रीनागेश्वरनाथ महादेव की स्थापना की तथा पुनः अयोध्यानगरी यथायोग्य बसाई । यह कथा त्रेता और द्वापर युग की है ।
२. अयोध्या की खोज कर मंदिरों की स्थापना करनेवाले सम्राट विक्रमादित्य !
२ सहस्र वर्ष पूर्व उज्जयिनी में सम्राट विक्रमादित्य राज्य करते थे । एक बार प्रभु श्रीराम की कृपा से उनके मन में कुछ विचार आए । वे विचार करने लगे, ‘मेरा जन्म क्षत्रिय कुल के सूर्यवंश में हुआ है और सूर्यवंश की मातृभूमि अयोध्या है । वह प्रभु श्रीरामचंद्रजी की जन्मभूमि है । उस भूमि को खोजना चाहिए ।’ ऐसा विचार कर सम्राट विक्रमादित्य अयोध्या पहुंचे और वहां उपस्थित लोगों के साथ श्रीराम जन्मभूमि की खोज करने लगे; परंतु ‘जन्मभूमि यही है’, ऐसा निश्चित प्रमाण कहीं नहीं मिला ।
२ अ. सम्राट विक्रमादित्य को एक दैवी पुरुष मिलना : सम्राट विक्रमादित्य पश्चाताप युक्त मन से सरयू नदी के निकट स्थित निर्मली कुंड पर विचार करते हुए बैठे थे । उस समय उन्हें एक दिव्य पुरुष काले रंग की पोषाख पहने तथा काले घोडे पर बैठकर वहां आता हुआ दिखाई दिया । उसने निर्मली कुंड में स्नान किया तथा अपने घोडे को भी स्नान करवाया । केवल स्नानमात्र से उन दोनों की कांति कपूर की भांति दिव्य हो गई । अचानक उस पुरुष के शरीर का रंग परिवर्तित हो गया । यह चमत्कार देखकर सम्राट विक्रमादित्य अत्यंत चकित हो गए । उसे दैवी पुरुष मानकर राजा ने नमस्कार किया ।
२ आ. उक्त दैवी पुरुष तीर्थराज प्रयाग होना और उसका श्रीराम जन्मभूमि खोजने के लिए सम्राट विक्रमादित्य को आशीर्वाद देना : अपना परिचय देकर राजा ने उसे प्रभु श्रीरामचंद्र की जन्मभूमि दिखाने की विनती की और हाथ जोडकर सामने खडे हो गए । राजा की भक्ति देखकर उस पुरुष ने कहा, ‘‘राजा, तुम धन्य हो और तुम्हारा प्रश्न भी उत्तम है; परंतु मैं यहां समय का अपव्यय नहीं कर पाऊंगा । इसलिए हे राजन, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर काशीक्षेत्र पर सम्राट विश्वनाथ के दरबार में मिलेगा ।’’ उसने स्वयं का परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं तीर्थराज प्रयाग हूं । जनता की पापरूपी कालिमा को नित्य इस निर्मली कुंड में धोता हूं । तत्पश्चात पुनः संसार के पाप ग्रहण करने के लिए अपनेे स्थान पर लौट जाता हूं । इसलिए मुझे शीघ्र निकलना चाहिए ।’’ इस समय राजा को आशीर्वाद दिया कि ‘प्रभु श्रीराम तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करें’ और तीर्थराज वहीं अदृश्य हो गए ।
३. श्रीराम जन्मभूमि की खोज करने के लिए सम्राट विक्रमादित्य का किया हुआ तप !
३ अ. राजा का निश्चय देखकर काशी विश्वेश्वर का प्रसन्न होना : सम्राट विक्रमादित्य ने प्रभु श्रीराम का स्मरण किया और श्रीकाशीक्षेत्र जाने के लिए प्रयाण किया । वहां उन्होंने भगवान विश्वेश्वर के दर्शन किए और प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि का पता बताने की प्रार्थना की । प्रार्थना कर सम्राट अन्न-जल रहित तथा निश्चयपूर्वक शिवनाम का जप करते हुए वहीं शिवद्वार पर धरना देकर बैठ गए । राजा का यह निश्चय देखकर परम करुणामयी भगवान श्री शंकरजी ने एक वृद्ध व्यक्ति का रूप धारण किया । एक हाथ में पुस्तक और दूसरे हाथ में वृद्ध गाय लेकर ब्राह्मण के रूप में भगवान शिव उनके सामने आकर खडे हो गए ।
३ आ. विश्वेश्वररूपी वृद्ध व्यक्ति का रामजन्मस्थान खोजने का मार्ग दिखाना : उन्होंने राजा से कहा, ‘‘यह अन्नपूर्णानगरी है । यहां निराहार रहने का प्रयत्न न करो । मेरे वचन पर विश्वास हो, तो तुम्हारे सर्व मनोरथ पूर्ण होंगे । यह कामधेनु और यह पोथी लेकर तुम अयोध्या जाओ । वहां सरयू नदी के तट पर इस गाय को चरने हेतु छोड दो । जहां उसके आंचल से दूध की धारा बहने लगेगी, ‘वहीं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचंद्रजी का जन्म हुआ है’, यह निश्चित मानो । इस पोथी के आधार पर अयोध्यानगरी की पुनर्रचना करो । श्री विश्वेश्वर तुम पर प्रसन्न हैं और तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा ।’’ यह बताकर वृद्ध ब्राह्मणरूपी विश्वेश्वर वहीं अंतर्धान हो गए । उसके पश्चात राजा ने उस पोथी और गाय के साथ श्री विश्वेश्वर को नमन किया और अयोध्या के लिए प्रयाण किया ।
४. सम्राट विक्रमादित्य द्वारा श्रीराम जन्मभूमि की खोज करने पर उस स्थान की विधिवत पूजा करना !
श्रीरामचंद्रजी का ध्यान करते हुए सम्राट बडे आनंद से सरयू के तट पर आ पहुंचे । वहां उन्होंने यथाविधि सरयू माता की पूजा की । तत्पश्चात नदी को साष्टांग नमस्कार कर गाय को प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि दिखाने की प्रार्थना की । उसके उपरांत वह कामधेनु स्वच्छंदता से सरयू के तट पर घूमने लगी । राजा भी उसके पीछे-पीछे घूम रहे थे । कुछ समय पश्चात एक स्थान पर उसके आंचल से दूध की धारा बहने लगी । यह देखकर राजा को अत्यधिक आनंद हुआ । ‘आज मैं धन्य हो गया, कृतकृत्य हो गया’, यह कहकर उन्होंने उस भूमि और कामधेनु की विधिवत पूजा की । तत्पश्चात वेदशास्त्रसंपन्न ब्राह्मणों को बुलाकर उनका भी पूजन कर उन्हें संतुष्ट किया । पूर्व में घटित सर्व वृत्तांत बताकर राजा ने वह पोथी ब्राह्मणों के सामने रखी । उन्हें हाथ जोडकर प्रार्थना की, ‘हे भूदेवताओ, इस अयोध्यानगरी की पुनर्रचना करने की मेरी इच्छा है, वह पूर्ण कीजिए ।’ इसके पश्चात उन ब्राह्मणों ने इस पोथी के आधार पर अयोध्या की सीमा और सर्व तीर्थस्थानों की खोज की । अन्य स्थान और जहां जाते ही प्रभु के चरित्र की जानकारी मिलती है, ऐसे मंदिर और मूर्तियां स्थापित कीं ।
५. सम्राट विक्रमादित्य द्वारा श्रीराम जन्मभूमि के स्थान पर निर्माण किए गए विविध मंदिर !
सम्राट विक्रमादित्य ने सर्वप्रथम ५ मंदिरों का निर्माण कर उन स्थानों पर प्रभु श्रीरामचंद्रजी की मूर्तियों की स्थापना की तथा पूजा, भोग आदि की व्यवस्था की ।’
(संदर्भ : श्री अयोध्या महात्म्य, लेखक : यशवंतराव देशपांडे)