सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा १२ मार्च को सेवानिवृत्त हुईं । वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त वे दूसरी महिला हैं । ऐसे कुछ गिने-चुने अधिवक्ताओं में से एक हैं जिनकी अधिवक्ता पद से सीधे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के पद पर पदोन्नति हुई इंदु मल्होत्रा वही न्यायमूर्ति हैं, जिन्होंने केरल के शबरीमाला स्थित श्री अय्यप्पा स्वामी मंदिर में महिलाओं को प्रवेश दिलाने के लिए प्रविष्ट याचिका पर अपना धर्म सम्मत विचार व्यक्त किया । संविधान पीठ के चार न्यायमूर्तियों ने धार्मिक परंपराओं के विपरीत महिलाओं को प्रवेश देने का निर्णय दिया था; परंतु न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ने यह स्पष्ट मत व्यक्त किया कि ‘प्राचीन धार्मिक परंपराओं में न्यायालय का हस्तक्षेप करना उचित नहीं; क्योंकि इसका अन्य धार्मिक स्थलों पर भी दूरगामी परिणाम होगा । इस प्रकार की याचिका सर्वोच्च न्यायालय में सुनना, देश की धर्मनिरपेक्ष रचना को ठेस पहुंचाने जैसा है । साथ ही नास्तिकतावादियों को प्रोत्साहन देने जैसा है ।’ हिन्दू धर्म के विपरीत बोलकर ‘आधुनिकतावादी’, ‘सर्वधर्मसमभावी’ के रूप में विख्यात होने के काल में, सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ पर बैठी महिला के ये उद़्गार धर्मप्रेमी हिन्दुओं के लिए आशा की किरण हैं । न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा द्वारा प्रस्तुत विचारों का परिणाम इस प्रकार हुआ कि इस विषय में पुनर्विचार याचिका प्रस्तुत की गई है । पुरुष प्रधान वातावरण में भी अपनी न्यायबुद्धि के अनुरूप निश्चयपूर्वक आगे बढने पर निश्चित रूप से कुछ न कुछ होता है, यह इस उदाहरण से दिखाई देता है ।
न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा देश के सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार पद पर थीं । वास्तविक अर्थ में वे पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही थीं । ऐसा होते हुए भी वे छद्म सुधारवाद, महिला-पुरुष समानता की झूठी अवधारणाओं की बलि नहीं चढीं ।
जनहितकारी दृढ विचार
दहेज प्रथा के संदर्भ में याचिका पर निर्णय देते हुए उन्होंने कहा, ‘‘दहेज हत्या जैसे प्रकरणों में पीडिता के माता-पिता प्राकृतिक साक्षीदार होते हैं; क्योंकि ऐसे समय पर कोई भी पहले अपने माता-पिता, रिश्तेदार को ही बताता है ।’’ सामान्यतः कितनी भी बडी समस्या हो तब भी न्यायालय में दिखाए जा सके, ऐसे प्रमाण और साक्षी प्राप्त करने की अपेक्षा निराश होकर न्यायालय की सीढी न चढने का निर्णय सामान्य व्यक्ति स्वीकार करता है । पीडिता के माता-पिता को सांत्वना देनेवाला यह निर्णय, सामान्य लोगों की समस्याओं के विषय में न्यायमूर्ति मल्होत्रा की संवेदनशीलता दर्शाता है । एक अन्य याचिका पर निर्णय देते हुए उनके द्वारा व्यक्त उद़्गार वर्तमान में जिस प्रकार राजनीतिक अथवा व्यक्तिगत उद्देश्य से जांच संस्थाओं का उपयोग किया जाता है उस पर लगाम लगाते हैं । किसी प्रकरण में हडबडी में छापा मारकर एक-दो लोगों को गिरफ्तार करना और उन पर अभियोग चलने ही न देना, इस प्रथा के अनेक लोग बलि चढे हैं । जांच संस्थाआें का निर्धारित समय में जांच पूरी न करना, यह उनके आरोपियों के विषय में उनका पूर्वाग्रह सिद्ध करता है, ऐसा न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने कहा है । एक प्रकरण में न्यायालय में किसी को जमानत क्यों दी ? इसके कारण स्पष्ट किए जाएं, ऐसा उन्होंने कहा था । इस प्रकार विभिन्न निर्णयों में उनके द्वारा व्यक्त किए गए भिन्न; परंतु स्पष्ट विचार उनकी विशेषता इंगित करते हैं ।
कर्तव्य पूर्ति का संतोष
न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने सर्वोच्च न्यायालय से विदा लेते समय भी कहा, ‘मैंने कर्तव्य पूर्ति की, इस संतोष के साथ मैं न्यायालय से विदा ले रही हूं ।’ आजकल एक नई पद्धति प्रचलित हुई है, अधिकार पदों पर बरसों बने रहना, उन सुविधाओं का उपभोग करना व निवृत्ति के उपरांत इस व्यवस्था की त्रुटियां दिखाकर सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयास करना एक निवृत्त मुख्य न्यायाधीश ने ‘सर्वोच्च न्यायालय में कुछ व्यक्तियों के गुट ने मुझे काम नहीं करने दिया ।’ इस प्रकार निराशा व्यक्त की । एक अन्य न्यायमूर्ति ने ‘सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था धनवानों के लिए ही है’, ऐसा आरोप निवृत्ति के उपरांत लगाया । इस प्रकार स्वयं ही टिप्पणी करने से ‘मैं उनमें से एक नहीं हूं’, यह दिखाया जा सकता है । इसी के साथ सेवानिवृत्त होने के कारण इसमें सुधार करने के लिए कुछ नहीं करना होता; परंतु बोलने से प्रसिद्धि बहुत मिल जाती है । ‘स्वयं अधिकार पद पर रहकर आपने क्या किया’, ऐसा भारत में अभी तक तो कोई न्यायमूर्तियों से नहीं पूछता हमें न्याय व्यवस्था के दोष दूर करने के लिए अभी और बहुत प्रयास करने हैं; परंतु उसके लिए केवल शाब्द़िक चिंता व्यक्त करना पर्याप्त नहीं । प्रत्येक व्यक्ति अपना काम सतर्कता से, न्याय बुद्धि से करे, तभी व्यवस्था सुधारने की प्रक्रिया निश्चित रूप से गतिमान होगी, यही इससे समझ में आता है ।