साधना के रूप में अन्‍य लोगों की चूक कब बतानी चाहिए ? इस सूत्र का अभ्‍यास करते समय श्री. यशवंत कनगलेकर द्वारा हुई विचार प्रक्रिया

 

श्री. यशवंत कनगलेकर

२०.९.२०१९ के दैनिक ‘सनातन प्रभात’ में पृष्‍ठ क्रमांक ७ पर परात्‍पर गुरु डॉ. आठवलेजी के बताए कुछ मार्गदर्शक सूत्र प्रकाशित हुए थे । उसमें परात्‍पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने ‘साधना के रूप में अन्‍य लोगों को उनकी चूक कब बतानी चाहिए ?’ इस प्रश्‍न का उत्तर बताया था । उन्‍होंने बताया, ‘‘अन्‍य व्‍यक्‍ति की चूक से स्‍वयं को विकल्‍प अथवा क्रोध आता हो (अर्थात स्‍वयं पर नकारात्‍मक परिणाम होता हो ), तो साक्षीभाव से आचरण करना एवं उस चूक से स्‍वयं पर सकारात्‍मक परिणाम होता हो, तो साक्षीभाव से नहीं रहना चाहिए’’

१. चूकों के संबंध में हुई विचार प्रक्रिया

उपर्युक्‍त सूत्र का अभ्‍यास करते समय मेरी जो विचार प्रक्रिया हुई, वह आगे दिए अनुसार है ।

अ. अन्‍य लोगों की चूक देखते समय हम बहिर्मुख होते हैं; परंतु अपनी चूक देखते समय वैसा नहीं होता ।

आ. अन्‍य व्‍यक्‍ति की चूक दिखा कर उसे सहायता करने की इच्‍छा है, तब भी ‘उसे बुरा लगेगा’, मन में ऐसा भय होता है ।
इ. जब सामने का व्‍यक्‍ति अनेक बार वही चूक करता है, तो ‘उसे उसकी चूक बताने का कोई उपयोग नहीं’, ऐसा सोचकर चूक बताना नहीं हो पाता ।
ई. यदि सामने का व्‍यक्‍ति अधिकारी पद पर है, तो ‘उसे चूक बताकर आपत्ति मोल नहीं लेनी चाहिए’, मन में ऐसा भी विचार आता है ।

२. अन्‍य लोगों की चूकें बतानेवालों का अपनी चूकों की ओर ध्‍यान न रहने का कारण एवं उसके परिणाम

कुछ व्‍यक्‍तियों को अन्‍य लोगों की चूकें बताने मेंं बडप्‍पन का भान होता है; परंतु स्‍वयं की चूकों की ओर उनका ध्‍यान नहीं रहता । इसके कारण आगे दिए अनुसार हो सकते हैं ।

अ. ‘मैं प्रत्‍येक कृति योग्‍य करता हूं’, उनका ऐसा अहंभाव रहता है ।
आ. उनमें सिखाने की वृत्ति अधिक होती है ।
इ. उनमें प्रतिक्रियाआें का प्रमाण अधिक रहता है ।
ई. उनमें ‘पूर्वाग्रह रहना’ एवं ‘अन्‍य व्‍यक्‍तियों को समझकर नहीं लेना, ये स्‍वभावदोष प्रबल होते हैं ।

इसके परिणामस्‍वरूप अन्‍य लोग ऐसे व्‍यक्‍तियों से दूर जाते हैं । उन्‍हें अन्‍य लोगों से सहायता नहीं मिलती । अन्‍य लोगों की चूकें देख कर उनका मन नकारात्‍मक एवं तनावपूर्ण रहने से उनमें रक्‍तचाप एवं मधुमेह समान व्‍याधि जोर पकडती है एवं उनकी साधना की हानि होती है ।

३. ‘समष्‍टि की हानि न हो’, इसलिए समष्‍टि की चूक बताना आवश्‍यक

इस संसार में हम अकेले नहीं रह सकते । परिवार के सदस्‍य, पडोसी एवं समाज के व्‍यक्‍तियों से प्रतिदिन हमारा संपर्क होता ही रहता है । ऐसे समय में अन्‍य व्‍यक्‍तियों की चूकों से हमें कष्‍ट सहन करना पडता है । इस समय हमें साक्षीभाव से देखने के अतिरिक्‍त कोई पर्याय नहीं है; परंतु यह हुआ व्‍यष्‍टि साधना के संदर्भ में । समष्‍टि साधना में समष्‍टि की हानि न होने हेतु अन्‍य व्‍यक्‍ति को उसकी चूक का भान कराना आवश्‍यक है । उस समय इस बात पर भी ध्‍यान देना आवश्‍यक है कि उसका परिणाम अपनी साधना पर नहीं हो’, ।

४. मानव मन एवं पेशीमन में स्‍थित वितुष्‍ट के संदर्भ में सद़्‍गुरुद्गुरु डॉ.वसंत बाळाजी आठवलेजी ने ग्रंथ में उद्धृत किए कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र

इस संदर्भ में सद़्‍गुरु अप्‍पाकाका (सद़्‍गुरु डॉ.वसंत बाळाजी आठवलेजी, परात्‍पर गुरु डॉ. आठवलेजी के ज्‍येष्‍ठ बंधु ) के ‘आयुर्वेद के मूलतत्त्व’ ग्रंथ के कुछ उपयुक्‍त मार्गदर्शक सूत्र ( ४ अ से ४ उ तक ) आगे दिए हैं । (लेखक ने उन सूत्रों को शीर्षक दिए हैं )

४ अ. मान लें कि धातु एवं पेशी से बना अपना शरीर ‘एक कारखाना है’, तो ‘मन इस कारखाने का स्‍वामी है एवं पेशियां कारखाने के कामगार’ : (पृष्‍ठ क्र. ८४) ‘मानव शरीर अर्थात ७५०००,०००,००००००,०००,००० पेशियों की बस्‍ती (कॉलोनी) है ‘प्रत्‍येक पेशी को स्‍वयं का पेशीमन होता है । अपना शरीर पचनसंस्‍था, श्‍वसनसंस्‍था, रक्‍तवहन संस्‍था, मज्‍जासंस्‍था ऐसी अनेक संस्‍थाआें से बना हुआ होता है । प्रत्‍येक संस्‍था में अनेक अवयव होते हैं । प्रत्‍येक अवयव रस, रक्‍त, मांस, मेद, अस्‍थि, मज्‍जा एवं शुक्र, इन धातुआें से बना हुआ है । धातु पेशियों से बने हैं । अपने शरीर का कार्य समझने के लिए हम मान लें कि अपना शरीर एक कारखाना है एवं मन उस कारखाने का स्‍वामी, तो पेशी उस कारखाने के कामगार हैं ।

४ आ. मानव मन एवं पेशियों ने समझ से काम किया, तो मानव का स्‍वस्‍थ होना एवं मानव मन द्वारा पेशियों से अधिक अथवा अनावश्‍यक काम करवा लिया, तो पेशियों का दुखी होकर विद्रोह करना एवं रोग उत्‍पन्‍न होना : शरीर में स्‍थित करोडों पेशियां मन का आदेश क्‍यों मानती हैं ? कारखाने के कामगार उन्‍हें कारखाने में मिलनेवाला पगार, सुविधाएं इत्‍यादि अन्‍य स्‍थान पर मिलने तक ही उस कारखाने में काम करते हैं एवं मालिक का आदेश मानते हैं । उसी प्रकार शरीर में स्‍थित पेशियां भी स्‍वयं के स्‍वार्थ एवं उपजीविका के लिए शरीर में रहकर अपने स्‍वामी अर्थात मन का सुनती हैं ।

मानव मन एवं पेशी मन ने यदि समझ से काम किया, तो मानव स्‍वस्‍थ रहता है । मानव मन पेशियों से अधिक अथवा अनावश्‍यक काम करवाते हैं, तब पेशी दुखी (नाराज) होकर विद्रोह करती हैं जिससे रोग उत्‍पन्‍न होते हैं ।

४ इ. मानव मन के कारण पेशियों को होनेवाले कष्‍ट

४ ई १. मानव मन के क्रोध करने पर शरीर की सभी पेशियों को कष्‍ट भोगना : पृष्‍ट क्रमांक ८५ जब कोई व्‍यक्‍ति अन्‍य व्‍यक्‍ति पर क्रोध करता है, उस समय एक मानव मन दूसरे मानव मन पर क्रोध करता है, परंतु उसका परिणाम शरीर में स्‍थित सभी पेशियों को भुगतना पडता है । क्रोध के परिणामस्‍वरुप श्‍वास एवं -हदय की गति बढ जाती है, रक्‍तचाप बढ जाता है । शरीर थरथर कांपता है एवं मुखमंडल रक्‍ताभ (लाल) हो जाता है ।

४ इ २. अयोग्‍य मार्ग से धन प्राप्‍त करने से पेशियों द्वारा विद्रोह करने पर अनेक रोगों का सामना करना : अधिक धन प्राप्‍त करने के लालच में मनुष्‍य सारा दिन अधिक काम करता है । परंतु शरीर की सभी पेशियां एवं अंत में मन भी थक जाता है । अयोग्‍य मार्ग से धन प्राप्‍त करने से मानसिक तनाव, रक्‍तचाप बढना, जोडों की पीडा एवं अल्‍सर इत्‍यादि रोग होते हैं । यदि कारखाने के मालिक ने कामगारों से अधिक काम करा कर अन्‍याय किया, तो कामगार विद्रोह करते हैं एवं मालिक से प्रतिशोध (बदला) लेते हैं तथा विद्रोह करनेवाली शरीर की पेशियां स्‍वयं का रूपांतर कैंसर समान पेशियों में करके अथवा असाध्‍य रोग उत्‍पन्‍न कर मानव मन से प्रतिशोध लेती हैं । मृत्‍यु होने पर कभी-कभी ये पेशियां वायरस के रूप में पुनर्जन्‍म लेकर उस व्‍यक्‍ति में संसर्गजन्‍य रोग निर्माण कर बदला लेती हैं ।

४ ई. शरीर की पेशियों को सुखी रखने हेतु प्रयास करना आवश्‍यक ! : कारखाने के स्‍वामी को चाहिए कि वह कामगारों को विश्‍वास में ले एवं उन्‍हें प्रसन्‍न रखकर उनसे अच्‍छी तरह से काम करवाए । उसी प्रकार मनुष्‍य को अपने शरीर की पेशियों को सुखी रखने हेतु प्रयास करना चाहिए । अपने शरीर की पेशियों पर अन्‍याय न हो, इस हेतु नीचे दिए गए सूत्र ध्‍यान में रखने चाहिए ।

अ. आहार-विहार में किसी भी बात अथवा काम का आधिक्‍य न हो
आ. इंद्रियों के अधीन न रहें । उन्‍हें अपने नियंत्रण में रखें ।
इ. षड्‍रिपुआें का निर्मूलन करें ।
ई. व्‍यसनाधीन न बनें।
उ. सदाचार एवं सद्वर्तन का मार्ग न छोडें ।

४ उ. मानव मन एवं पेशीमन के निरंतर सहयोग से स्‍वस्‍थ जीवन जीना संभव होना एवं शरीर की पेशी से सीख लेकर हमें एक दूसरे से सहयोग कर मित्रता से आचरण कर सर्व समाज सुखी होना : हमारी पेशियों के विषय में हमें ही सहिष्‍णुता दर्शानी चाहिए एवं उनके प्रत्‍येक विवाद का सहिष्‍णुता से विचार कर योग्‍य कृति करनी चाहिए । मानव मन एवं पेशीमन के निरंतर सहयोग से स्‍वस्‍थ जीवन जीना संभव होगा । पेशीमन को मानव मन का हेतु समझ में आता है । जिस समय उद्देश्‍य स्‍वार्थी होता है, उस समय पेशियां क्रोधित होकर विद्रोह करती हैं परंतु जब निस्‍वार्थ उद्देश्‍य से मनुष्‍य परोपकार हेतु पूरा दिन काम करता है, तो उस समय पेशियां भी बिना विवाद किए उत्‍साह एवं आनंद से साथ देती हैं । दूसरे को बचाने के लिए जब कोई व्‍यक्‍ति अग्‍नि में छलांग लगाता है, तब मानव मन एवं पेशी मन अपना जीवन संकट में होते हुए भी एक दूसरे को सहयोग करते हैं; क्‍योंकि उन्‍हें अपूर्व त्‍याग का सात्त्विक आनंद मिलता है ।

शरीर में स्‍थित पेशियों से सीख लेकर हमने एक दूसरे के साथ मित्रता से आचरण किया, तो पूरा समाज सुखी होगा ।

(संदर्भ : सद़्‍गुरु डॉ. वसंत बाळाजी आठवले (परात्‍पर गुरु डॉ. आठवलेजी के ज्‍येष्‍ठ बंधु ) के आयुर्वेद के मूलतत्त्व ग्रंथ के पृष्‍ठ क्रमांक ८४ एवं ८५ पर १६-मानव मन एवं पेशी मन के दरम्‍यान वितुष्‍ट )

५. मन नकारात्‍मक होने पर अनेक रोगों का सामना करना एवं साधना पर उसका परिणाम होने की संभावना है’, इसका भान रख कर ऐसे समय चूकों को साक्षीभाव से देखना उचित होना

अन्‍यों की चूकें देख कर हमें क्रोध अथवा प्रतिक्रिया आई, अथवा मन नकारात्‍मक हुआ, तो अपने शरीर की करोडों पेशियों पर उसका परिणाम होने से वे विद्रोह करेंगी जिससे हमें रक्‍तचाप एवं मधुमेह समान रोगों का सामना करना पडेगा । साधना पर भी इसका परिणाम इसे ध्‍यान में रख कर ऐसे समय अन्‍यों की चूकों को ओर साक्षीभाव से देखना ही उचित सिद्ध होगा ।

-श्री. यशवंत कनगलेकर, बेलगांव. ७.९.२०१९