न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला द्वारा किए गए विस्मयकारक निर्णय और की गई ‘पॉक्सो’ कानून की घोर उपेक्षा !

पू. (अधिवक्‍ता) सुरेश कुलकर्णी

१. अज्ञान लडकी के विनयभंग के प्रकरण में न्‍यायमूर्ति
पुष्‍पा गनेडीवाला द्वारा दिया गया निर्णय विवादित सिद्ध होना

     एक १२ वर्षीय लडकी का विनयभंग, उसके शरीर की दुर्गति और यौन शोषण करने के प्रकरण में ‘पॉक्‍सो’ कानून के अंतर्गत सतीश बंडूू रगडे को विशेष सत्र न्‍यायालय द्वारा दिया हुआ दंड मुंबई उच्च न्यायालय के नागपुर की न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला ने हाल ही में निरस्त किया है । यह दंड निरस्त करते समय उच्च न्यायालय द्वारा उपयोग की गई भाषा पर वर्तमान में बडा विवाद खडा हो गया है । लडकी की मां के कहने के अनुसार यह लडकी बाजार में अमरूद लाने के लिए जा रही थी, तब आरोपी उसे घर में खींचकर ले गया और उसने कुकृत्य किया । लडकी को घर आने में विलंब होने पर उसकी मां देखने गई, तब लडकी ने आरोपी के कुकृत्य के संबंध में बताया । लडकी ने बताया कि आरोपी ने उसके एक अवयव को स्पर्श किया । यौन इच्छा पूर्‍ण करने के लिए ही आरोपी ने यह कुकृत्य किया था । लडकी की मां की शिकायत पर फौजदारी अभियोग प्रारंभ हुआ । इस अभियोग में न्यायालय ने आरोपी को कठोर दंड सुनाया । इस कठोर दंड के विरुद्ध आरोपी उच्च न्यायालय में पहुंचा।

२. अज्ञानी जीवों के शील की रक्षा के लिए बनाए गए
विशेष कानून ‘पॉक्‍सो’ का न्‍यायमूर्ति को हुआ विस्मरण !

     इस अभियोग में उच्‍च न्‍यायालय ने लिखा है कि ‘जब तक ‘स्‍किन टू स्‍किन’ (त्‍वचा को त्‍वचा का) स्‍पर्श नहीं होता, तब तक यौन शोषण नहीं होता । इसलिए यह ‘पॉक्‍सो’ कानून के अंतर्गत अपराध नहीं होता ।’ यहां महिला न्‍यायमूर्ति लिखती हैं कि ‘(स्‍त्री शरीर के एक अवयव का नाम लेकर) ….को कपडों के ऊपर से स्‍पर्श करने पर वह अपराध नहीं है, यौन इच्‍छा पूर्ण करने के लिए नहीं है ।’ वास्‍तव में यह तर्क ही अतार्किक है । अज्ञानी जीवों के शील की रक्षा के लिए विशेष कानून ‘पॉक्सो’ बनाया गया है, ऐसा प्रतीत होता है कि इसका न्यायमूर्ति को विस्मरण हो गया है । जब विशेष कानून बनाया जाता है, तब सर्वप्रथम उसे बनाने का उद्देश्य समझ लेना पडता है । प्रचलित कानून होते हुए विशेष कानून क्यों बनाने पडे ? इसकी पृष्ठभूमि और उस समय की परिस्थिति का अध्ययन महत्त्वपूर्ण होता है । इसे हम व्यवहारिक समझदारी कह सकते हैं ।

३. अज्ञानी जीवों का यौन शोषण रोकने के लिए विशेष कानून ‘पॉक्‍सो’ बनाया जाना

     समाज में महिलाआें और बालिकाआें पर बडी मात्रा में अत्याचार हो रहे हैं । इसलिए घटनेवाली घटना के उपरांत उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्‍यायालय का विधि आयोग प्रचलित कानूनों में कठोर और पूर्ण परिवर्तन सुझाते हैं । महिला और बाल विकास मंत्रालय ने वर्ष २००९ से ‘पॉक्सो’ कानून बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ की । राष्ट्रीय बाल अधिकार सुरक्षा आयोग और उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों सहित अनेक विद्वानों ने वर्ष २०१२ में यह कानून बनाया और १४ नवंबर २०१२ को वह संपूर्ण देश में लागू हो गया । उसमें वर्ष २०१९ में परिवर्तन कर फांसी के दंड की व्यवस्था की गई । निर्भया पर हुए पाशविक बलात्कार के उपरांत महिला अत्याचार से संबंधित कानून कठोर बने; परंतु अज्ञानी जीवों के शील की रक्षा और यौन शोषण रोकने के लिए विशेष कानून ‘पॉक्सो’ बनाया गया ।

४. न्‍यायमूर्ति गनेडीवाला के निर्णय को राष्‍ट्रीय
महिला आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देना !

     धारा ७ और ८ के अनुसार बालकों के गुप्त अंगों से छेडछाड करने पर ५ से ७ वर्षों का दंड होता है । विशेष सत्र न्यायालय ने यहां वही किया था । धारा ११ के अनुसार बुरे उद्देश्य से बालकों को हाथ लगाने पर भी ३ वर्षों का दंड मिलता है । ऐसे विशेष कानूनों के अंतर्गत हुए अपराधों के संबंध में निर्णय देते समय न्यायाधीशों की सामान्य बुद्धिमानी, व्यवहारज्ञान और व्यवहारिक समझदारी का अत्यधिक महत्त्‍व होता है, उसी प्रकार यहां न्यायदान करनेवाला व्यक्ति भी संवेद़नशील मानसिकतावाला होना चाहिए । स्वाभाविक ही न्यायमूर्ति गनेडीवाला के निर्णय के विरुद्ध बडी मात्रा में विवाद हुआ । निर्णय की निंदा करनेवालेे लेख, अग्रलेख और टिप्पणियां समाचार वाहिनियों और समाचार पत्रों में प्रसारित हुईं । अपेक्षा के अनुरूप राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस निर्णय के विरुद्ध महाराष्ट्र सरकार की ‘अपील’ की प्रतीक्षा न करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी । इस निर्णय के विरुद्ध केंद्र सरकार के महाधिवक्ता ने सर्वोच्च न्यायालय में बहस में कहा है कि नागपुर उच्च न्यायालय का निर्णय पत्र गलत उदाहरण स्थापित करेगा । (मुंबई उच्च न्यायालय के निर्णय महाराष्ट्र की कनिष्ठ न्‍यायसंस्था पर बंधनकारक होते हैं ।) ऐसा निर्णय महिलाआें और बालिकाआें की रक्षा के विरोध में होने के कारण उनके अपराधों में वृद्धि ही होगी ।

५. A‘पॉक्‍सो’ कानून की उपेक्षा कर न्‍यायमूर्ति गनेडीवाला द्वारा दिए हुए असंवेदनशील निर्णय !

५ अ. लडकी के मन में लज्‍जा उत्‍पन्‍न होगी, ऐसा अश्‍लील वर्तन करनेवाले को भी खुला छोडना : न्‍यायमूर्ति गनेडीवाला ने एक के पश्‍चात एक विस्‍मयजनक, सामान्‍यजनों के मन को रास न आनेवाले और समाज की संवेदनाएं आहत करनेवाले निर्णय दिए हैं । गडचिरोली स्थित एक अज्ञान लडकी की मां ने शिकायत की थी कि ५० वर्षीय आरोपी ने उसकी लडकी का हाथ पकडकर उसे अपने साथ सोने के लिए कहा तथा अपनी पैंट की चेन खोली । इस प्रकरण में विशेष सत्र न्यायालय ने आरोपी को ‘पॉक्सो’ कानून के अंतर्गत दंड दिया था । इस निर्णय के विरुद्ध की गई अपील का निर्णय करते हुए न्यायमूर्ति गनेडीवाला ने कहा कि ‘यह ‘पॉक्सो’ कानून के अंतर्गत अपराध नहीं है ।’ ‘हाथ पकडना और पैंट की चेन खोलना, इससे यौन शोषण न होने के कारण यह अपराध नहीं है तथा यह केवल विनयभंग हुआ है तथा इसके लिए आरोपी ने जो दंड भुगता है, वह पर्याप्त है’, यह कहते हुए न्यायमूर्‍ति गनेडीवाला ने आरोपी की अपील अंशत: स्वीकार की थी । यहां भी अज्ञान बालिकाआें के शील की रक्षा और उनका यौन शोषण रोकने के लिए बने हुए विशेष कानून ‘पॉक्सो’ का उद़्‍देश्य न्यायमूर्ति कैसे भूल सकती हैं, यह बडा रहस्य है । इस निर्णय के विरुद्ध भी विवाद हुआ था ।

५ आ. बलात्‍कार प्रकरण में भी ‘पॉक्‍सो’ कानून खूंटे पर लटकाना : न्‍यायमूर्ति गनेडीवाला ने सूरज चंदू कासारकर नामक आरोपी की अपील स्‍वीकार करते हुए भी ‘पॉक्‍सो’ कानून की उपेक्षा की ।

     एक १५ वर्षीय अज्ञान बालिका की शिकायत के अनुसार उसकी मां रात को प्राकृतिक क्रिया के लिए जब बाहर गई थी और उसका भाई सोया हुआ था, तब आरोपी (सूरज) ने उसका मुंह दबाकर उसके तथा स्वयं के कपडे हटाकर उस पर बलात्कार किया था । इस प्रकरण में यवतमाळ के विशेष न्यायालय ने आरोपी को १० वर्षों का दंड दिया था । ऐसा होते हुए मुंबई उच्च न्‍यायालय के नागपुर खंडपीठ ने (न्यायमूर्ति गनेडीवाला ने) उसे निर्दोष सिद्ध करते हुए कहा, ‘आरोपी एक ही समय लडकी का मुंह दबाना, स्वयं के साथ उसके कपडे हटाना, बलात्कार करना आदि सभी क्रियाएं एकत्रित नहीं कर सकता ।’ इस प्रकार इस प्रकरण में भी ‘पॉक्सो’ कानून को खूंटे पर लटकाया गया, यह जनसामान्य को लगे, तो आश्चर्य क्या है ?

५ इ. आत्‍महत्‍या करने हेतु प्रेेरित करने के प्रकरण में आरोपी को छोड देना : प्रशांत जारे ने पत्नी को आत्‍महत्‍या करने हेतु प्रेरित किया; इसलिए दारव्‍हा के विशेष न्‍यायालय ने उन्‍हें दोषी सिद्ध कर दंडित किया था । इस प्रकरण में फौजदारी अपील की सुनवाई करते समय न्‍यायमूर्ति गनेडीवाला ने निर्णय दिया कि भारतीय दंड विधान की धारा ३०६ के अनुसार आत्‍महत्‍या करने हेतु प्रेरित किया जाना सिद्ध नहीं होता । उसके अनुसार श्‍यामराव वैद्य और राहुल वैद्य की अपील अंशत: स्‍वीकार करते हुए भारतीय दंड विधान की धारा ३०७ का दंड निरस्‍त करते हुए कहा कि आरोपी ने जो दंड भुगता है, वह पर्याप्त है तथा आरोपी को छोड दिया ।

६. महिलाआें और बालिकाआें पर हुए अत्याचारों
के संदर्भ में गलत निर्णय समाज में गलत संदेश पहुंचाएंगे !

     न्‍यायमूर्ति गनेडीवाला ने १५ और १९ जनवरी, इन दो दिनों में ६ प्रकरण समाप्त किए । उसमें २ दीवानी और ४ फौजदारी प्रकरण थे । जिसमें कनिष्ठ न्यायालय ने आरोपी को यौन अपराध के लिए दोषी ठहराया था । उनका प्रत्येक निर्णय महिलाआें और लडकियों की सुरक्षा की दृष्टि से असंवेदनशील था । महिला आयोग द्वारा प्रविष्ट की गई अपील में नोटिस देकर सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त निर्णयपत्र स्थगित रखा है; परंतु वह ‘स्टे एट रेम’ नहीं है । यह स्थगन आदेश उस निर्णय तक सीमित है । ऐसे विस्मयजनक निर्णय महिलाआें और बालिकाआें पर होनेवाले अत्याचारों में वृद्धि करनेवाले और अपराधी वृत्ति के व्यक्तियों की मानसिकता को बढावा देनेवाले हैं । समाज में उनका गलत संदेश जाकर बुरा परिणाम होता है ।

७. कनिष्‍ठ न्‍यायाधीशों के समान उच्‍च न्‍यायमूर्तियों को भी
गलत निर्णय देने के प्रकरण में तंत्र लागू करने का विचार होना चाहिए !

     उच्‍च न्‍यायालय के मुख्‍य न्‍यायमूर्ति का न्‍यायमूर्ति गनेडीवाला से फौजदारी काम तुरंत लेना और उन्‍हें अलग प्रकार के दीवानी प्रकरण
सौंपना । मुंबई उच्‍च न्‍यायालय कनिष्‍ठ न्‍यायसंस्‍था के न्‍यायाधीशों के निर्णय की जांच करता है । उसी प्रकार उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों के लिए भी क्या ऐसा तंत्र लागू हो सकता है, यह विचारणीय है । मुंबई उच्च न्‍यायालय कनिष्ठ न्‍यायाधीशों द्वारा दिए गए गलत निर्णयों के संबंध में उपाययोजना करते समय ऐसे कनिष्ठ न्यायाधीशों का स्थानांतरण आदि उपाय करता है । ऐसा नियम उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों के लिए क्यों नहीं है ?

८. कनिष्‍ठ न्‍यायसंस्‍थाआें के समान ही उच्‍च न्‍यायालयों के
न्यायमूर्तियों के लिए कार्यशालाआें का आयोजन करने की आवश्यकता !

     हिन्‍दूहृदयसम्राट मा. बाळासाहेब ठाकरे के निधन के उपरांत पालघर की २ मुसलमान लडकियों ने सामाजिक माध्‍यमों में आलोचना की थी । इसलिए उनके विरुद्ध अपराध प्रविष्ट किया गया था । पुलिस ने पुलिस हिरासत मांगी थी; परंतु पालघर के न्यायाधीश ने उसे नकार दिया तथा उन्हें कुछ समय तक न्यायालयीन हिरासत में रखकर जमानत दे दी । इसके विरुद्ध ‘मानव अधिकारों का हनन हुआ है’, यह कहकर गला फाडनेवालों ने शोर मचाया । उन्होंने न्यायाधीश को घेरते हुए कहा कि ‘पुलिस हिरासत नकारने के उपरांत उन्हें तुरंत जमानत क्यों नहीं दी गई ?’, ऐसे समय में उच्च न्यायालय ने उन न्यायाधीश का ‘मिड टर्म’ स्थानांतरण किया, यह पता चला है । तब कनिष्ठ न्यायसंस्था के विरुद्ध कठोर कदम उठानेवाला उच्च न्यायालय उनके सहकारी न्यायमूर्तियों की गलतियों पर उन्हें क्यों बचाता है ?, ऐसा प्रश्न उपस्थित होता है ।

– (पू.) अधिवक्‍ता सुरेश कुलकर्णी, मुंबई उच्‍च न्‍यायालय एवं संस्‍थापक सदस्‍य, हिन्‍दू विधिज्ञ परिषद