कुंभ मेला विश्व का सबसे बडा धार्मिक पर्व है ! कुंभ मेला भारत की सांस्कृतिक महानता का केवल दर्शन ही नहीं; अपितु संतसंग प्रदान करनेवाला आध्यात्मिक सम्मेलन है । कुंभ पर्व के उपलक्ष्य में प्रयाग, हरद्वार (हरिद्वार), उज्जैन एवं त्र्यंबकेश्वर-नाशिक, इन चार क्षेत्रों में प्रति १२ वर्ष में संपन्न होनेवाले इस पर्व का हिन्दू जीवनदर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान है । गुरु को राशिचक्र भोगने में १२ वर्ष की कालावधि लगती है, जिससे प्रत्येक १२ वर्षों के उपरांत कुंभयोग आता है । इस वर्ष में उत्तराखंड के हरद्वार (हरिद्वार) मेें महाकुंभ पर्व होनेवाला है ।
कुंभ पर्व की महिमा हरिद्वार कुंभ पर्व २०२१ के निमित्त…
१. मानव देह का प्रतीक कुंभ !
‘कुंभ अर्थात मिट्टी का घडा (मटका)! मनुष्य के शरीर को ‘पार्थिव’ (पृथ्वीतत्त्व प्रधान) कहते हैं । कुंभ को, अर्थात घडे को मानव देह का प्रतीक माना गया है; क्योंकि शरीर मिट्टी से निर्मित है तथा मृत्यु के पश्चात मिट्टी में ही विलीन होता है ।
२. पाप, वासना एवं कामक्रोधादि विकारों से भरे देहरूपी कुंभ को रिक्त करने का काल है कुंभ मेला !
‘ईश्वर मुझसे बात करते हैं’, ‘मेरे साथ नाचते हैं’, जैसेे विचारों का संत नामदेव को अहंकार था । अतः संतों की सभा में संत मुक्ताबाई ने कहा, ‘‘नामदेव का मटका (कुंभ) अहंकार से ओतप्रोत है; अतः नामदेव अभी तक कच्चे ही हैं।’’ हम सभी के मटके भी कच्चे ही हैं; क्योंकि हमें अपने रूप, संपत्ति, कर्तृत्व आदि का या इनमें से किसी एक का अहंकार होता है । साथ ही हमारा मन कामक्रोधादि अनेक दोषों से ओतप्रोत होता है । अपने अनेक पापों, वासनाओं, कामक्रोधादि विकारों से ओतप्रोत देहरूपी कुंभ को रिक्त करने का सर्वोत्तम स्थल तथा काल है कुंभ मेला!
३. साधना का १,००० गुना फल देनेवाला कुंभ पर्व !
कुंभ मेले के समय (उस स्थल एवं काल में) किए दानादि सभी धार्मिक कृत्यों का तथा नामस्मरणादि साधना का फल अन्य स्थल-काल की तुलना में १,००० गुना अधिक मिलता है । हमारी आध्यात्मिक प्रगति शीघ्र गति से करवाने हेतु ईश्वर ने कुंभ मेले के रूप में एक स्वर्ण अवसर ही दिया है । क्योंकि कुंभ मेले में अनेक देवता, ब्रह्मज्ञानी एवं विविध योगमार्ग के साधु-संत एकत्र होते हैं तथा उनके सत्संग का लाभ अल्पावधि में और एक ही स्थान पर मिलता है ।
कुंभ मेले में जाकर मात्र स्नान करने से विशेष लाभ नहीं मिलेगा । अपनी वासनाओं तथा स्वभावदोषों से तथा अहंकार से ओतप्रोत मन बुद्धि एवं अहं को कुंभ तीर्थस्थल पर कुंभ मेले में रिक्त करने पर ही हमें देवी-देवताओं और साधु-संतों के आशीर्वाद प्राप्त होंगे तथा हमारा जीवन यथार्थ होगा !’
– डॉक्टर तथा वैद्याचार्य सद़्गुरु वसंत बाळाजी आठवले, मुंबई.
कुंभ पर्व : उत्पत्ति की कथा
अमृत कुंभ प्राप्ति हेतु देवों एवं दानवों ने एकत्र होकर क्षीरसागर का मंथन करने का निश्चय किया । समुद्रमंथन हेतु मेरु पर्वत को बिलौने के लिए सर्पराज वासुकी को रस्सी बनने की विनती की गई । वासुकी नाग ने रस्सी बनकर मेरु पर्वत को लपेटा । उसके मुख की ओर दानव एवं पूंछ की ओर देवता थे । इस प्रकार समुद्रमंथन किया गया । इस समय समुद्रमंथन से क्रमशः हलाहल विष, कामधेनु (गाय), उच्चैःश्रवा (श्वेत घोडा), ऐरावत (चार दांतवाला हाथी), कौस्तुभमणि, पारिजात कल्पवृक्ष, रंभा आदि देवांगना (अप्सरा), श्री लक्ष्मीदेवी (श्रीविष्णुपत्नी), सुरा (मद्य), सोम (चंद्र), हरिधनु (धनुष), शंख, धन्वंतरि (देवताओं के वैद्य) एवं अमृतकलश (कुंभ) आदि चौदह रत्न बाहर आए ।
धन्वंतरि देवता हाथ में अमृत कुंभ लेकर जिस क्षण समुद्र से बाहर आए, उसी क्षण देवताआें के मन में आया कि दानव अमृत पीकर अमर हो गए तो वे उत्पात मचाएंगे । इसलिए उन्होंने इंद्रपुत्र जयंत को संकेत दिया तथा वे उसी समय धन्वंतरि के हाथों से वह अमृत कुंभ लेकर स्वर्ग की दिशा में चले गए । इस अमृत कुंभ को प्राप्त करने के लिए देव-दानवों में १२ दिन एवं १२ रातों तक युद्ध हुआ । इस युद्ध में १२ बार अमृत कुंभ नीचे रखा गया । इस समय सूर्यदेव ने अमृतकलश की रक्षा की एवं चंद्र ने कलश का अमृत न उडे इस हेतु सावधानी रखी एवं गुरु ने राक्षसों का प्रतिकार कर कलश की रक्षा की । उस समय जिन १२ स्थानों पर अमृत कुंभ से बूंदें गिरीं, उन स्थानों पर उपरोक्त ग्रहों के विशिष्ट योग से कुंभपर्व मनाया जाता है । इन १२ स्थानों में से ८ स्थान अन्य लोकों में हैं तथा शेष चार स्थानों में भूलोक के प्रयाग (इलाहाबाद), हरद्वार (हरिद्वार), उज्जैन एवं त्र्यंबकेश्वर-नाशिक समाविष्ट हैं । इन स्थानों पर जिस ग्रहस्थिति और तिथि पर अमृतबिंदु गिरे, उस तिथि तथा ग्रहस्थिति पर वहां कुंभ पर्व मनाया जाता है । कुंभ पर्व में इस अमृत कुंभ का (कलश का) भी स्मरण किया जाता है ।
(संदर्भ : सनातनका ग्रंथ – कुंभपर्व की महिमा)