शिवजी का कार्य, उनकी विशेषताएं एवं शिवोपासना की विभिन्न पद्धतियां

महाशिवरात्रि निमित्त…फाल्गुन कृ.प.१३ (११ मार्च)

१.शिवजी के नाम,इन नामों का अर्थ एवं शिवजी का कार्य

१ अ.शिव : शिव अर्थात कल्याण करनेवाला,  शुभंकर । उन्हें पूरी सृष्टि का लयकर्ता भी माना जाता है । लय अर्थात अंत अथवा मृत्यु नष्ट करनेवाला; परन्तु लय शब्द का अर्थ जीवन को एक सुरीली लय में बांधनेवाला, ऐसा भी क्यों न समझें ? क्योंकि, भगवान शिवशंकर महादेव नृत्यकला के भी प्रणेता हैं। शिवजी नृत्य जानते हैं, निर्माण करते हैं, तो जीवन भी लयबद्ध एवं प्रवाहित करेंगे,  इसमें कोई संदेह न रखें ।

१ आ. जलाशमेषज : मेष अर्थात वैद्य, जो जलोपचार, शीतोपचार जानते हैं, वे मदनदाह से मदन को भी पुनर्जीवित कर सकेंगे, ऐसा भी प्रतीत होता है ।

२.शिवजी की विशेषताएं

अ.महादेव : देवों के देव, बडे देव !

आ.शंकर : ये सभी का कल्याण करनेवाले देवता हैं ।

इ.अनेक अंगों से, तथा विविध रूपों में प्रकट होनेवाले ये देवता अधिकांश कुलों के कुलदेवता भी हैं ।

ई.योगशास्त्र, धनुर्विद्या एवं ६४ कलाआें के प्रणेता, हम सभी के समान प्रापंचिक, लोकाभिमुख, शीघ्र कृपा करनेवाले, जितने दयालु,  उतने ही क्रोधी, सभी को साथ लेकर चलते हुए भी एकांतप्रिय, जिनके मंदिर अधिकाधिक संख्या में सर्वत्र पाए जाते हैं, ऐसे ये अत्यंत जागृत देवता हैं ।

उ.अनेक प्रकार की उपासना एवं भक्तिमार्ग का प्रारंंभ इन्हीं से, इनकी प्रेरणा, तथा ज्ञान से ही होता है ।

३.शिवोपासना की विभिन्न पद्धतियां

शिवजी की उपासना की विविधपद्धतियां हैं । शिवलिंग, शिवमूर्ति व ज्योतिर्लिंग का पूजन करना, यह शिवजी की उपासना की प्रमुख पद्धति है । पौराणिक कथाआें का श्रवण करना, भी शिवोपासना की एक पद्धति है ।

-ज्योतिषी ब.वि.तथा चिंतामणी देशपांडे (गुरुजी), वारजे,पुणे (श्रीधर संदेश, मार्च २०१४)

तीसरा नेत्र

१.शिवजी का बायां नेत्र अर्थात पहला नेत्र, दायां नेत्र अर्थात दूसरा नेत्र एवं भ्रूमध्य के जरा सा ऊपरी ओर सूक्ष्मरूप में विद्यमान ऊर्ध्व नेत्र अर्थात उनका तीसरा नेत्र है । ऊर्ध्व नेत्र यह बाएं एवं दाहिने, इन दोनों नेत्रों की संयुक्त शक्ति का प्रतीक है, तथा अतींद्रिय शक्ति का महापीठ है । इसे ही ज्योतिर्मठ, व्यासपीठ आदि नाम हैं ।

२.शिवजी का तीसरा नेत्र तेजतत्त्व का प्रतीक है । शिवजी के चित्र में भी तीसरे नेत्र का आकार ज्योतिसमान दिखाया जाता है ।

३.शिवजी ने तीसरे नेत्र से कामदहन किया है । (खरे ज्ञानवान पर हुए काम के प्रहार बोथरे होते हैं । इतना ही नहीं, खरा ज्ञानी अपनी ज्ञानाग्नि से कामनाआें को जला देता है । नष्ट करता है ।)

योगशास्त्र के अनुसार तीसरे नेत्र का अर्थ है सुषुम्ना नाडी ।

शंकर त्रिनेत्र हैं,  अर्थात भूतकाल, वर्तमानकाल एवं भविष्यकाल, इन त्रिकालों में होनेवाली घटनाएं देख सकते हैं ।