१. विकारों की अधिकतावाली शरद ऋतु
‘वर्षा ऋतु समाप्त होते ही सूर्य की प्रखर किरणें धरती पर पडने लगती हैं, तब शरद ऋतु प्रारंभ होती है । वर्षा ऋतु में शरीर निरंतर शीतल वातावरण से समायोजन करता है । शरद ऋतु आरंभ होने पर अचानक उष्णता बढने से प्राकृतिक रूप से पित्तदोष बढता है तथा आंखें आना, फोडे होना, बवासीर की पीडा बढना, ज्वर आना आदि विकारों की शृंखला ही निर्माण होती है । शरद ऋतु मेें सर्वाधिक विकार होने की संभावना होती है, इसलिए ‘वैद्यानां शारदी माता ।’ अर्थात ‘(रोगियों की संख्या बढानेवाली) शरद ऋतु वैद्यों की माता है’, ऐसा उपहास से कहा जाता है ।
२. ऋतु के अनुसार आहार
२ अ. शरद ऋतु में क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए ?
२ आ. आहार से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र
२ आ १. भूख लगने पर ही भोजन करें ! : वर्षा ऋतु में पाचनशक्ति मंद होती है । शरद ऋतु में वह धीरे-धीरे बढने लगती है । इसलिए भूख लगने पर ही भोजन करें । नियमित रूप से भूख न होने पर भोजन करने से पाचनशक्ति बिगडती है और पित्त के कष्ट होते हैं ।
२ आ २. प्रत्येक निवाला ३२ बार चबाकर खाएं ! : कुछ लोगों को लगता है कि ‘इस प्रकार चबा चबाकर भोजन करने से अधिक समय लगता है तथा समय व्यर्थ होता है; इस प्रकार थोडा भोजन करने से भी संतुष्टि होती है तथा अन्न का पाचन ठीक से होता है । प्रत्येक निवाला ३२ बार चबाने से उसमें लार अच्छे से मिल जाती है । ऐसा लार मिश्रित भोजन पेट में जाने से यह कभी नहीं कहना पडता कि ‘अमुक पदार्थ से मुझे पित्त होता है, ‘अमुक पदार्थ मुझे नहीं पचता’; क्योंकि लार अम्ल के विरोधी गुणवाली है । वह प्रचुर मात्रा में पेट में जाने पर अधिक मात्रा में बढे हुए पित्त का शमन होता है । स्वामी रामसुखदासजी महाराज ने उनके एक प्रवचन में बहुत सुंदर मार्गदर्शन किया है कि ‘प्रत्येक निवाला ३२ बार चबाया गया है’, यह कैसे पहचानें । प्रत्येक निवाला चबाते समय ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥’ इस नामजप के प्रत्येक शब्द २ बार बोलें । प्रत्येक शब्द पर एक बार इस गति से चबाएं । इस जप में १६ शब्द हैं । इसलिए एक निवाले में २ बार जप करने से ३२ बार भोजन चबाया जाता है और ईश्वर का स्मरण भी होता है ।
३. शरद ऋतु के अन्य आचार
३ अ. स्नान करने से पूर्व नियमित तेल लगाना : इस ऋतु में स्नान करने से पूर्व नियमित रूप से शरीर पर नारियल का तेल लगाने से त्वचा पर फुन्सियां नहीं उभरतीं । उष्णता अथवा गरमी के कारण अधिक पसीना आता है । इस विकार में संपूर्ण शरीर पर नारियल का तेल लगाना लाभदायक है ।
३ आ. सुगंधित फूल साथ में रखना : सुगंधित फूल पित्तशमन का कार्य करते हैं । इसलिए जिनके लिए संभव हो, वे पारिजात, चंपा, गुलबकावली, ऐसे फूल साथ में रखें ।
३ इ. कपडे : सूती, ढीले और हलके रंग के होने चाहिए ।
३ ई. नींद अथवा निद्रा : रात्रि में जागरण करने से पित्त बढता है, इसके लिए इस ऋतु में जागरण नहीं करना चाहिए । प्रातः शीघ्र सोकर उठें । इन दिनों घर के छज्जे (छत) पर अथवा आंगन में चांदनी में सोने से शांत नींद लगती है तथा सर्व थकान नष्ट हो जाती है । इस ऋतु में दिन में सोना निषेध है ।
४. शरद ऋतु के साधारण विकारों पर सरल आयुर्वेदीय उपचार
४ अ. शोधन अथवा पंचकर्म : विशिष्ट ऋतुआें में शरीर में बढनेवाले दोषों को शरीर से बाहर निकाल देने को ‘शोधन’ अथवा ‘पंचकर्म’ कहते हैं ।
४ अ १. विरेचन : इस ऋतु के प्रारंभ में विरेचन अर्थात जुलाब की औषधि लेनी चाहिए, जिससे शरीर निरोगी रहने में सहायता होती है । इसके लिए निरंतर ८ दिन रात को सोते समय १ चम्मच अरंडी का तेल अथवा उतनी ही मात्रा में ‘गंधर्व हरितकी चूर्ण’ (यह आयुर्वेदीय औषधियों की दुकान में मिलता है) गरम पानी के साथ लें ।
४ अ २. रक्तमोक्षण : शरीर के स्वास्थ्य के लिए शिरा से रक्त निकालने को आयुर्वेद में ‘रक्तमोक्षण’ कहते हैं । स्वास्थ्य की रक्षा के लिए प्रत्येक शरद ऋतु में एक बार रक्तमोक्षण करना चाहिए, ऐसा आयुर्वेद में बताया गया है । रक्तमोक्षण के कारण मुख पर फुन्सियां आना, नकसीर फूटना, आंखें आना, फोडे होना आदि विकार नहीं होते हैं । रक्तदान करना भी एक प्रकार का रक्तमोक्षण ही होता है । इसलिए जिनके लिए संभव है, उन्हें इस ऋतु के प्रारंभ के १५ दिनों में एक बार रक्त बैंक में रक्तदान करना चाहिए । रक्तदान विशेषज्ञ चिकित्सकों के मार्गदर्शन में ही होता है, इसलिए चिंता की बात नहीं होती ।
४ अ २ अ. रक्तदान संबंधी एक अलग विचार : एलोपैथी के अनुसार एक व्यक्ति का रक्त दूसरे व्यक्ति को देते समय रक्तदान करनेवाले और रक्त ग्रहण करनेवाले व्यक्ति का रक्त समूह मिलता है अथवा नहीं, यह देखा जाता है । यह भी देखा जाता है कि देनेवाले के रक्त में हानिकारक रोग के कीटाणु तो नहीं हैं; परंतु दोनों के रक्त में विद्यमान वात, पित्त और कफ की स्थिति ध्यान में नहीं ली जाती । वैसी स्थिति ध्यान में लेकर एक का रक्त दूसरे को देना, यह एक शोध का विषय साबित होगा; क्योंकि रक्त ग्रहण करनेवाले रोगी के शरीर में यदि पित्त बढा हुआ हो तथा उसे पुनः पित्त बढा हुआ रक्त ही दिया जाए तो रक्त ग्रहण करनेवाले रोगी का पित्त अधिक बढकर विकार बढने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता । यह विचार आज यद्यपि एलोपैथी में नहीं किया है, तथापि आयुर्वेद के अभ्यासक के रूप में मैंने यह विचार यहां प्रस्तुत किया है ।
४ आ. घरेलू औषधियां : इन दिनों उष्णता/गरमी के सर्व विकारों पर चंदन, खस, अडूसा, गुरुच, चिरायता, नीम, नारियल तेल, घी जैसी घरेलू औषधियां लाभदायक हैं । इनका उपयोग आगे दिए अनुसार कर सकते हैं –
१. चंदन घिसकर सवेरे-संध्या समय आधा चम्मच एक कटोरी पानी के साथ लें अथवा घिसा हुआ चंदन त्वचा पर बाहर से लगाएं । (४ से ७ दिन)
२. खस की जडें पानी में रखकर वह पानी पिएं ।
३. अडूसा, गुरुच अथवा किराइत (चिरैता) का काढा बनाकर १ – १ कप दिन में ३ बार पिएं । (४ से ७ दिन)
४. नीम की पत्तियों का एक कटोरी रस सवेरे खाली पेट पिएं । (४ से ७ दिन)
५. मिश्री पर नारियल तेल अथवा घी डालकर उसे चाटें ।
टिप्पणी : ४ से ७ दिन लेनेवाली औषधियां उससे अधिक दिन निरंतर नहीं लेनी चाहिए ।
५. यह दृढतापूर्वक करना टालें !
इस ऋतु में धूप में घूमना, पानी के तुषार शरीर पर लेना, ओस में, भीगना, पंखें की तीव्र हवा में निरंतर बैठना, क्रोधित होना, चिडचिड करना आदि बातें इस ऋतु में दृढतापूर्वक नहीं करनी चाहिए । इन बातों के कारण शरीर में वात आदि दोषों को संतुलन बिगडता है और विकार उत्पन्न होते हैं ।
‘इस शारदीय ऋतुचर्या का पालन कर साधक निरोगी बनें और सभी की आयुर्वेद पर श्रद्धा बढे, यह भगवान धन्वंतरि के चरणों में प्रार्थना है !’
– वैद्य मेघराज पराडकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.