सनातन के ७२ वें संत पू. नीलेश सिंगबाळजी के जन्मदिन
(भाद्रपद पूर्णिमा, २ सितंबर २०२०) के अवसर पर उनसे सीखने मिले कुछ सूत्र यहां दे रहे हैं ।
श्री. मधुसूदन कुलकर्णी को पू. नीलेश सिंगबाळजी की प्रतीत गुणविशेषताएं, सीखने मिले सूत्र
१. पू. नीलेशजी के सत्संग में बहुत कुछ सीखने को मिलने से,
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के दिए आशीर्वाद की संकल्पपूर्ति होने की अनुभूति होना
‘गुरुकृपा से मुझे सेवा के लिए वाराणसी जाने का संयोग बना । वहां के सेवाकेंद्र में मुझे सनातन के संत पू. नीलेश सिंगबाळजी का सत्संग प्राप्त हुआ । उनसे मुझे अनेक बातें सीखने को मिलीं । ‘संत का अर्थ प्रीति और प्रीति का अर्थ
संत !’, यह मुझे प्रतीत हुआ । पू. नीलेशजी ने अपने आचरण से ही सिखाया, ‘प्रीति कैसे की जाती है ?’
वाराणसी जाने से पहले गुरुदेवजी ने मुझे ‘वहां आपको बहुत कुछ सीखने को मिलेगा’, यह आशीर्वाद दिया था । वहां पू. नीलेशजी के सत्संग में रहने से मुझे इस आशीर्वाद की संकल्पपूर्ति होने की अनुभूति हुई ।
२. तत्त्वनिष्ठ
२ अ. संबंधित लोगों को स्वयं के तत्त्व स्पष्टता से बताना : वाराणसी की एक सेवा के संदर्भ में समाज का एक व्यक्ति बहुत अलग-अलग शर्तें रख रहा था और उसके अनुसार कृत्य करने के लिए कह रहा था; परंतु उस समय पू. नीलेशजी ने कठोरता के साथ उस व्यक्ति को ‘आपके मत के अनुसार होना असंभव है । हमने जो शर्तें रखी हैं वे सभी सूत्र उचित हैं । अब आप ही उन पर विचार करें’, ऐसा बोलने के लिए कहा और स्वयं भी उस व्यक्ति को ऐसा ही कहा । इस प्रसंग में मुझे पू. नीलेश सिंगबाळजी की तत्त्वनिष्ठा का अनुभव हुआ । उन्होंने सनातन संस्था द्वारा बताए गए सभी तत्त्वों का अचूकता से पालन किया था ।
२ आ. साधकों से हुई चूकों को अत्यंत शांति से, धीमे स्वर में; परंतु तत्त्वनिष्ठा से बताना और उसके कारण सामनेवाले साधक को क्षोभ न होकर कृतज्ञता प्रतीत होना : एक बार एक सेवा के संदर्भ में समाज के एक व्यक्ति के साथ बैठक निर्धारित की गई थी । उस बैठक में जाने से पहले पू. नीलेशजी ने हमें, ‘हम उस बैठक में क्या बोल सकते हैं’, इसके संबंध में सभी सूत्र बताए । वास्तव में अज्ञानवश बैठक में मुझे जो सूत्र नहीं बोलना चाहिए था, वह बोल गया । बैठक समाप्त होने के पश्चात जब हम सेवाकेंद्र वापस आ रहे थे, तब उन्होंने बहुत ही शांति के साथ मुझे मेरी चूक बताई । उन्होंने वह चूक मुझे इतने धीमे स्वर में बताई कि उसके कारण मेरा मन भर आया और भाव भी जागृत हुआ । ‘इतने धीमे स्वर में भी किसी की चूक बताई जा सकती है’, इसका मुझे भान हुआ । मुझे लगा कि उन्हें उस समय सहजता से ‘मेरा बोलना बहुत ऊंचे स्वर में होता है’, इसकी ओर भी मेरा ध्यान आकर्षित करना था ।’
३. अत्यंत शांत और स्थिर रहकर प्रतिकूल परिस्थिति स्वीकार करना
उनके सान्निध्य में होते समय उनके मन के विरुद्ध कोई प्रसंग घटित होने पर भी उनके द्वारा कभी प्रतिक्रियात्मक बात हुई हो, ऐसा कभी भी देखने में नहीं आया । एक सेवा के समय हमारे विरुद्ध अनेक प्रसंग घटित हुए थे । उस समय किसी को प्रतिक्रिया आ सकती थी; परंतु उन्हें कभी प्रतिक्रियाएं नहीं आती थीं । वे शांति के साथ परिस्थिति स्वीकार कर रहे थे।
४. साधक के शारीरिक कष्टों के समय निरंतर पूछताछ कर आधार देना
मैं जब वाराणसी गया, तब मुझे शारीरिक कष्ट होने लगा । उस समय वे निरंतर मेरी पूछताछ कर ‘मुझे किसी तरह का अभाव तो नहीं है न, इसकी ओर बहुत ध्यान देते थे । वे स्वयं साधकों की स्थिति में जाकर उनका विचार करनेवाले संत हैं । इसके कारण ही वाराणसी में रहना मेरे लिए सुलभ हुआ । उनकी कृपा से ही मैं वहां अच्छी सेवा कर सका । ‘यही वास्तविक गुरुकृपा है’, ऐसा मुझे लगा । उस समय किसी भी स्थिति में साधकों की सहायता करना और आवश्यकता पडने पर ‘मैं संत हूं’, इसे भूलकर दूसरों से पहले स्वयं कृत्य करनेवाले पू. नीलेश सिंगबाळजी मुझे देखने को मिले ।
५. दूसरों का विचार करना
एक बार हम सरकारी कार्यालय में उच्च पद पर विराजमान एक हितचिंतक से मिलने गए थे । उनके एक सहयोगी ने एक अनुचित कृत्य किया था । उस समय पू. नीलेशजी ने ‘अब उनके साथ बातें करना उचित नहीं होगा । हमें उनके साथ बात नहीं करनी चाहिए’, ऐसा कहा । उस समय उस अधिकारी के मन की स्थिति का विचार कर हम सेवाकेंद्र वापस आ गए । उस समय मेरे मन में विचार आया कि हम इतनी दूर से आए हैं, तो हमें उनसे अपने प्रश्न पूछने चाहिए थे और उस समय ‘मैं दूसरों का विचार नहीं करता’, यह बात मेरे ध्यान में आई । उनके इस आचरण से मुझे यह एक बडा दृष्टिकोण मिला ।
६. ‘नियोजनबद्ध और परिपूर्ण सेवा कैसे करनी चाहिए ?’, इसका पाठ पढाना
६ अ. लिखित रूप में सेवा का क्रम तैयार करना और ‘क्या वह उचित है ?’, इसके संदर्भ में उत्तरदायी साधकों से पूछना : एक सेवा करते समय पू. नीलेशजी ने सभी पहलुआें से विचार कर ‘कौन सी सेवाएं कब-कब करनी चाहिए ?’, इसका क्रम तैयार किया । उन्होंने उसे लिखकर आगे उत्तरदायी साधकों को भेजा और क्या वह उचित है, यह पूछा । सेवा पूरी होने के उपरांत भी उन्होंने इसी प्रकार सभी बातें उत्तरदायी साधकों को सूचित कीं । उन्होंने इस उदाहरण से ‘१०० प्रतिशत फलोत्पत्ति मिलने के लिए परिपूर्ण सेवा कैसे करनी चाहिए,’ यह सिखा दिया ।
६ आ. सहसाधक को सेवा का क्रम बताकर उसकी समझ में आने की आश्वस्तता करना : सेवा आरंभ करने से पहले वे मुझे ‘सेवा किस क्रम से करनी है’, यह ठीक से समझाते थे और ‘वह बात ठीक से मेरी समझ में आई है न ?’, इसकी भी आश्वस्तता कर लेते थे । प्रत्येक सूत्र क्रमबद्ध पद्धति से लिखने के कारण साधक को भी वह विषय तुरंत ज्ञात होता था और उसे उसके अनुरूप कृत्य करना संभव होता था । उनके परिपूर्ण नियोजन के कारण ही बैठक में क्रमबद्ध पद्धति से वह विषय रखना संभव हो पाया । यह केवल उन्हीं की कृपा है ।
६ इ. कोई भी निर्णय विचारपूर्वक लेकर शांति से उसका क्रियान्वयन करने से ‘सभी सेवाएं बिना किसी बाधा के समयमर्यादा में और परिपूर्ण होती हैं’, इसकी शिक्षा मिलना : कोई भी बात पूछने पर उस पर निर्णय लेने के लिए वे कुछ समय लेते थे । तब मुझे ऐसा लगता था कि वे निर्णय लेने के लिए इतना समय क्यों लेते हैं ? मेरा विषय समय रहते पूरा नहीं हुआ, तो क्या करना चाहिए ?, इसकी मुझे चिंता होती थी । मैं उनसे पूछता भी था; परंतु वे निरंतर वर्तमान में रहते थे । वे मुझे आवश्यकता के अनुसार सूचनाएं भी देते थे । ‘थोडा अधिक समय लगा, तब भी वे जल्दबाजी नहीं करते । उनकी सभी सेवाएं निर्धारित समय सीमा में और परिपूर्ण होती हैं, साथ ही उनमें किसी प्रकार की बाधाएं नहीं आती हैं’, यह बात मेरे ध्यान में आई ।
७. कृतज्ञता
इस लेख के कर्ता-धर्ता श्री गुरुदेवजी के पवित्र और कोमल चरणों में मैं यह लेख समर्पित करता हूं और उनके चरणों में शरणागत भाव से कोटि-कोटि कृतज्ञता व्यक्त करता हूं ।
– श्री. मधुसूदन कुलकर्णी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (३.१०.२०१९)