परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने ‘ईश्वरप्राप्ति हेतु कला’ के माध्यम से कला के सात्त्विक प्रस्तुतीकरण संबंधी मार्गदर्शन किया । परात्पर गुरु डॉक्टरजी के मार्गदर्शन में साधकों द्वारा बनाए गए चित्रों में २७ से २९.३ प्रतिशत देवता का तत्त्व आया है । कलियुग में देवता के चित्र में अधिकाधिक ३० प्रतिशत देवता का तत्त्व आ सकता है । इस प्रकार कला के माध्यम से साधना करते समय साधक को कैसा दृष्टिकोण रखना चाहिए, इस संबंध में परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने मार्गदर्शन किया है ।
उसके साथ ही अखिल मानवजाति के लिए उपयुक्त ‘धरोहर’ के रूप में साधकों द्वारा किया जा रहा ध्वनिचित्रीकरण अच्छा होने के लिए परात्पर गुरु डॉक्टरजी ध्वनिचित्रीकरण और ध्वनिचित्र-संकलन करनेवाले साधकों को उपयुक्त सुधार बताते हैं । उसी प्रकार वे दृश्य-श्रव्य सेवा से तैयार की हुई प्रकल्प रंगसंगति, चित्रों की संरचना, प्रकाश योजना, संगीत, नेपथ्य, संहिता, अक्षरों की रचना आदि घटकों के उचित होने और सात्त्विक प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से देखकर उससे संबंधित मार्गदर्शन भी करते हैं ।
‘हमें इतनी भक्ति करनी चाहिए, कि ईश्वर को ही लगे, साधकों के सामने साक्षात खडे रहकर अपना चित्र बनाने के लिए कहें !’
– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले
१. साधकों द्वारा बनाए मंदिरों की रचना और रंगों से उस देवता के स्पंदन प्रक्षेपित होने चाहिए !
‘वर्तमान में सर्वत्र के सभी देवताओं के मंदिरों का निर्माणकार्य एक ही प्रकार का दिखाई देता है । मंदिर की रचना, कलश की कलाकृति आदि में कुछ मात्रा में ही अंतर होता है, लगभग सभी एक समान होती हैं । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने कला की सेवा आरंभ करते समय ही हमें बताया था, ‘‘आगे हमें देवताओं के मंदिरों के आकार भी उस देवता के तत्त्वानुसार बनाने हैं; जिससे भक्त दूर से ही स्पंदनों के आधार पर यह पहचान पाएं कि ‘वह किस देवता का मंदिर है ।’ प्रभु श्रीराम का मंदिर हो, तो श्रीरामतत्त्व आकर्षित करनेवाले आकार उस मंदिर पर होने चाहिए । मंदिर के रंग, रचना से ही यह ध्यान में आना चाहिए कि ‘वह मंदिर प्रभु श्रीराम का है ।’ श्रीरामतत्त्व आकर्षित और प्रक्षेपित करने की क्षमता रखनेवाले इन सर्व घटकों के कारण वहां प्रभु श्रीराम की उपासना करनेवाले श्रद्धालु को अधिकाधिक लाभ होगा ।’’
२. कचरापेटी का आकार भी ऐसा होना चाहिए कि उसमें कूडा डालने के
पश्चात उसमें विद्यमान रज-तम गुणों का रूपांतरण सत्त्वगुण में हो जाए !
सभी बातें सात्त्विक बनाने की परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की लगन एक और उदाहरण से ध्यान में आती है । उन्होंने हमें प्रारंभ में ही बताया था, ‘‘कचरापेटी का आकार भी ऐसा हो कि उसमें कचरा डालने के पश्चात उसमें स्थित रज-तम गुणों का रूपांतरण सत्त्वगुण में हो जाए ।’’ वास्तव में कचरापेटी कहने पर आंखों के सामने कूडा ही आता है । ‘कचरापेटी भी सात्त्विक हो सकती है’, हम जैसे सामान्य लोगों ने कभी इसका विचार ही नहीं किया था । सभी घटक सात्त्विक और अच्छे ही होने चाहिए, कुछ भी बुरा न रहे,परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की लगन से ही हमें यह सीखने को मिला ।
३. कला में विद्यमान ईश्वर को अनुभव करना सिखानेवाले
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के प्रति व्यक्त हुई कृतज्ञता !
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने हमें कला में विद्यमान ईश्वर को देखना सिखाया । ‘१४ विद्या और ६४ कलाओं द्वारा ईश्वरप्राप्ति हो सकती है’, धर्मग्रंथ में यह लिखा है; परंतु परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने हमें चित्रकला में विद्यमान ईश्वर को अनुभव करना सिखाया । इन सेवाओं के माध्यम से चराचर सृष्टि के प्रत्येक स्थूल और सूक्ष्म घटक में सत्त्वगुण बढे तथा कुछ भी असात्त्विक, अयोग्य और अनिष्ट न रहे, परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की इस विश्वकल्याणकारी लगन का हमें प्रत्यक्ष अनुभव हुआ । कलायोग के माध्यम से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी हम पर यह जो कृपा की वर्षा कर रहे हैं, उसके लिए उनके कोमल चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता !’
– श्रीमती जान्हवी रमेश शिंदे, कमर्शियल आर्टिस्ट, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (४.२.२०१७)