कुछ लोगोंका प्रश्न होता है कि वे पूजा, जप आदि अनेक वर्षाेंसे कर रहे हैं, तो भी उनके अष्टसात्विक भावोंमेंसे कोई भी भाव क्यों जागृत नहीं होते ?
अष्टसात्विक भाव – स्वेद: स्तंभोऽथ रोमाञ्च:
स्वरभङ्गोऽथ वेपथु: ।
वैवर्णमश्रुप्रलय इत्यष्टौ सात्विका
मता: ।। भरत: ।।
अर्थ – स्वेद (पसीना), स्तंभ (जडत्व), रोमांच, स्वरभंग, कंप, वैवर्ण्य (मुखका रंग फीका पडना), अश्रु और मूर्च्छा, ये अष्टसात्विक भाव माने गये हैं ।
अब अष्टसात्विक भाव क्यों जागृत नहीं होते, यह देखते हैं ।
भक्त ईश्वरप्राप्ति तो चाहते हैं, किंतु संसार-व्यवहारके सुखोंको छोडने वे सिद्ध नहीं होते । यह भी चाहिये और वह भी चाहिये, ऐसा नहीं चल सकता । क्यों नहीं चल सकता ? क्यों कि संसार-व्यवहार का सुख चाहिये, तबतक मन पूर्णत: ईश्वरमें नहीं लग सकता ।
केवल ईश्वरप्राप्तिका ही ध्यास न हो, संसारके सुखकी भी इच्छा हो, तो मन सात्विक हुवा ही कहां ? तब अष्टसात्विक भाव कैसे जागृत होंगे ? भक्तिकी उत्कटता अधुरी होनेसे ऐसा होता है । ईश्वरके विना भक्त व्याकुल हुवा, तडपने लगा, अन्य कुछ नहीं सुझता हो तो अष्टसात्विक भावके लक्षण प्रकट हो सकते हैं । कुछ प्रगत भक्तोंकी केवल भगवान्के स्मरणसे भी भावजागृति होती है ।
इस विषयपर और भी कुछ बाते ध्यानमें लेने योग्य हैं । –
१. साधनाके अनेक मार्गाेंमेंसे केवल भक्तिमार्गकी साधना करनेवालोंके अष्टसात्विक भाव जागृत हो सकते हैं, क्यों कि केवल भक्तिमार्गमें ही मनके भावोंका महत्त्व है । अन्य साधनाएं मनके भावोंपर आधारित नहीं हैं ।
२. भक्तिके साथ आत्मज्ञान रहनेवालोंकी भी भावजागृति सहसा नहीं होती ।
३. जबतक ईश्वरके प्रति भाव है, ईश्वरको स्वयंसे अलग मानता है, तबतक भक्त सदा द्वैतमें रहेगा, ईश्वरसे एकरूप नहीं होगा ।
४. अष्टसात्विक भाव जागृत न होना, जागृत होना और भाव शांत होना, इन तीन अवस्थाओंमेंसे भाव जागृत होना, यह बीचकी अवस्था है; यह साधक अवस्था है, सिद्धावस्था नहीं । साधना परिपक्व होनेपर अश्रु, रोमांच, स्वरभंग आदि विकारोंसे रहित होकर भक्त शांत हो जाता है ।
– अनंत आठवले. ६.४.२०२३
।। श्रीकृष्णापर्णमस्तु ।।
पू. अनंत आठवलेजी के लेखन का चैतन्य न्यून न हो इसलिए ली गई सावधानीलेखक पू. अनंत आठवलेजी के लेखन की पद्धति, भाषा एवं व्याकरण का चैतन्य न्यून (कम) न हो; इसलिए उनका लेख बिना किसी परिवर्तन के प्रकाशित किया है । – संकलनकर्ता |