।। श्रीकृष्णाय नम: ।।
‘आत्मज्ञानसे संचित कर्मफल नष्ट होते हैं ।’, इस पूर्वमें लिखे लेखमें गीता और उपनिषदोंने बताये, कर्मफल नष्ट करनेके उपाय स्पष्ट किये हैं । वे श्रुतिग्रंथोंपर आधारित हैं । उनके अतिरिक्त कुछ स्मृतिग्रंथोंमें पापकर्माेंके फल नष्ट करनेके लिये प्रायश्चित्त बताये गये हैं । उस ‘प्रायश्चित्त’ विषयपर आगे थोडा विवेचन किया है ।
१. पापोंके परिणामस्वरूप आगे चलकर बहुत पीडाएं भोगनी पडती हैं । अलग अलग पापोंके ऐसे फल नष्ट करनेके लिये अलग अलग प्रायश्चित्त बताये गये हैं । ये प्रायश्चित्त बहुत ही कठोर हैं ।
२. किये गये पापके कारण आगे चलकर जो पीडा भोगनी पडेगी, उसे संकल्प कर कठोर प्रायश्चित्त लेकर भोगी जाती है; इससे उस पापकर्मका फल समाप्त हो जाता है ।
३. प्रत्येक पापपर अलग प्रायश्चित्त बताया जानेसे जिस पापपर प्रायश्चित्त लिया, केवल उसी पापका फल समाप्त होगा । और कुछ पाप किये हो तो उनके तथा पहलेके जन्मोंके भोगना शेष रहे पापोंके फल नष्ट नही होंगे, उन्हें भोगना शेष रहेगा । पहलेके जन्मोंके फल भोगना शेष रहे पापोंपर प्रायश्चित्त ले भी नहीं सकेंगे क्यों कि वह संचित किन पापोंका है, यह जाननेका मार्ग नहीं है । (‘आत्मज्ञानसे संचित कर्मफल नष्ट होते हैं’ इस पहले लिखे लेखमें बताये मार्गसे पूर्वके सभी जन्मोंके और इस जन्मके सारे पुण्य-पापरूप फल एकसाथ ही नष्ट होते हैं ।)
४. प्रायश्चित्त अपने मनसे निश्चित न कर मनुस्मृति और अन्य शास्त्रोंमें बताये प्रायश्चित्त ही लेना उचित रहेगा ।
५. महत्त्वकी बात यह है कि लिये गये प्रायश्चित्तसे उस एक पापका भोगनेका फल समाप्त होगा; किंतु मनकी प्रवृत्ति नहीं सुधरती, पाप करनेकी प्रवृत्ति नष्ट नहीं होती । पापकर्म करनेका विचार ही मनमें न आये, इसके लिये निर्धार कर अलग प्रयास करने होते हैं । भक्तियोग, ज्ञानयोग, निष्काम कर्मयोग आदि अनेक योगोंमेंसे एक अथवा अधिक योग करनेसे प्रवृत्तिमें परिवर्तन होता है, सुधार होता है और मनकी निवृत्ति होती है, जो मोक्षप्रद है ।
टिपण्णी – सनातन संस्थाके मार्गदर्शनके अनुसार साधना करनेवाले साधकोंके लिये – पाप और चूकमें अंतर है । सनातन संस्था साधकोंको चूकोंपर प्रायश्चित्त लेने कहती है, वह अलग विषय है । उसका इस लेखसे संबंध नहीं है ।
– अनंत आठवले (२५.९.२०२२)
।। श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।।