ग्रंथ पढकर अथवा गुरुओंसे सीखकर धार्मिक कृतियोंका ज्ञान हुवा तो भी उनका कार्य शेष रहता है । जपका मंत्र, संख्या आदि जाना तो भी आगे प्रत्यक्ष जप करना और उसका फल पाना शेष रहता है तथा जप पुन: पुन: प्रतिदिन करना होता है । भजन, अभंग (एक मराठी भक्तिगीत प्रकार) आदि पढकर अथवा सुनकर जान लिया तो भी भजन करना, अभंग गाना शेष होता है । यज्ञोंका साहित्य, मंत्र, विधि आदिका ज्ञान ग्रंथोंसे अथवा गुरुसे हुवा तो भी प्रत्यक्ष यज्ञ करना और उसका फल पाना शेष रहता है ।
आत्मज्ञानका (तत्त्वज्ञानका, ब्रह्मज्ञानका) उद्देश्य आत्मानात्मविवेक कराना और आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, ब्रह्म के स्वरूपविषयक अज्ञान दूर करना, यह होता है । एक बार आत्मा-अनात्माका, नित्य-अनित्यका बोध हुवा तो नित्य आत्मा अनित्यमें नहीं फंसता । ज्ञानीको कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता । ज्ञानका कार्य पूरा हो जाता है । गीता, उपनिषद् आदि ग्रंथोंमें बताये आत्मज्ञानका एक बार बोध हुवा तो अज्ञान नष्ट होकर ज्ञानका कार्य पूरा हो जाता है । अज्ञान न रहना, यही आत्मज्ञानका फल है । आगे पुन: पुन: कुछ नहीं करना होता है ।
– अनंत आठवले. २२.०९.२०२२
।। श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।।