साधको, अनमोल मनुष्य देह के रहते ही साधना एवं गुरुसेवा करना संभव होने से प्राप्त परिस्थिति में ही समर्पित होकर साधना करो !

श्री. सुमित भागवत सरोदे

१. मन में संघर्ष होते समय आए स्वप्न में, स्वयं की देह मृतावस्था में दिखाई देना, उस देह में प्रवेश करना संभव न होना तथा उस स्थिति में सेवा एवं नामजप करने का प्रयास करने पर वह करना भी संभव न हो पाना

‘२१.८.२०२० को मैं ध्यान मंदिर में आध्यात्मिक उपचारों के लिए बैठा था, उस समय मेरे मन में बहुत संघर्ष चल रहा था । मेरे मन में बहुत नकारात्मक विचार आ रहे थे । उस स्थिति में मुझे नींद आकर एक स्वप्न आया । उस स्वप्न में मुझे मेरी देह मृतावस्था में दिखाई दी तथा आत्मा के रूप में देह से मैं बाहर आता हुआ मुझे दिखाई दिया । मेरी आत्मा उस देह में प्रवेश करने का प्रयास कर रही थी; परंतु वह प्रवेश नहीं कर पा रहा थी । उसके उपरांत मैंने वह प्रयास छोड दिया और मुझे दिखाई दिया कि ‘मैं सेवा करने का प्रयास कर रहा हूं ।’ सेवा करते समय मेरे मन में आश्रम परिसर के वृक्षों को पानी देने का विचार आया; परंतु मुझे बाल्टी उठा ही नहीं पा रहा था । मैं पानी का नल भी चालू नहीं कर पा रहा था, तो मैंने यह सब छोड दिया । तब मेरे मन में बैठकर नामजप करने का विचार आया; परंतु नामजप करते समय मुझे शब्द सुनाई नहीं दे रहे थे । मुझे मेरी बातें ही सुनाई नहीं दे रही थीं । इतना होने पर मैं जाग गया ।

२. ‘देह छोडकर जाते समय पृथ्वी पर स्थित सभी वस्तुएं हमें छोडकर जाना पडता है तथा ‘इस अनमोल मनुष्य देह के होने तक ही हम साधना एवं गुरुसेवा कर सकते हैं’, इस अनुभूति से यह सीखने के लिए मिलना

इस अनुभूति से मुझे बहुत कुछ सीखने के लिए मिला । ‘बाह्य विश्व देह को देखता रहता है । मृत्यु की कल्पना भी बाहर के मायावी विश्व में कष्टदायक होती है । हम देह से परे भी हैं । भले ही देह न हो; परंतु हम आत्मा के रूप में बने रहनेवाले हैं’, यह इससे अनुभव करने को मिला । उस समय मुझे मनुष्य जीवन तथा ईश्वरीय कृपा से प्राप्त इस मनुष्यदेह का मूल्य समझ में आया । देह छोडकर जाते समय यहां की सभी वस्तुएं हमें छोडकर जाना पडता है । हम अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकते । हम केवल एक ही बात साथ में ले जा सकते हैं तथा वह है साधना ! हमारी साधना ही हमारी वास्तविक संपत्ति है । ‘हमारी देह अमूल्य है । जब तक देह है, तब तक ही हम साधना एवं गुरुसेवा कर सकते हैं । देह नहीं होगी, तो हमें गुरुसेवा करने का भी सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा’, इससे मुझे यह सीखने के लिए मिला ।

३. कृतज्ञता

‘मुझे आश्रम में रहने का अवसर मिल रहा है । गुरुदेवजी की सेवा करने का अवसर मिल रहा है’, इसके प्रति कृतज्ञता प्रतीत होकर मेरा भाव जागृत हुआ । ‘हमारे परात्पर गुरु डॉक्टरजी कितने महान हैं ! उन्होंने इस कलियुग के जीवों से साधना करवाने के लिए आश्रमों की स्थापना की । उसके कारण ही हम अखंड साधना कर पा रहे हैं’, इसके प्रति मुझसे कृतज्ञता व्यक्त हो रही थी । ‘हे गुरुदेवजी, इस आपातकाल में आपने हमें सेवा करने का अवसर दिया । आप हमें साधना में ले आए । ‘साधना कैसे करनी चाहिए ?’, यह सिखाया । आपने हमारे मन पर मनुष्य जीवन का लक्ष्य अंकित किया । आपने हमें धर्मसेवा, राष्ट्रसेवा तथा उसके साथ ही गुरुसेवा करने का अवसर प्रदान किया । हे गुरुदेवजी, ‘इसके लिए हम सभी आपके चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञ हैं ।’

४. प्रार्थना

‘हे गुरुदेवजी, इस देह में अंतिम सांस रहने तक हमें निरंतर गुरुसेवा करना संभव हो । आप ही हमसे भावपूर्ण गुरुसेवा तथा समर्पित भाव से साधना करवा लें । हम अनन्यभाव से आपकी शरण में आए हैं । हम सभी साधकों की देह रहने तक आप हमारी प्रगति करवा लीजिए । आप हमें हमारे सभी स्वभावदोषों एवं अहं का निर्मूलन करने के लिए शक्ति एवं बुद्धि प्रदान कीजिए । हम साधना एवं ईश्वरप्राप्ति में विद्यमान आनंद का अनुभव कर सकें; ऐसी योग्यता हममें उत्पन्न कीजिए ।’ यह आपके कोमल चरणों में भावपूर्ण प्रार्थना है ।’

– श्री. सुमित भागवत सरोदे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२७.९.२०२०)

इस अंक में प्रकाशित अनुभूतियां, ‘जहां भाव, वहां भगवान’ इस उक्ति अनुसार साधकों की व्यक्तिगत अनुभूतियां हैं । वैसी अनूभूतियां सभी को हों, यह आवश्यक नहीं है । – संपादक