मनुष्य को रात के समय अनिष्ट शक्तियों का कष्ट होने का अध्यात्मशास्त्र !

‘पृथ्वी के जिन भूभागों पर सूर्यप्रकाश आता है, उस समय तथा उसके उपरांत कुछ समय तक सूक्ष्म रूप में वातावरण में सूर्य का परिणाम बना रहता है; क्योंकि सूर्यप्रकाश में दैवी अस्तित्व होता है । उसके कारण सूक्ष्म की अनिष्ट शक्तियों को सूर्यप्रकाशवाले भूभागों पर कार्य करना कठिन होता है । संबंधित भूभागों पर रात को सूर्यप्रकाश का परिणाम समाप्त होता है । इसके परिणामस्वरूप रात में मनुष्य को अनिष्ट शक्ति का कष्ट अधिक मात्रा में भोगना पडता है । उसका विश्लेषण आगे दिया गया है ।

१. काल एवं सूर्यप्रकाश से वातावरण में प्रक्षेपित प्रधान गुण

टिप्पणी : रात में भूभाग पर सूर्यप्रकाश तथा उसका परिणाम समाप्त हो जाता है, उस समय वातावरण में तमोगुण कार्यरत होता है ।

२. व्यक्ति के मन पर काल एवं सूर्यप्रकाश का परिणाम

टिप्पणी : रात के समय तमोगुण बढने से मनुष्य के मन की भावनाओं एवं इच्छाओं का स्तर बढकर स्वयं पर उसका नियंत्रण क्षीण होता है ।

३. भूभागों पर आनेवाले सूर्यप्रकाश का संबंधित स्थानों पर स्थित अनिष्ट शक्ति पर परिणाम

अ. सूर्यप्रकाश में अनिष्ट शक्ति की सूक्ष्मदेहों को अग्नि में जलने के समान पीडा होती है; इसलिए अनिष्ट शक्तियां प्रकाश रहते समय वृक्षों की छाया में अथवा अंधेरे स्थानों पर आश्रय लेती हैं ।
आ. सूर्यप्रकाश के तेज से अनिष्ट शक्ति की शक्ति क्षीण होती है, उसके कारण कुछ अनिष्ट शक्तियां सूर्यप्रकाश रहते समय मनुष्य को कष्ट पहुंचाने की अपेक्षा अंधेरे में रहकर स्वयं की साधना बढाने की ओर ध्यान देती हैं ।
इ. सूर्यप्रकाश में अनंत दैवी शक्तियों का अस्तित्व होता है, उसके कारण पाताल की कुछ अनिष्ट शक्तियां प्रकाश के समय उनका कार्य करने के लिए पृथ्वी पर आने की अपेक्षा पाताल में रहकर ही पृथ्वी पर आक्रमण करने पर बल देती हैं ।
ई. व्यक्ति पर सूर्यप्रकाश में भूत अथवा पिशाच का प्रभाव होने का स्तर अल्प होता है । वे अंधेरे में अथवा छाया में मनुष्य को प्रभावित करते हैं ।
उ. दिन में ‘सूर्यप्रकाश का कष्ट न हो’, इसलिए अनिष्ट शक्तियां अंधेरे स्थानों अथवा सुरंग मार्ग का उपयोग करती हैं । उसके कारण सूर्यप्रकाश के साथ अनिष्ट शक्तियों का सीधा संबंध नहीं होता ।

४. अन्य देशों की तुलना में भारत में प्रचुर मात्रा में सूर्यप्रकाश होते हुए भी साधना न होने से इस सूर्यप्रकाश का मनुष्य को आध्यात्मिक लाभ न मिलना

सूर्यप्रकाश में ‘तेज तथा अनंत प्रकार की दैवी शक्तियों’ का वास होता है । वे दैवी शक्तियां मनुष्य को शरीर, मन, बुद्धि एवं अध्यात्म की दृष्टि से बल देती हैं । उसके कारण सूर्य को ‘बलोदेवता’ कहते हैं । ‘सूर्य का मनुष्य को सर्वांगीण लाभ मिले’, इसके लिए सनातन धर्म में सूर्य की उपासना को बहुत महत्त्व दिया है, उदा. सूर्य को नमस्कार करना, सूर्य को अर्घ्य देना तथा सूर्यदेवता का जाप करना इत्यादि । सूर्य की उपासना करने से उसमें समाहित अनंत दैवी शक्तियां मनुष्य को उसके जीवन में विभिन्न प्रकार से सहायता करती हैं । अन्य देशों की तुलना में भारत में प्रचुर मात्रा में सूर्यप्रकाश है; परंतु यहां के अधिकांश जीव उपासना नहीं करते, उसके कारण उन्हें सूर्य के अस्तित्व का लाभ नहीं मिल पाता, साथ ही भारत के जीवों को आध्यात्मिक कष्ट भी बहुत हैं ।

५. सूर्य की कुछ दैवी शक्तियों की विशेषताएं

सूर्य में अनंत दैवी शक्तियां हैं । उनमें से कुछ दैवी शक्तियों के नाम तथा उनके विश्लेषण आगे दिए हैं –

५ अ. ‘सूर्यपद्मिनी’ : पद्मिनी शब्द ‘पुष्प’ के अर्थ से है । सूर्य की एक दैवी शक्ति का आकार फूल की भांति है । उसका कार्य ‘मनुष्य को जीवन जीने की प्रेरणाा तथा उत्साह देना’ है । इस दैवी शक्ति की उत्पत्ति सूर्य से हुई है । उसके कारण उसे ‘सूर्यपद्मिनी’ कहते हैं ।

५ आ. ‘सूर्यदामिनी’: इसमें दामिनी शब्द ‘विजयश्री’ के अर्थ से है । सूर्य की एक दैवी शक्ति मनुष्य को विजय प्राप्त करवाती है, उसे ‘सूर्यदामिनी’ कहते हैं ।

५ इ. ‘सूर्यनभा’ : इसमें नभा शब्द का अर्थ होता है ‘व्यापक’ । सूर्य की एक दैवी शक्ति व्यापक स्वरूप में कार्य करती है, उसे ‘सूर्यनभा’ कहते हैं ।

५ ई. ‘सूर्यप्रभा’ : इसमें प्रभा शब्द का अर्थ है ‘विस्तार करनेवाला’ । सूर्य की एक दैवी शक्ति अपने कार्य का विस्तार करती है, जिसे ‘सूर्यप्रभा’ कहते हैं ।

५ उ. ‘सूर्यकांति’ : सूर्य में विद्यमान दैवी शक्ति का शरीर सूर्य की भांति तेजयुक्त अथवा प्रकाशमान है, जिसे ‘सूर्यकांति’ कहते हैं । यह दैवी शक्ति ‘प्राणियों तथा पक्षियों की त्वचा का पोषण करती है ।

५ ऊ. ‘सूर्यकला’ : इसमें ‘कला’ शब्द ‘रचना’ से संबंधित है । सूर्य की रचनाएं अर्थात सूर्य की किरणों की गति, उसके स्वरूप तथा उसमें समाहित रंगों से संबंधित है । सूर्य के कार्य को विशिष्ट स्वरूप प्राप्त करानेवाली दैवी शक्ति को ‘सूर्यकला’ कहते हैं ।

६. सूर्यप्रकाश के कारण अनिष्ट शक्तियों के अखंड चल रहे कार्य में बाधा उत्पन्न होना

अनिष्ट शक्तियों को कार्य करने के लिए दिन अथवा रात का बंधन नहीं होता । वे अखंड कार्यरत रहती हैं । वे मनुष्य को सदैव कष्ट पहुंचाती हैं; परंतु जब तक वातावरण में सूर्यप्रकाश तथा उसका परिणाम बना रहता है, तब तक मनुष्य को होनेवाला अनिष्ट शक्तियों का आध्यात्मिक कष्ट कुछ स्तर पर क्षीण होता है ।

७. सायंकाल से अनिष्ट शक्तियों का कार्य प्रभावीरूप से जारी रहना

भूभाग पर स्थित सूर्यप्रकाश का प्रभाव सायंकाल के उपरांत क्षीण होता जाता है, वैसे व्यक्ति पर स्थित उसका प्रभाव भी क्षीण होता जाता है । उसके कारण उस समय व्यक्ति का मन अधिकाधिक चंचल होने लगता है । उसके मन में इच्छाओं एवं वासनाओं का कार्य बढने लगता है, अनिष्ट शक्तियां जिसका लाभ उठाती हैं । ऐसे व्यक्ति पर अनिष्ट शक्तियां सूक्ष्म से सहजता से आक्रमण कर उस व्यक्ति को अपने नियंत्रण में लेती हैं ।

८. देवता, सूक्ष्म रूप में स्थित ऋषियों तथा महात्माओं के कार्य

देवता, सूक्ष्म रूप के ऋषि तथा महात्माओं का सूक्ष्म रूप में अखंड वास रहता है । वे मनुष्य की सहायता करने के लिए दिन-रात तत्पर रहते हैं; परंतु मनुष्य की उपासना न होने से उन्हें उसका आध्यात्मिक लाभ नहीं मिलता । इसके फलस्वरूप व्यक्ति को अनिष्ट शक्ति का तीव्र कष्ट भोगना पडता है ।

९. साधक को सदैव भगवान की सहायता मिलते रहने से उसके लिए सूर्यप्रकाश, स्थान तथा काल का बंधन लागू न होना

सूर्यप्रकाश के कारण कुछ स्तर पर अनिष्ट शक्तियों से मनुष्य की रक्षा होती है । ऐसे मनुष्य के कष्ट की तीव्रता दिन-रात के प्रकृतिचक्र, स्थल एवं काल पर निर्भर होती है । इसके विपरीत साधक निरंतर भगवान के सान्निध्य में होता है, उसके कारण उसे भगवान से निरंतर सहायता एवं कृपा प्राप्त होती रहती है । ऐसा साधक सूर्यप्रकाश हो अथवा न हो, चाहे वह किसी भी देश में हो अथवा कोई भी समय हो; भगवान स्वयं उसकी रक्षा करते हैं ।’

– श्री. राम होनप (सूक्ष्म से प्राप्त ज्ञान), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२५.६.२०२२)

आध्यात्मिक कष्ट

इसका अर्थ व्यक्ति में नकारात्मक स्पन्दन होना । व्यक्ति में नकारात्मक स्पन्दन ५० प्रतिशत अथवा उससे अधिक मात्रा में होना । मध्यम आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पन्दन ३० से ४९ प्रतिशत होना; और मन्द आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पन्दन ३० प्रतिशत से अल्प होना । आध्यात्मिक कष्ट प्रारब्ध, पितृदोष इत्यादि आध्यात्मिक स्तर के कारणों से होता है । किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक कष्ट को सन्त अथवा सूक्ष्म स्पन्दन समझनेवाले साधक पहचान सकते हैं ।