उचित समय पर हल्दी का रोपण, सुधारित प्रजातियों का उपयोग, जैविक उर्वरकों का प्रचुर मात्रा में उपयोग, उचित समय पर जल प्रबंधन और फसल की सुरक्षा इत्यादि बातों का नियोजन किया जाए, तो निश्चित रूप से किसानों को हल्दी की अच्छी फसल मिलेगी ।
१. जलवायु
हल्दी उष्ण कटिबंधीय जलवायु में उत्पन्न होनेवाली महत्त्वपूर्ण मसाले की फसल है । हल्दी सूखा हुआ कंद, साथ ही मृदकाष्ठीय पेड है । हल्दी का उद्गमस्थान उत्तरपूर्वी एशिया है । हल्दी का उपयोग मसालों, औषधियों और सौंदर्यप्रसाधनों में होता है । भारत में हल्दी उत्पादन क्षेत्र १ लाख ७२ सहस्र हेक्टेयर ( एक हेक्टेयर का अर्थ ढाई एकड) और उत्पादन ८ लाख ५१ सहस्र ७०० टन है । भारत में आंध्र प्रदेश हल्दी के उत्पादन में अग्रणी है । महाराष्ट्र, तमिलनाडु, ओडिशा, केरल, कर्नाटक और बिहार इन राज्यों में भी हल्दी की फसल उगाई जाती है । वर्षावाले सभी प्रदेशों में यह फसल उगाई जाती है ।
२. भूमि
उत्तम निकासीवाली, मध्यम काली, नदी तट की मिट्टीवाली भूमि हल्दी के लिए अतिउत्तम होती है । इस फसल के लिए चूने से युक्त और क्षारयुक्त भूमि टालनी चाहिए ।
३. तैयारी
हल्दी भूमि में बढनेवाला तना है; उसके कारण मिट्टी जितनी भुरभुरी , उतनी ही हल्दी की फसल अच्छी होती है । उसके लिए भूमि में खडे-आडे, २ से ३ बार तथा १८ से २२ सें.मी. गहराईतक हल चलाएं । पहला हल मार्च में चलाएं । भूमि को १५ से २० दिन तक धूप में सूखने दें । उसके उपरांत दूसरी बार हल चलाकर और मिट्टी की गांठें हटाकर २५ से ४० टन अच्छा सडा हुआ गोबरखाद अथवा कंपोस्ट खाद मिट्टी में अच्छे से मिलाएं । (गोमय उपलब्ध हो, तो उसका भी उपयोग किया जा सकता है ।) एक-दो गुडाई कर अन्य फसल के अवशेष और कचरा चुनकर भूमि को स्वच्छ करें । कहीं-कहीं बकरियां भी चराई जाती हैं ।
४. ऋतु एवं रोपण की पद्धतियां
४ अ. ऋतु : हल्दी का रोपण अक्षय तृतीया से लेकर अर्थात अप्रैल के अंतिम सप्ताह से लेकर मई माह के अंत तक करना आवश्यक है । अधिकतम विलंब से हल्दी का रोपण जून माह के पहले पखवाडे में करें । हल्दी के रोपण में विलंब हुआ, तो उसका उत्पादन पर प्रतिकूल परिणाम होतादिखाई देता है ।
४ आ. रोपण की पद्धति : हल्दी का रोपण दो पद्धतियों से किया जाता है ।
४ आ १. पंक्ति-क्यारी पद्धति : इस पद्धति से हल्दी का रोपण करने के लिए ७५ सें.मी. दूरी पर पंक्तिबद्ध क्यारियां बनाएं । क्यारी के दोनों दोरदो गड्ढों में ३० सें.मी. की दूरी रखकर रोपण करें ।
४ आ २. चौडी-क्यारी पद्धति (गादी वाफे पद्धति) : इस पद्धति से रोपण करना हो, तो १.५ मीटर की दूरी पर पंक्तियां तैयार करें । दो पंक्तियों के बीच ९० सें.मी. से १ मीटर का गादी वाफा तैयार होता है । इस गादी वाफे पर अथवा चौडी क्यारी पर दो पंक्तियों के बीच ३० सें.मी. की दूरी रखकर रोपण किया जाता है; परंतु इस पद्धति में भूमि का समतल होना आवश्यक है । उसके कारण क्यारियों को पानी सुचारू रूप से मिलता है और उत्पादन भी अच्छा होने में सहायता मिलती है ।
५. हल्दी के बीज का चयन और बीजप्रक्रिया
हल्दी का रोपण करने के लिए बीज (कंद) का चयन करने में सतर्कता आवश्यक है । हल्दी की गांठों अथवा अंगूठे से बडी गांठों का उपयोग करना अच्छा होता है । प्रत्येक जेठा (मुख्य अंकुर) गांठ पर ८ से १० आंख होते हैं । रोपण के लिए उपयोग किए जानेवाले बीज पुराने अथवा आंख युक्त ४० ग्राम वजन के और जडरहित होने चाहिए । सडी हुई गांठों का बीज के लिए उपयोग न करें । रोपण से पूर्व कीटक का और फफूंदजन्य जीवाणुओं का नाश करने की दृष्टि से बीजप्रक्रिया करना अत्यावश्यक होता है । उसके लिए ‘क्विनॉलफॉस’ २५ प्रतिशत प्रवाही २० मि.ली. + १० ग्राम ‘कार्बेन्डेजिम’ को १० लिटर पानी में मिलाकर तरल तैयार करें । इस तरल में बीज को न्यूनतम १५ से २० मिनट तक डूबोकर उसे छाया में सुखाएं और उसके पश्चात रोपण के लिए उसका उपयोग करें । प्रति हेक्टेयर लगभग २५ से ३० क्विंटल बीज लगते हैं ।
५ अ. हल्दी की सुधारित प्रजातियां : फुले स्वरूपा, सेलम, कृष्णा, टेकूरपेटा, राजापुरी, आमाहल्दी (औषधीय) और काली हल्दी (तांत्रिक विधि के लिए)
६. उर्वरक एवं जल-प्रबंधन
हल्दी की फसल के लिए जैविक उर्वरकों का प्रचुर मात्रा में उपयोग करें । तैयारी के समय भूमि के प्रकार के अनुसार मिट्टी में प्रति हेक्टेयर २५ ते ४० टन भलीभांति सडी हुई गोबर खाद अच्छे से मिलाएं । कोंकण तट के लिए प्रति हेक्टेयर १२० किलो नाइट्रोजन, ६० किलो सल्फर एवं ६० किलो पोटाश दें । तटीय क्षेत्र को छोडकर शेष क्षेत्रों के लिए २०० किलो नाइट्रोजन और सल्फर तथा १०० किलोपोटाश प्रति हेक्टेयर दें । इनमें से सल्फर और पोटाश की मात्रा रोपण से पूर्व और नाइट्रोजन खाद की मात्रा २ अथवा ३ सप्ताह में विभाजित कर रोपण के १.५, ३ और ४ माह पश्चात दें । हल्दी की क्यारी के पास गड्ढा बनाकर उसमें उर्वरक डालकर उसे मिट्टी से ढंक दें और उसके उपरांत पानी दें । साथ ही भरनी के समय २ टन नीम अथवा करंज की खली का उपयोग करें और जुलाई, अगस्त एवं सितंबर की अवधि में प्रति हेक्टेयर २० किलो थाइमेट, पेड के तने के पास डालें । वर्षा ऋतु में होनेवाली वर्षा और भूमि में स्थित नमी को ध्यान में रखकर आवश्यकता के अनुसार समय-समय पर ७-८ दिन के अंतराल में पानी दें । हल्दी बागबानी फसल है । हल्दी को समय पर पानी देना अत्यंत आवश्यक है । वर्षा ऋतु के उपरांत १० से १२ दिन के अंतराल में भूमि के प्रकार के अनुसार पानी दें ।
७. आंतरिक फसलें
हल्दी + सेम, हल्दी + मूली, हल्दी + पत्तेवाली सब्जियां (राजगिरा, लाल भाजी, मेथी), हल्दी + मिर्च इत्यादि
८. आंतरिक कृषिकर्म
आवश्यकता के अनुसार २ से ३ बार गुडाई कर खरपतवार हटाएं । ३ माह पश्चात क्यारी में स्थित मिट्टी खोदकर तने की बाजू में भर दें ।
९. फसल का संरक्षण
हल्दी की फसल को झुलसने और दाग के रोगों के नियंत्रण के लिए ‘कॉपरऑक्जिक्लोराइड’ २.५ ग्राम अथवा ‘बाविस्टिन’ २ ग्राम प्रति लिटर पानी के अनुपात में मिलाकर जहां रोग के लक्षण दिखाई दें, उस क्षेत्र में फुहारें और उसके १५ से २९० दिन उपरांत फुहारें ।
१०. कटाई
हल्दी की फसल ८.५ से ९ माह में तैयार होती है । गांठें पक जाने पर हल्दी के पत्ते पीले पडकर सूखने लगते हैं और भूमि पर गिरते हैं । कटाई से १५ दिन पूर्व फसल को पानी देना बंद करें । सूखे पत्तों को काट लें । भूमि में उचित नमी रहते ही हल्दी के कंद को कुदाली से खोदें । कटाई के समय कंदों को कोई हानि न पहुंचे, इसकी ओर ध्यान दें । हल्दी के तने और गांठों को अलग करें । बडे तने अगले वर्ष के रोपण के बीज के लिए छाया में ढेर लगाकर संग्रहित करें ।
११. हल्दी के ‘प्रो ट्रे’(पौधों का रोपण करने के लिए उपयोग किए जानेवाले प्लास्टिक के ट्रे) पौधशाला (नर्सरी) एवं उत्पादन तंत्र
इस पद्धति में एक आंख पद्धति से पौधे तैयार कर उनका रोपण किया जाता है, उससे बीज अल्प लगते हैं और उससे उत्पादखर्च भी अल्प होता है ।
११ अ. एक आंख पद्धति के लाभ
१. रोपण के लिए अल्प बीज लगते हैं ।
२. प्रति हेक्टेयर खर्च भी अल्प होता है ।
३. फसल अधिक मात्रा में टिकी रहती है ।
४. कंद शीघ्र (३ माह में) बनकर तैयार होते हैं ।
संकलनकर्ता : डॉ. निवृत्ती रामचंद्र चव्हाण (आध्यात्मिक स्तर ६४ प्रतिशत), एम.एससी. (एग्रिकल्चर), पीएच.डी., सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२०.७.२०२२)
हल्दी पर प्रक्रिया तंत्रज्ञान एवं हल्दी उत्पन्न की जानकारी हेतु विस्तृत लेख हिन्दी सनातन प्रभात जालस्थल पर पढें ! – Sanatanprabhat.org/hindi |