ग्रंथलेखन का अद्वितीय कार्य करनेवाले एकमात्र परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी !

परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी

एक बार परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी ने एक सत्संग में कहा था, ‘सामान्य साधक अध्यात्म के विषय में लोगों को बुद्धि के स्तर पर चाहे कितना भी समझाकर बताए, तब भी लोगों पर उसका परिणाम होने में समय लगता है; परंतु संतों ने उस विषय में एक वाक्य भी बोला, तब भी उनकी बातों में विद्यमान चैतन्य के कारण लोगों के अंतर्मन पर उसका संस्कार होकर उन पर तुरंत सकारात्मक परिणाम होता है ।’

(पू.) श्री. संदीप आळशीजी

सनातन के ग्रंथों के संदर्भ में भी यही तत्त्व लागू है; क्योंकि परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी जैसे अत्युच्च कोटि के संत सनातन के ग्रंथों का संकलन करते हैं; इसके कारण ये ग्रंथ तो साक्षात चैतन्य के स्रोत ही हैं । परात्पर गुरु डॉक्टरजी के इस चैतन्यमय ग्रंथकार्य के संदर्भ में विविध पहलुओं की जानकारी देनेवाली यह लेखमाला उनके ८०वें जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में प्रकाशित कर रहे हैं । इस दूसरे लेख में ‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी का ग्रंथों के प्रति का भाव’ और ‘ग्रंथसेवा के संदर्भ में परात्पर गुरु डॉक्टरजी के हुए गुणदर्शन’ इन पहलुओं के विषय में बताया गया है ।

संकलनकर्ता : (पू.) श्री. संदीप आळशीजी (सनातन के ग्रंथों के एक संकलनकर्ता), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

अध्यात्म के जिज्ञासुओं के लिए ज्ञान का एक अनोखा दालन उपलब्ध करवानेवाले सनातन के ग्रन्थों की अद्वितीय विशेषताएं !

१. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का ग्रंथों के प्रति भाव

अ. ‘लेखक’ नहीं, संकलनकर्ता’ ! : डॉ. आठवलेजी के गुरु प.पू. भक्तराज महाराजजी (प.पू. बाबा) ने अनेक भजन लिखे; परंतु केवल २-३ भजनों में, वह भी उनका नाम डालना आवश्यक था इसलिए डाला । सनातन की ग्रंथ-रचना का आरंभ होने से लेकर परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने प्रत्येक ग्रंथ पर स्वयं का नाम ‘लेखक’ के रूप में अंतर्भूत न कर ‘संकलनकर्ता’ के रूप में अंतर्भूत किया है । ‘ग्रंथ के विषय में सभी ज्ञान गुरु के द्वारा ही सुझाए जाने से ग्रंथों का कर्तापन और लेखकत्व अपनी ओर लिया नहीं जा सकता ।’, यह परात्पर गुरु डॉक्टरजी का भाव होने के कारण वे अपना नाम ‘संकलनकर्ता’ के रूप में अंतर्भूत करते हैं ।

आ. ग्रंथ के छपकर आने के उपरांत परात्पर गुरु डॉक्टरजी सर्वप्रथम उसे प.पू. बाबा के छायाचित्र के सामने रखने के लिए बोलते हैं । ‘प.पू. बाबा के आशीर्वाद के कारण ही ग्रंथ तैयार हुआ और वह उन्हीं के चरणों में अर्पण है’, यह उनका भाव होता है ।

इ. प.पू. बाबा जब जीवित थे, तब परात्पर गुरु डॉक्टरजी जब उनके दर्शन करने जाते थे, तब वे उन्हीं के करकमलों से ग्रंथों का लोकार्पण कराते । आज प.पू. बाबा नहीं हैं, तब भी परात्पर गुरु डॉक्टरजी सनातन के सभी ग्रंथों का लोकार्पण संभवतः संतों के करकमलों से ही हो’, ऐसा देखते हैं । ‘संतों के सात्त्विक स्पर्श से ग्रंथ में विद्यमान ज्ञान व चैतन्य पाठकों के अंतःकरण तक पहुंचकर उनका साधना के प्रति झुकाव बढता है’, ऐसा परात्पर गुरु डॉक्टरजी का इसके पीछे भाव है । अभी तक सनातन के एक भी ग्रंथ का रज-तमप्रधान राजनीतिज्ञों या अभिनेता-अभिनेत्रियों के हस्तों लोकार्पण नहीं हुआ है ।

ई. पहले शीव, मुंबई में परात्पर गुरु डॉक्टरजी का आवास था । यही मुंबई का सनातन संस्था का आरंभिक आश्रम था । वहां की २ सदनिकाओं में से एक में परात्पर गुरु डॉक्टरजी का चिकित्सालय था । उसके एक छोटेसे कक्ष में बैठकर परात्पर गुरु डॉक्टरजी ग्रंथों का लेखन करते थे ।

परात्पर गुरु डॉक्टरजी जब शीव आश्रम में रहते थे, तब ग्रंथ छपकर आने के उपरांत वे उसे अपने हाथों से ग्रंथों की अलमारी में ठीक से रखते थे । जब वे अध्यात्मप्रसार हेतु भ्रमण करते थे, तब वहां भी वे साधकों को ग्रंथ उपलब्ध होने हेतु स्वयं टेबल पर ग्रंथों की प्रदर्शनी लगाते थे ।

२. ग्रंथसेवा के संदर्भ में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के गुणों के दर्शन !

२ अ. मितव्ययिता

२ अ १. डॉट मैट्रिक्स प्रिंटर : शीव आश्रम में संगणकीय प्रतियां निकालने के लिए तब एक ही ‘डॉट मैट्रिक्स प्रिंटर’ था । उसकी स्याही की ‘रिबिन’ को बार-बार ‘रीफिल’ कर अनेक वर्षाें तक उसी ‘प्रिंटर’ का उपयोग किया गया । आगे जाकर उसी ‘रिबिन’ को बार-बार उपयोग किए जाने से संगणकीय प्रतियों पर अंकित होनेवाले अक्षर थोडे फीके पड जाते थे । तब पेन से उन अक्षरों को घना करना पडता था । पुनः-पुनः ‘रिबिन’ के लिए पैसे खर्च न हो; इसके लिए जितने दिन पुरानी ‘रिबिन’ पर ही काम चल सके, उतने दिन तक काम चलाना है’, यह इसके पीछे का परात्पर गुरु डॉक्टरजी का मितव्ययिता का दृष्टिकोण होता था ।

२ अ २. एक ओर से उपयोग किए कागद : परात्पर गुरु डॉक्टरजी ग्रंथों के सूत्र लिखने हेतु आज भी औषधियों के बक्सों की अंदर की कोरी बाजू, रसीदों की पिछली बाजू, कूडाकरकट के कागद जैसी वस्तुओं का उपयोग करते हैं । शीव आश्रम में होने के समय मुंबई के कुछ साधक परात्पर गुरु डॉक्टरजी को ग्रंथसेवा के लिए एक ओर से उपयोग किए कागद लाकर देते थे ।

२ अ ३. कट-पेस्ट : पहले ग्रंथों को छापने के लिए देने हेतु ग्रंथ के ‘बटर पेपर’ निकालने पडते थे । उसके उपरांत ‘बटर पेपर’ पडताल की सेवा होती थी । उस समय कुछ पृष्ठों पर कोई सुधार ध्यान में आए, तो उन सभी पृष्ठों का पुनः बटर पेपर निकालने में अधिक पैसे खर्च होते थे । उसे टालने हेतु परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने उन सभी पृष्ठों पर चूके हुए शब्द, पंक्तियों और परिच्छेदों की एक ‘बटर पेपर’ पर एकत्रित प्रति निकालकर उसके उपरांत मूल ‘बटर पेपर’ उतने ही सुधारों को ‘कट-पेस्ट’ करने की युक्ति निकाली । यह ‘कट-पेस्ट’ करने की सेवा बहुत जटिल होती थी और बहुत ही सावधानी से करनी पडती थी ।

परात्पर गुरु डॉक्टरजी जैसा महान व्यक्तित्व निस्वार्थ भाव से एक-एक पैसा बचाकर उसका धर्मकार्य के लिए धनसंचय करता है, तब वह कार्य उस महान व्यक्तित्व का न रहकर ईश्वर का ही हो जाता है और तब ईश्वर ही उस कार्य को चलाते हैं ! आज सनातन संस्था उसी का अनुभव कर रही है ।

२ आ. समाज को अल्प मूल्य में ग्रंथ देने की लगन : ग्रंथ-रचना के आरंभिक काल में एक मुद्रणालय से कुछ ग्रंथ छाप लिए । उन ग्रंथों का छपाईमूल्य बहुत अधिक होता था, उदा. ‘अध्यात्मका प्रस्तावनात्मक विवेचन’ ग्रंथ का छपाईमूल्य ३१ रुपए हुआ था । सामान्य पाठकों को यह मूल्य महंगा पडेगा; इसके लिए परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने उस समय साधकों को ऐसा मुद्रणालय खोजने के लिए कहा जो अल्प मूल्य में ग्रंथ छापकर दें । परात्पर गुरु डॉक्टरजी की इस लगन के कारण चिपळूण (जि. रत्नागिरी) के एक मुद्रक स्वयं ही शीव आश्रम आए और उन्होंने धर्मकार्य के लिए सहायता के रूप में अल्प मूल्य में ग्रंथ छापकर देने की तैयारी दिखाई । इसके कारण ३१ रुपए मूल्यवाला ‘अध्यात्मका प्रस्तावनात्मक विवेचन’ ग्रंथ केवल ७ रुपए में छापकर मिला ! इस प्रकार सनातन के ग्रंथ सस्ते हुए । आगे जाकर मुंबई के ‘सुप्रेसा ग्राफिक्स’ मुद्रणालय ने भी अल्प मूल्य में ग्रंथ छापकर दिए ।

लोकमान्य टिळक ने उनके द्वारा लिखित ‘गीतारहस्य’ ग्रंथ बहुत बडा होते हुए भी समाज उसे पढ सके, इसके लिए उसका मूल्य बहुत ही अल्प रखा था । लोकमान्य टिळक जैसी जनकल्याण की विलक्षण लगन परात्पर गुरु डॉक्टरजी में भी दिखाई देती है । ‘ईश्वरीय कार्य हो, तो उसे सुगम बनाने के लिए ईश्वर ही उस कार्य में आनेवाली बाधाएं कैसे दूर करते हैं’, यह भी उक्त उदाहरण से ध्यान में आता है ।

२ इ. गुरु का आज्ञापालन : प.पू. बाबा ने एक बार परात्पर गुरु डॉक्टरजी से कहा, ‘‘किसी बडे ग्रंथ की अपेक्षा अलग-अलग विषयों पर छोटे-छोटे ग्रंथ लिखो ।’’ तब से आज तक परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने इसी नीति के अनुसार प्रत्येक ग्रंथ बनाया है । कभी-कभी किसी ग्रंथ का विषय एकत्रित रूप से प्रकाशित करना सुलभ होता है, तब हम उन्हें सुझाते हैं कि ‘एक ही बडा ग्रंथ बनाएंगे’; परंतु प्रत्येक बार वे कहते हैं, ‘‘ग्रंथ के चाहे २-३ भाग करने पडे, तब भी चलेगा; परंतु हम छोटे-छोटे ग्रंथ ही बनाएंगे ।’’ परात्पर गुरु डॉक्टरजी अपने गुरु की आज्ञा का कितनी अचूकता से पालन करते हैं, यह इससे सीखने के लिए मिलता है ।

२ ई. अध्येता वृत्ति और पूछकर करने की वृत्ति : कुछ साधकों को ‘सनातन के ग्रंथ समझने में कठिन लगते हैं’, इस विषय में परात्पर गुरु डॉक्टरजी को पता चलने पर उन्होंने तुरंत ही अपने गुरु को यह बात बताई, तब प.पू. बाबा ने कहा, ‘‘उनसे कहिए कि नामजप करें (साधना करें), उससे ग्रंथ उनकी समझ में आएंगे ।’’ इससे परात्पर गुरु डॉक्टरजी की अध्येता वृत्ति, साथ ही पूछकर करने की वृत्ति दिखाई देती है । आज भी संतों और अध्यात्म के अध्येताओं ने ग्रंथ के संबंध में कुछ सुधार सुझाए, तो परात्पर गुरु डॉक्टरजी उनके सुझावों का आनंद से स्वीकार कर उसके अनुसार ग्रंथों में सुधार करते हैं ।