सनातन के ज्ञान-प्राप्तकर्ता साधकों को होनेवाले विविध प्रकार के कष्ट एवं मिलनेवाले ज्ञान की विशेषताएं !

विष्णुस्वरूप परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के धर्मसंस्थापना के कार्य को ज्ञानशक्ति का समर्थन मिलने के लिए ईश्वर सनातन संस्था की ओर ज्ञानशक्ति प्रवाहित कर रहा है । इस प्रवाह में ज्ञानशक्ति से ओतप्रोत चैतन्यदायी सूक्ष्म विचार ब्रह्मांड की रिक्ती से पृथ्वी की दिशा में प्रक्षेपित हो रहे हैं । ज्ञानावतारी परात्पर गुरु डॉक्टर आठवलेजी की कृपा के कारण सनातन संस्था के मार्गदर्शनानुसार साधना करनेवाले कुछ साधकों को सूक्ष्म से ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हो रहा है । इन साधकों को सूक्ष्म से ईश्वर से प्राप्त होनेवाला ज्ञान मिलते समय शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर विविध प्रकार के कष्ट हो रहे हैं । इन कष्टों की विस्तृत जानकारी आगे दी है ।

१. ज्ञानप्राप्तकर्ता साधकों को पाताल एवं
नरक से शक्तिशाली अनिष्ट शक्तियों का कष्ट देना,
कष्ट देने का उद्देश्य, कष्ट का स्वरूप, कष्ट के कारण होनेवाला परिणाम एवं कष्ट की मात्रा

 

टिप्पणी १ – विविध पाताल एवं नरक की शक्तिशाली अनिष्ट शक्तियों को ज्ञानसिद्धी प्राप्त होने से उन्हें सूक्ष्म जगत में ‘विद्वान मांत्रिक’ अथवा ‘गुरुमांत्रिक’ कहते हैं । उनका उद्देश्य पृथ्वी पर होनेवाले धर्मसंस्थापना के अवतारी कार्य का विरोध करना है । इससे वे ज्ञानप्राप्तकर्ता साधकों को कष्ट देकर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी एवं ज्ञानशक्ति के स्रोत ऐसी विविध लोकों की दैवीय शक्तियों के साथ सूक्ष्म से ज्ञानयुद्ध कर रहे हैं ।

टिप्पणी २ – ज्ञानप्राप्तकर्ता साधकों को अनिष्ट शक्तियों का कष्ट कुल ७० प्रतिशत इतनी मात्रा में होता है, जबकि उन्हें विविध लोकों की दैवीय शक्तियों की सहायता १०० प्रतिशत होती है । इन दोनों सारिणियों को देखते हुए यह ध्यान में आता है । इसलिए ‘ज्ञानप्राप्तकर्ता साधकों को सूक्ष्म से ज्ञान प्राप्त करते समय यदि उन्हें सूक्ष्म से संघर्ष का सामना करना पडे, तो उन्हें मिलनेवाला ज्ञान दैवीय है’, यह ज्ञान पढने पर ध्यान में आता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि ‘अनिष्ट शक्तियों की अपेक्षा दैवीय शक्तियों का बल अधिक है ।’

 

२. विविध उच्च लोकों के उन्नतों द्वारा ज्ञानप्राप्तकर्ता साधकों की सहायता करना

 

टिप्पणी १ – वर्तमान में ईश्वरीय ज्ञानप्राप्तकर्ता साधकों का स्तर ७० प्रतिशत से न्यून होने से उन्हें अधिक मात्रा में महर्लाेक के स्तर पर ज्ञान मिल रहा है । जब उनका स्तर ७० प्रतिशत से अधिक होगा, तब उन्हें जन, तप एवं सत्य, इन लोकों से सूक्ष्म से ज्ञान अधिक मात्रा में मिलेगा ।

टिप्पणी २ – श्रीविष्णु के अंशावतार एवं कलियुग के ज्ञानावतार परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के अव्यक्त संकल्प के कारण सनातन संस्था के मार्गदर्शनानुसार साधना करनेवाले कुछ साधकों को सूक्ष्म से ईश्वरीय ज्ञान मिल रहा है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के व्यक्त संकल्प के कारण ज्ञानप्राप्तकर्ता साधकों को सूक्ष्म से मिले ज्ञान की सत्यता वे जांचकर देख रहे हैं और उसमें चैतन्य भर रहे हैं ।

टिप्पणी ३ – ज्ञान एवं कर्म, इन योगों के अनुसार ज्ञान प्राप्त करनेवाले साधकों को ऐसी अनुभूति आती है कि ‘सूक्ष्म से विविध उन्नत अथवा ऋषि-मुनि ज्ञान दे रहे हैं ।’ भक्तिमार्ग के अनुसार ज्ञान प्राप्त करनेवाले साधकों को ऐसी अनुभूति आती है कि ‘सूक्ष्म से विविध देवी-देवता ज्ञान दे रहे हैं ।’

३. सूक्ष्म ज्ञानप्राप्तकर्ता साधकों को धर्म एवं अध्यात्म के संदर्भ में मिलनेवाले ज्ञान में भेद

१. सगुण स्तर
२. निर्गुण स्तर
३. व्यष्टि स्तर
४. समष्टि स्तर
५. तात्त्विक स्वरूप
६. प्रायोगिक स्वरूप

 

कृतज्ञता : ‘भगवान की कृपा से ज्ञानप्राप्तकर्ता साधकों के संदर्भ में उपरोक्त ज्ञान मिला एवं अध्यात्म के अनेक पहलु उजागर हुए’, इस हेतु मैं भगवान के श्रीचरणों में कृतज्ञ हूं ।’

– कु. मधुरा भोसले (सूक्ष्म से मिला ज्ञान), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२९.१२.२०२१)

सूक्ष्म : व्यक्ति का स्थूल अर्थात प्रत्यक्ष दिखनेवाले अवयव नाक, कान, नेत्र, जीव्हा एवं त्वचा यह पंचज्ञानेंद्रिय है । जो स्थूल पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि के परे है, वह ‘सूक्ष्म’ है । इसके अस्तित्व का ज्ञान साधना करनेवाले को होता है । इस ‘सूक्ष्म’ ज्ञान के विषय में विविध धर्मग्रंथों में उल्लेख है ।

आध्यात्मिक कष्ट : इसका अर्थ व्यक्तिमें नकारात्मक स्पन्दन होना । व्यक्तिमें नकारात्मक स्पन्दन ५० प्रतिशत अथवा उससे अधिक मात्रामें
होना । मध्यम आध्यात्मिक कष्टका अर्थ है नकारात्मक स्पन्दन ३० से ४९ प्रतिशत होना; और मन्द आध्यात्मिक कष्टका अर्थ है नकारात्मक स्पन्दन ३० प्रतिशतसे अल्प होना । आध्यात्मिक कष्ट प्रारब्ध, पितृदोष इत्यादि आध्यात्मिक स्तरके कारणोंसे होता है । किसी व्यक्तिके आध्यात्मिक कष्टको सन्त अथवा सूक्ष्म स्पन्दन समझनेवाले साधक पहचान सकते हैं ।

बुरी शक्ति : वातावरण में अच्छी तथा बुरी (अनिष्ट) शक्तियां कार्यरत रहती हैं । अच्छे कार्य में अच्छी शक्तियां मानव की सहायता करती हैं, जबकि अनिष्ट शक्तियां मानव को कष्ट देती हैं । प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों के यज्ञों में राक्षसों ने विघ्न डाले, ऐसी अनेक कथाएं वेद-पुराणों में हैं । ‘अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर अनिष्ट शक्तियां, उदा. असुर, राक्षस, पिशाच को प्रतिबंधित करने हेतु मंत्र दिए हैं ।’ अनिष्ट शक्ति के कष्ट के निवारणार्थ विविध आध्यात्मिक उपाय वेदादी धर्मग्रंथों में वर्णित हैं ।

इस में प्रकाशित अनुभूतियां, ‘जहां भाव, वहां भगवान’ इस उक्ति अनुसार साधकों की व्यक्तिगत अनुभूतियां हैं । वैसी अनूभूतियां सभी को हों, यह आवश्यक नहीं है । – संपादक