सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?
पू. डॉ. शिवकुमार ओझाजी (आयु ८७ वर्ष) ‘आइआइटी, मुंबई’ में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में पीएचडी प्राप्त प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे । उन्होंने भारतीय संस्कृति, अध्यात्म, संस्कृत भाषा इत्यादि विषयों पर ११ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । उसमें से ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’ नामक हिंदी ग्रंथ का विषय यहां प्रकाशित कर रहे हैं । विगत लेख में ‘मानवी बुद्धि एवं उसकी मर्यादा !’, इस विषय में जानकारी पढी । अब उसके आगे का भाग देखेंगे । (भाग ९)
२३. संशयात्मक बुद्धि के कारण योग्य निर्णय न ले पाना
‘मानसिक वासनाओं से घिरी होने के कारण मनुष्य की बुद्धि संशयात्मक रहती है । इस कारण किसी निश्चय पर पहुंचना कठिन होता है । प्रारब्ध कर्मों का प्रभाव भी बुद्धि को ठीक-ठीक निर्णय करने में कठिनाई उत्पन्न करता है ।’
२४. मनुष्य निर्णय लेने में असमर्थ होना
प्रायः मनुष्य अपने स्वयं के द्वारा लिए गए निर्णयों को बदलने का प्रयत्न करता है, या फिर कुछ काल बीतने के पश्चात उसको अपने पुराने निर्णय गलत लगने लगते हैं । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य प्राय: सही निर्णय लेने में असमर्थ-सा रहता है । मनुष्यों के सामूहिक रूप से लिए गए निर्णय भी प्राय: अंत में त्रुटिपूर्ण सिद्ध होते देखे गए हैं ।
२५. निर्णय सदैव योग्य नहीं होते !
मनुष्य जिसको अपनी अंतरात्मा (Conscience) या सामान्य ज्ञान (Common Sense) समझकर निर्णय लेता है, वह भी हमेशा सही नहीं होते ।
२६. विद्वान पुरुष अथवा समाज को भी योग्य निर्णय लेने में कठिनाई होना
अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में क्या करना लाभकारी एवं कल्याणकारी होगा, इसका निर्णय मनुष्य एवं समाज दोनों के लिए ही कठिन होता है । आधुनिक जीवन के अत्यंत विद्वान पुरुषों या समाजों को भी बहुत सी समस्याओं का उचित निर्णय ले पाना कठिन होता है ।
२७. प्रत्यक्ष घटना देखनेवाले व्यक्ति को भी घटना का अचूक वर्णन करना कठिन होना
जब एक छोटी-सी घटना को प्रत्यक्ष रूप से देखनेवाले व्यक्तियों से वर्णन करने को कहा जाए, तो प्रत्येक व्यक्ति उसे अपनी भावनाओं के अनुरूप बताता है जिससे कि घटना के बहुत सारे सत्य गलत वर्णन कर दिए जाते हैं । मनोवैज्ञानिक सर्वेक्षणों द्वारा भी यह देखा गया है ।
२८. जो चूक करे वही मनुष्य !
अंग्रेजी में एक कहावत प्रसिद्ध है – ‘To err is human.’ अर्थात मनुष्य है तो गलतियां होंगी ही । इसका अर्थ हुआ कि मनुष्य की बुद्धि कोई कार्य करने में गलतियां प्राय: करती ही है ।
२९. अनुभव की विश्वसनीयता अधिक होना
बौद्धिक तर्कों द्वारा प्रतिपादित ज्ञान की अपेक्षा अनुभवों द्वारा प्राप्त ज्ञान या सहज-ज्ञान (जो संतों या महात्माओं के पास होता है) अधिक विश्वसनीय और प्रभावशाली होता है । यही कारण है कि अनुभवी सांसारिक लोगों या संत महात्माओं की बातों को लोग अधिक मानते हैं । रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि, शिरडी के श्री साई बाबा आदि के पास बहुत से बुद्धिजीवी व्यक्ति ज्ञानप्राप्ति के लिए जाया करते थे ।
३०. लोगों में किसी विषय में मतभिन्नता होने से निर्णय लेना कठिन होना
किसी भी विषय के लिए निश्चय करने को कहा जाए, तो भिन्न-भिन्न लोग प्राय: अपने भिन्न-भिन्न मतों को व्यक्त करने लगते हैं जिससे कि पदार्थ के विषय में यथार्थ निर्णय लेने में कठिनाई होती है ।
३१. मन का प्रतिक्षण बदलना एवं उसका सत्य
मन क्षण-क्षण बदलता रहता है । मन को लगता है कि ‘मैं सब जानता हूं’; परंतु यह कैसे सच हो सकता है? (विवेकचूडामणि, श्लोक २९३)
३२. दूसरों की बुद्धि पर विश्वास न रहना
संसार में देखा जाता है कि लोग दूसरे मनुष्यों की बुद्धि पर पूरा भरोसा नहीं करते । उदाहरण के लिए एक कंपनी द्वारा बनाई गई वस्तु की मरम्मत उसी कंपनी के कारीगर द्वारा करवाने को प्रोत्साहन दिया जाता है । (क्रमशः)
– (पू.) डॉ. शिवकुमार ओझा, वरिष्ठ शोधकर्ता एवं भारतीय संस्कृति के अध्ययनकर्ता (साभार : ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है?’)