पूज्य डॉ. शिवकुमार ओझाजी (आयु ८७ वर्ष) ‘आइआइटी, मुंबई’ के एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में पीएचडी प्राप्त प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे । उन्होंने भारतीय संस्कृति, अध्यात्म, संस्कृत भाषा इत्यादि विषयों पर ११ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । उसमें से ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’ नामक हिन्दी ग्रंथ का विषय यहां प्रकाशित कर रहे हैं । विगत लेख में ‘भारतीय संस्कृति’ सर्वोत्तम शिक्षा का दृढ आधार होना, मानवीय जीवन के बंधन से मुक्ति मिलने हेतु शिक्षा चाहिए एवं आधुनिक मान्यता तथा दोष के विषय में जानकारी पढी । आज उसके आगे का लेख देखेंगे । (भाग ५)
३. केवल ‘अर्थ’ और ‘काम’ इतना ही ध्येय रखकर मनुष्य को असफलता के मार्ग पर ले जानेवाली आधुनिक शिक्षा !
३ अ. विविध माध्यमों से मानवी वासनाओं की आपूर्ति कर केवल ‘अर्थ’ और ‘काम’ ही ध्येय रखनेवाले शिक्षक और विद्यार्थी ! : ‘आधुनिक युग में शिक्षक और शिष्य के सम्बन्धों का माध्यम केवल भौतिक शिक्षा है, अन्य कुछ नहीं । नियत दिन नियत समय पर शिक्षक कक्षा में आता है और अध्यापन कार्य नियत समय पर समाप्त कर अपने कक्ष (Room) में चला जाता है । इसके पश्चात शिक्षक और शिष्य दोनों अपने-अपने पृथक कार्यों में लग जाते हैं । आधुनिक युग में शिक्षक और शिष्य दोनों ही होटलों में जाते हैं, चलचित्र (सिनेमा) या दूरदर्शन (टी.वी.) देखते हैं, अन्य विशेष स्थलों पर जाते हैं । दोनों ही अपने-अपने ढंग से मानवीय वासनाओं की पूर्ति करते हैं तथा स्वार्थ से प्रेरित रहते हैं । आधुनिक भोग्य पदार्थों के प्रति दोनों का ही समान रूप से आकर्षण रहता है । शिक्षक और शिष्य दोनों के व्यक्तिगत चरित्रों में कोई विशेष अंतर नहीं होता । दोनों का लक्ष्य ‘अर्थ’ और ‘काम’ होता है ।
३ आ. शिक्षकों के प्रति आदरभाव की न्यूनता : शिक्षक की आयु अधिक होने के कारण वह अधिक व्यावहारिक एवं शिष्ट (Polished) होता है । उच्च शिक्षाओं में कभी-कभी शिक्षक और शिष्य दोनों की आयु में भी अधिक अन्तर नहीं होता । ऐसी स्थिति में शिष्य का शिक्षक के प्रति कितना आदरभाव होगा यह समझा जा सकता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है और इस अनुमान की सत्यता या असत्यता कभी-कभी अपनी स्पष्ट झलक दिखला भी दिया करती है । कोई मनुष्य यदि किसी को कुछ देता है या सिखाता है, तो देनेवाले या सिखलानेवाले के प्रति नमन व श्रद्धा होना एक स्वाभाविक प्रकृतिप्रदत्त प्रक्रिया है । यह नमन व श्रद्धा कितनी प्रगाढ होगी यह शिष्य और शिक्षक, दोनों के गुणों पर निर्भर करता है ।
३ इ. मनुष्य की प्रवृत्तियों को संयमित रख पाने में निष्फल और मनुष्य को दुष्कर्माें की ओर ले जानेवाली आधुनिक शिक्षा ! : यह देखा जाता है कि शिक्षित मनुष्य कभी-कभी ऐसे दुष्कर्मों में संलग्न हो जाता है जिसकी आशा किसी को भी नहीं होती । इसका अर्थ हुआ कि आधुनिक शिक्षा मानवीय प्रवृत्तियों को सदा संयमित रखने के उपायों की शिक्षा से अनभिज्ञ रहती है । प्रवृत्तियों के अकस्मात बदलने के कारणों का अनुसंधान आधुनिक शिक्षा नहीं कर पाती । आधुनिक शिक्षित मनुष्य कहेगा कि ऐसी क्रियाएं (घटनाएं) कभी-कभी हो ही जाया करती हैं । परंतु यह प्रश्न का उत्तर नहीं है, क्योंकि मौलिक प्रश्न तो यही है कि ऐसे दुष्कर्म क्यों शिक्षित मनुष्यों द्वारा हो जाया करते हैं ।
३ ई. जीवन में अस्थिरता निर्माण करनेवाली आधुनिक शिक्षा ! : मनुष्य एवं समाज के जीवन में अस्थिरता उत्पन्न करती आधुनिक शिक्षा के ध्येय पदार्थ अर्थ (धन-सम्पत्ति) व काम (इच्छाएं) दोनों ही जीवन में अस्थिरता उत्पन्न करते हैं; क्योंकि वे स्वयं स्थिर रूप में नहीं रहते ।
३ ई १. ‘अर्थ’ स्थिर न रहना : ‘अर्थ’ स्थिर नहीं रहता, क्योंकि कोई-कोई धनी मनुष्य निर्धन हो जाया करते हैं और निर्धन मनुष्य धनी बनते देखे गए हैं । कितने काल (समय) तक ये मनुष्य निर्धन या धनी बने रहेंगे, इस प्रश्न के उत्तर में भी निश्चयात्मकता नहीं है, स्थिरता नहीं है । अर्थ सम्बन्धी यह अस्थिरता केवल किसी मनुष्य तक सीमित नहीं है, प्रत्युत किसी समाज या देश-विशेष की भी हो सकती है ।
३ ई २. अंत न होनेवाली कामना : ‘काम’ संबंधी अस्थिरता अधिक प्रचंड है; क्योंकि मनुष्य की कामनाओं का कोई अंत नहीं हुआ करता और आधुनिक जीवन में नए-नए भौतिक पदार्थों एवं सुविधाओं का आकर्षण भी अधिक है । मन चंचल होता है और कामनाएं कभी पूर्ण नहीं होतीं, वे बढती जाती हैं, बदलती जाती हैं । इसलिए ‘अर्थ’ और ‘काम’ जीवन को अस्थिर बनाते हैं ।
३ उ. अशिक्षित मनुष्य भी अर्थ एवं काम प्राप्त करता है : यह भी देखा गया है कि आधुनिक शिक्षा के ध्येय पदार्थों (अर्थ और काम) को कभी-कभी अशिक्षित मनुष्य भी प्राप्त कर लेते हैं और इस कार्य में जब कोई संकट यदि आता है तो इसका निवारण भी धन द्वारा ही प्रायः हो जाया करता है । ऐसी स्थितियों को देखते हुए जनसाधारण का मन नियमों के पालन के प्रति सशंकित हो जाता है, अस्थिर हो जाता है ।
३ ऊ. महान एवं विलक्षण भारतीय सांस्कृतिक ज्ञान संबंधी अनभिज्ञ आधुनिक शिक्षा ! : वर्तमान में मनुष्य नौकरी, उद्योग अथवा व्यापार में व्यस्त है । वह परिश्रम करता है और परिश्रम का फल मिलने पर वह सुख अनुभव करता है । घर चलाने के लिए उसके पास सुविधाएं होती हैं । बीमारी पर उपचार करने के लिए डॉक्टर जगह-जगह उपलब्ध होते हैं । ऐसी स्थिति में केवल भौतिक सुख के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार की संस्कृति मनुष्य को आवश्यक नहीं लगती । वह भारतीय संस्कृति की मान्यता, ज्ञान एवं परंपरा के विषय में अनभिज्ञ होता जाता है । इस कारण अन्य दोषों का जन्म होता है, उदा. विदेशी परंपराओं के प्रति आसक्त होना, भारतीय संस्कृति को हास्यास्पद समझने लगना, भारतीय होते हुए भी विदेशी नागरिकों समान आचरण होने लगना इत्यादि ।
३ ए. भारतीय संस्कृति समझने के आवश्यक कारण तथा लाभ !
१. भारतीय संस्कृति मनुष्य को अध्यात्म एवं विज्ञान, इसके साथ ही प्रकृति के विस्तार (व्यापकत्व) का विज्ञान सिखाती है ।
२. मनुष्य में समाहित अपार शक्तियों का बोध कराती है तथा उन्हें प्राप्त करने का उपाय बताती है ।
३. यह संस्कृति मानवीय बुद्धि के परे का ज्ञान सिखाती है ।
४. मनुष्य के दुःखों के मौलिक कारण तथा उनके निराकरण का उपाय बताती है ।
५. मानव के चरित्र निर्माण की ओर ध्यान केंद्रित करना सिखाती है ।
६. व्यापक दृष्टिकोण अपनाकर हमें जगद्गुरु बनाती है ।
७. स्वामी विवेकानन्द के समान ओजपूर्ण वाणी द्वारा भारतीय संस्कृति का वर्चस्व विश्व में स्थापित करती है ।
८. जीवन की दिशा निश्चित करती है ।
९. अनेक विषयों के कार्य-कारण श्रृंखला के आरंभ और अंत से परिचय कराती है ।
१०. भारतीय परम्परागत विचारों एवं कर्मों की विशेषताएं बताती है ।
११. परंपरागत भारतीय अक्षरों एवं शब्दों का विज्ञान सिखाती है ।
१२. आधुनिक युग के भारतीयों में प्रविष्ट हीनता की भावना से उबारती तथा हमें स्वाभिमानी बनाती है ।
३ ऐ. आधुनिक शिक्षा से मनुष्य में केवल बाह्य परिवर्तन होना : आधुनिक शिक्षा ज्ञान (प्रत्यक्ष व परोक्ष ज्ञान) देती है, जानकारी देती है; किंतु मनुष्य के स्वयं के व्यक्तित्व को, चरित्र अथवा गुणों को नहीं बदलती । मनुष्य के मन में जो सदा उलटे सीधे संकल्प विकल्प उठते रहते हैं उनको आधुनिक शिक्षा नियंत्रित नहीं कर पाती । मनुष्य की वासनाएं जैसे राग, द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, मोह, भय, तृष्णा इत्यादि जो बाल्यकाल में होती हैं, वही यौवनावस्था और वृद्धावस्था में भी विद्यमान रहती हैं, किंतु आधुनिक शिक्षा इन वासनाओं को क्षीण करने का कोई उपाय नहीं बता पाती । आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर, धनधान्य से युक्त होकर धन की “गर्माहट” के प्रभाव में मनुष्य इस अहंकार में रहता है कि वह बहुत योग्य है, श्रेष्ठ है तथा उसने बहुत उन्नति कर ली है । मनुष्य की यह प्रतीति मिथ्या है, क्योंकि आधुनिक शिक्षा ने मनुष्य को केवल बाहरी आडंबर प्राप्त कराया है, ‘अन्दर’ से उसे नहीं बदला है ।
३ ओ. कुछ घटनाओं के पीछे की वास्तविकता न बताते हुए विद्यार्थियों को अंधेरे में रखा जाना : आधुनिक काल में शासक वर्ग भय, स्वार्थ आदि कारणवश विद्यार्थियों को कुछ घटनाओं के पीछे की वास्तविकता नहीं बताता । विद्यार्थियों को अंधकार में रखता है । केवल विद्यार्थियों को ही नहीं, अपितु प्रजा को भी अंधेरे में रखा जाता है । इसके अतिरिक्त जानबूझकर भ्रममूलक या असत्य किंवदंतियां (अफवाहें) फैला दी जाती हैं ।’ (क्रमशः)
– (पू.) डॉ. शिवकुमार ओझा, वरिष्ठ संशोधक एवं भारतीय संस्कृति के अभ्यासक (साभार : ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’)