कलियुग के प्रथम वेदऋषि पू. डॉ. शिवकुमार ओझाजी !

सर्वाेत्तम शिक्षा कौन सी है ?

‘मैं डॉक्टर अर्थात विज्ञान शाखा का स्नातक हूं । इसके कारण मुझे कभी संस्कृत, राष्ट्रभाषा हिन्दी अथवा मेरी मातृभाषा मराठी के अध्ययन के प्रति आकर्षण नहीं हुआ । इसके विपरीत विज्ञान के विख्यात शोधकर्ता होते हुए भी पू. डॉ. शिवकुमार ओझाजी ने संस्कृत, हिन्दी, अध्यात्मशास्त्र, भारतीय संस्कृति जैसे विषयों पर आधारित अनेक ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । उनके ग्रंथों में निहित प्रत्येक पंक्ति महत्त्वपूर्ण है । उसके कारण ‘वे कलियुग के प्रथम वेदऋषि हैं’, यह मुझे तीव्रता से भान हुआ ।’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले 
(पू.) डॉ. शिवकुमार ओझा

१. विषय प्रवेश

१ अ. ‘भारतीय संस्कृति’ सर्वोत्तम शिक्षा का सुदृढ आधार : ‘भारतीय संस्कृति’ शब्द का अर्थ यहां ‘वैदिक संस्कृति, हिन्दू धर्म अथवा सनातन धर्म’ है और यह सर्वाेत्तम शिक्षा का सुदृढ आधार है । उसी आधार पर प्रस्तुत पुस्तक की रचना की गई है । भारतीय संस्कृति में शिक्षा का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत एवं उपयोगी है । सृष्टि के ३ भागों में अर्थात आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक, इन प्रकारों में शिक्षा का विस्तार है । मनुष्यजीवन में किसी न किसी प्रकार से परोक्ष-अपरोक्ष रूप से शिक्षा का आदान-प्रदान चलता रहता है । प्राचीन भारत में शिक्षा देने की प्रक्रिया उस समय से ही आरंभ हो जाती थी, जब शिशु माता के गर्भ में रहता था ।

हिन्दू धर्म, अध्यात्म, भारतीय संस्कृति, संस्कृति सहित अनेक विषयों पर प्रचुर लेखन करनेवाले कलियुग के प्रथम वेदऋषि डॉ. शिवकुमार ओझाजी !

१ आ. शिक्षा ग्रहण एवं प्रदान करने की क्षमता प्रत्येक मनुष्य में अलग होना और ‘ज्ञान वृद्धि करना’ शिक्षा का अभिन्न अंग : ‘शिक्षा ग्रहण करना अथवा शिक्षा देना’, एक प्रक्रिया है । किसी भी क्रिया को करने हेतु मनुष्य के पास मन, वाणी एवं शरीर ये ३ साधन होते हैं । भारत में अत्यंत प्राचीन काल से शिक्षा हेतु इन तीनों साधनों का उपयोग बडी कुशलता के साथ किया गया है । शिक्षा में मनुष्यजीवन में परिवर्तन करने की प्रचुर शक्ति है । एक प्रकार की शिक्षा से मनुष्य सदाचारी और महात्मा बनता है, तो दूसरे प्रकार की शिक्षा से मनुष्य दुराचारी और आतंकी बनता है । शिक्षा ग्रहण करने की, साथ ही शिक्षा प्रदान करने की क्षमता एवं कौशल प्रत्येक मनुष्य में भिन्न-भिन्न होती है । ‘ज्ञान की वृद्धि करना’ शिक्षा का अभिन्न अंग है । जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण एवं उद्देश्य इसका निर्धारण करता है कि ज्ञानवर्धन कहां तक किया जाना चाहिए और ज्ञानवर्धन हेतु शिक्षा का कौन सा रूप अथवा कौन सा प्रकार होना चाहिए ?

१ इ. आधुनिक प्रचलित शिक्षातंत्र में निहित दोषों का निराकरण करने की आवश्यकता : वर्तमानकाल में मनुष्य में निहित अनुशासनहीनता, अनैतिकता, चरित्र का अधःपतन, माता-पिता एवं गुरु के प्रति श्रद्धा का अभाव, राष्ट्रीय भावना का अभाव, स्वार्थांधता आदि दोष इस बात को सूचित करते हैं कि आधुनिक समय के शिक्षातंत्र में निश्चित रूप से दोष हैं और उसके निराकरण की चिंता प्रत्येक राष्ट्र में होनी चाहिए ।

१ ई. आधुनिक विद्याएं आधिभौतिक हैं तथा उनका अत्यंत सीमित एवं संकीर्ण दृष्टिकोणों पर आधारित होना : शिक्षा सुनिश्चित करना तथा उसमें निहित गुण-दोष इस पर निर्भर होते हैं कि ‘मनुष्यजीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण संकीर्ण हैं अथवा व्यापक ?’ संकीर्ण एवं सीमित दृष्टिकोण होने के कारण शिक्षा भी संकीर्ण एवं सीमित हो जाती है । जीवन के प्रति आधुनिक समाज की मान्यताओं अथवा दृष्टिकोणों ने आधुनिक भौतिक विद्याओं को प्रतिष्ठित बनाया है और भौतिक स्तरों पर उनका संवर्धन किया है । सामान्यतः आधुनिक प्रचलित शिक्षा का संबंध छात्रजीवन तक ही सीमित होता है । उसके उपरांत विविध उद्योगों में अपने कर्मचारियों के लिए कभी-कभी विशेष पाठ्यक्रम (ट्रेनिंग) देने की सुविधा होती है । ये सभी विद्याएं भौतिक एवं आधिभौतिक हैं अर्थात ही भौतिक पदार्थाें से संबंध रखनेवाली हैं । आधुनिक युग के मानव समाज को इन भौतिक विद्याओं की शिक्षा की ओर अधिक आकर्षित और आसक्त किया है । सभी को यह ज्ञात है कि उनमें गंभीर दोष भी हैं; परंतु ‘इन दोषों पर किस प्रकार विजय प्राप्त करनी चाहिए ?’, इसके उपाय ढूंढने में आधुनिक समाज असमर्थ सिद्ध हुआ है । इसका कारण यह है कि आधुनिक विद्याएं अत्यंत सीमित एवं संकीर्ण दृष्टिकोणों पर आधारित हैं ।

१ उ. भौतिक विद्याओं के कारण भोगवादी मनुष्य के गृहस्थ-जीवन की इच्छाओं की आपूर्ति होने से उसमें उच्च स्तर का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा शेष न होना और उच्च स्तर का ज्ञान समझने में भी कठिन होना : भोगवादी मनुष्य भौतिक विद्याओं तक ही सीमित रहा है तथा उसी में आसक्त हुआ है । उसके कारण व्यापक दृष्टिकोणों को समझने में उसे रुचि नहीं होती और व्यापक दृष्टिकोणों पर आधारित विद्याएं समझना भी कठिन हो गया है । किसी व्यक्ति को कनिष्ठ स्तर का (अथवा कक्षा का) थोडा सा ज्ञान मिलने पर उसे धन अर्जित करने में कोई समस्या नहीं आती हो और उससे उसके गृहस्थ-जीवन की सभी इच्छाओं की आपूर्ति होती हो, तो उसमें उच्च स्तर का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा ही शेष नहीं रहती और उच्च स्तर का ज्ञान समझने में भी कठिन है; परंतु उच्च स्तर की विद्याओं में कनिष्ठ स्तर की विद्याओं के कारण प्राप्त न होनेवाले, साथ ही अनेक अनुत्तरित प्रश्न अथवा शंकाओं के निराकरण करने का सामर्थ्य होता है ।

१ ऊ. आधुनिक भौतिक विद्याओं का सृजन मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताओं की आपूर्ति हेतु होना : मनुष्य के प्राकृतिक अनुभव भौतिक शिक्षा के आधार हैं । भौतिक संस्कृति यह मानती है कि ‘अन्न, वस्त्र एवं आवास’ मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं । ‘मनुष्य के आहार की आपूर्ति, निद्रा (विश्राम), भय से संरक्षण मिलना और कामवासना की आपूर्ति करना’ मनुष्य की आवश्यकताएं हैं ।’ इन्हीं आवश्यकताओं की आपूर्ति करने हेतु तथा उन्हें भव्य बनाने हेतु आधुनिक भौतिक विद्याओं का सृजन हुआ है । उसी दिशा में शोधकार्य के प्रयास हुए हैं और उसके अनुसार ही अनुकूल शिक्षा का प्रसार हुआ है ।

१ ए. मनुष्यजीवन की वास्तविकता पर भारतीय संस्कृति का प्रकाश डाला जाना : भारतीय संस्कृति इस भौतिक जीवन पर प्रश्नचिन्ह उठाती है । भारतीय संस्कृति यह पूछती है, ‘जीवन की वास्तविकता एवं पूर्णता क्या केवल मनुष्य की आवश्यकताओं की आपूर्ति करने में, साथ ही भौतिक सुखसुविधाओं के भोग में ही है ? तो यह भौतिक जीवन पशुवत क्यों होता जा रहा है ? इस भौतिक जीवन के लिए संघर्ष भी बहुत करना पडता है; परंतु तब भी मनुष्य को संतुष्टि क्यों नहीं मिलती ? हमारी भोगवादी वृत्ति और इच्छाएं समाप्त क्यों नहीं होतीं ? हमारे जीवन में बार-बार सुख-दुख क्यों आते रहते हैं ? हमारे दुखों का अंत क्यों नहीं होता ? मनुष्य आसुरी वृत्तियों से (लोभ, मोह, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि से) ग्रस्त है । उसकी बुद्धि दोषयुक्त और सीमित होकर रह गई है ।

१ ऐ. आधी-अधूरी शिक्षा से मानवीय समस्याएं उत्पन्न होना : ‘मैं कौन हूं ?’, मैं इस विश्व में क्यों आया हूं ?’, किन सूक्ष्म प्रक्रियाओं के द्वारा आया हूं ?, कितने काल तक रहूंगा ?’ इत्यादि बातें मनुष्य स्वयं ही नहीं जानता । इसलिए भारतीय संस्कृति प्रश्न पूछती है, क्या ‘ऐसी बुद्धि के आधार पर निर्भर होकर ‘जीवन के लक्ष्य की सुनिश्चितता, कर्तव्यों की सुनिश्चितता, समाज के कानून बनाना’ इत्यादि उचित पद्धति से सुनिश्चित किए जा सकते हैं ? इसका उत्तर यदि ‘हां’ है, तो क्या यह इस अमूल्य मनुष्य जीवन के साथ खेलने जैसा नहीं होगा ? शिक्षा की पूर्णता प्राप्त करने हेतु इन सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करना आवश्यक है । आधी-अधूरी शिक्षा यदि मानवीय समस्याएं उत्पन्न कर उनका विस्तार करती हो, तो उसमें आश्चर्य की कोई बात ही नहीं है ।’
– (पू.) डॉ. शिवकुमार ओझा, वरिष्ठ शोधकर्ता तथा भारतीय संस्कृति के गहन अध्ययनकर्ता, ठाणे, महाराष्ट्र. (क्रमशः)

(साभार : ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’)