भारत-चीन सीमाविवाद के समझौते के लिए ‘शिमला समझौता’

     १०६ वर्ष पूर्व लंडन के सरकारी मुख्‍यालय से शिमला को एक तार भेजा गया; किंतु तार पहुंचने में विलंब हुआ और तभी ‘मैकमोहन रेखा’ नाम की संतति ने जन्‍म लिया । वर्ष १९७१ के भारत-पाकिस्‍तान युद्ध के उपरांत इन देशों के मध्‍य हुआ ‘शिमला समझौता’ सभी को ज्ञात है । भले ही ऐसा हो; परंतु वर्ष १९१४ में शिमला में एक और समझौता हुआ था । उस समझौते की फलोत्‍पत्ति के रूप में भारत-चीन सीमा पर ‘मैकमोहन रेखा’ अस्‍तित्‍व में आई ।

भारत-चीन सीमाविवाद के समझौते के लिए ‘शिमला समझौता’

     ब्रिटिश शासित भारत के विदेश सचिव सर हेनरी मैकमोहन के तत्त्वावधान में भारत-चीन सीमाविवाद का समाधान निकालने के लिए शिमला में एक बैठक हुई । इस बैठक में भारत, चीन और तत्‍कालीन स्‍वतंत्र तिब्‍बत, इन ३ देशों के प्रतिनिधि सम्‍मिलित हुए । इस बैठक में ८८५ किलोमीटर लंबी एक सीमा सुनिश्‍चित की गई । इस सीमारेखा को नाम दिया गया ‘मैकमोहन रेखा !’; परंतु चीन ने इस समझौते पर हस्‍ताक्षर नहीं किए थे । तिब्‍बत स्‍वतंत्र होने से उसके लिए चीन की सहमति की आवश्‍यकता नहीं है, ऐसा ब्रिटिश सरकार को लग रहा था । इसके कारण चीन का विरोध न मानकर भारत और तिब्‍बत ने शिमला समझौते को मान्‍यता दी । वर्ष १९५० में चीन ने तिब्‍बत हडप लिया । इसपर चीन की यह भूमिका थी कि ‘हमने इस समझौते पर हस्‍ताक्षर नहीं किया है; इसलिए हम मैकमोहन रेखा को नहीं मानते ।’ और आज भी उसकी यही भूमिका है ।

मैकमोहन रेखा

     यह रेखा भूटान की पूर्व सीमा से आरंभ होकर हिमालय के शिखर और ब्रह्मपुत्र के बडे मोड तक अर्थात ब्रह्मपुत्र तिब्‍बत से असम की घाटी में उतरती है, वहां तक है । इस रेखा के जन्‍म में ही समस्‍या थी । एक तो उसे छोटे मानचित्र पर बनाया गया और उसमें विस्‍तृत जानकारी का अभाव था । ‘८ मील का १ इंच’, इस अनुपात में बने मानचित्र पर चीन ने हस्‍ताक्षर नहीं किए थे । मैकमोहन रेखा के संदर्भ में बहुत जटिलता है ।

रूस के भय के कारण शिमला समझौते को गुप्‍त रखना

     ब्रिटिश शासक रूस से भयभीत थे और उसके कारण ही वे कुछ निर्णय ले रहे थे । वर्ष १९०७ में ब्रिटिश शासकों ने रूस पर एक प्रकार से सेंट पीट्‌सबर्ग सम्‍मेलन थोप दिया । इस सम्‍मेलन में लिए गए निर्णय के अनुसार रूस और ब्रिटेन की दोनों सरकारों को तिब्‍बत से दूर रहना अनिवार्य किया गया था । इस सम्‍मेलन में यह भी सुनिश्‍चित किया गया कि उन्‍हें तिब्‍बत के संदर्भ में कुछ चर्चा करनी हो, तो वह चीन की मध्‍यस्‍थता से करें । वर्ष १९१३ में ब्रिटिश सरकार के तत्त्वावधान में शिमला में भारत, चीन और तिब्‍बत में त्रिपक्षीय चर्चा आरंभ हुई । भारत की उत्तरी सीमा का निर्धारण करने की बात बोलकर सर मैकमोहन और तिब्‍बत के नेता लोंचेन मात्रा के मध्‍य चर्चा आरंभ की गई । इस चर्चा में चीन को सम्‍मिलित किया गया था; क्‍योंकि पीट्‍सबर्ग सम्‍मेलन में चीन के सामने उस प्रकार की शर्त रखी गई थी । चीन चर्चा में तो सम्‍मिलित हुआ; परंतु उसने वर्ष १९१४ के शिमला समझौते पर हस्‍ताक्षर नहीं किए ।

     शिमला चर्चा की आड में ब्रिटिश सरकार की एक दूरगामी योजना थी । तिब्‍बत के मांचू परिवारवाद का अस्‍त होने से वह एक प्रकार से स्‍वतंत्र हुआ था । तिब्‍बत की इस स्‍वतंत्रता पर मुद्रा अंकित करना और भारत-चीन के मध्‍य ‘बफर’ (धक्‍का विरोधी तंत्र) के रूप में उसका उपयोग करना, यह ब्रिटिश योजना थी । इसमें तिब्‍बत के ‘आउटर तिब्‍बत’ (बाह्य तिब्‍बत) और ‘इनर तिब्‍बत’ (भीतरी तिब्‍बत) के रूप में विभाजन किया जानेवाला था । शिमला में हो रही ये सब बातें चीन को स्‍वीकार नहीं थीं; किंतु चीन का विरोध न मानकर इस परिषद के आयोजक सर मैकमोहन ने आगे बढना सुनिश्‍चित किया । लंडन से ‘उन्‍हें (मैकमोहन को) चीन का विरोध न मानकर समझौते पर हस्‍ताक्षर नहीं करने चाहिए’ यह तार भेजा गया; परंतु वह उन्‍हें विलंब से मिला और तब तक सर मैकमोहन ने शिमला समझौते पर हस्‍ताक्षर कर दिए थे; क्‍योंकि उस समय चीन बहुत ही दुर्बल माना जाता था ।

     शिमला समझौते का समाचार रूस को ज्ञात होते ही वह अप्रसन्‍न होगा’, इस भय से ब्रिटिश शासकों ने इस समझौते की जानकारी छिपाई । यह समझौता गुप्‍त रखा गया । उसे ‘आईटीचिसन’ समझौते के दस्‍तावेजों में प्रकाशित नहीं किया गया । यह सब वर्ष १९३८ में किया गया । वर्ष १९१४ में शिमला समझौते में मैकमोहन रेखा को स्‍वीकार किया गया; परंतु २१ वर्षों तक सभी को मानो इस रेखा का विस्‍मरण हो गया था । चीन ने तो इस रेखा को माना ही नहीं था; परंतु ब्रिटिश शासित भारत भी इस रेखा को भूल गया था । एक दिन यह समझौता सामने आया, वह भी एक अलग घटना से !

२१ वर्ष उपरांत ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘मैकमोहन सीमारेखा’ स्‍वीकार करना

     ब्रिटिश गिर्यारोही और वनस्‍पति वैज्ञानिक कैप्‍टन किंग्‍डन वॉर्ड तिब्‍बत सरकार की अनुमति से अनेक बार तिब्‍बत गए थे । वर्ष १९३५ में उन्‍होंने तिब्‍बत सरकार की अनुमति के बिना तवांग मार्ग से तिब्‍बत में प्रवेश किया । तिब्‍बत सरकार को यह ज्ञात होते ही उन्‍होंने कैप्‍टन वॉर्ड को बंदी बना लिया । तब वॉर्ड ने यह तर्क दिया कि ‘तवांग के अधिकारियों से अनुमति लेकर ही मैंने तिब्‍बत में प्रवेश किया है ।’ तिब्‍बत सरकार ने ब्रिटिश अधिकारियों से इसकी शिकायत की । चीन के कारण ब्रिटिश सरकार तो चिंतित थी ही ! ब्रिटिश सरकार ने यह पूरा प्रकरण ओलाफ कैरोई नामक अधिकारी को सौंपा । उसने सभी दस्‍तावेज मांग लिए । उसमें उसे शिमला समझौते का दस्‍तावेज भी मिला, जो तब तक धूल में पडा हुआ था ।

     कैप्‍टन वॉर्ड को छुडाने के लिए ओलाफ कैरोई ने समझौते पर जमी धूल झाडी और उसे स्‍वीकार करने के लिए उन्‍होंने ब्रिटिश सरकार को तैयार किया । इस प्रकार २१ वर्ष उपरांत मैकमोहन रेखा का पुनर्जन्‍म हुआ । वर्ष १९३७ में ‘सर्वे ऑफ इंडिया’ ने एक मानचित्र प्रकाशित कर मैकमोहन रेखा भारत-चीन के मध्‍य सीमारेखा होने का स्‍पष्‍ट किया । वर्ष १९३८ में ब्रिटिश सरकार ने एक और दस्‍तावेज में यह सीमारेखा स्‍वीकार की । तब से लेकर मैकमोहन रेखा को भारत-चीन के मध्‍य की सीमारेखा मानी जाती है; परंतु चीन ने उसे कभी मान्‍यता नहीं दी । मैकमोहन रेखा का कुछ भाग ‘मैकमोहन-कैरोई रेखा’ के नाम से भी जाना जाता है । तिब्‍बत पहले रूस के और उसके उपरांत चीन के हाथ में न जाए’, इसके लिए ब्रिटिशों ने बहुत प्रयास किए । रूस को शह देने के लिए उन्‍होंने चीन का उपयोग ‘बफर’ के रूप में किया और उसके उपरांत चीन को शह देने के लिए तिब्‍बत का उपयोग ‘बफर’ के रूप में किया ।

वर्तमान स्‍थिति में भारत-चीन सीमाविवाद में समाहित सभी रेखाओं को मिटाने का चीन का प्रयास

     इसके उपरांत का घटनाक्रम पूरे इतिहास को बदलनेवाला सिद्ध हुआ । वर्ष १९४७ में ब्रिटिशों को भारत छोडना पडा और उसके ३ वर्ष उपरांत अर्थात वर्ष १९५० में चीन ने तिब्‍बत हडप लिया । वर्ष १९५४ में भारत-चीन के मध्‍य पंचशील समझौता हुआ; परंतु उसी समय भारत ने स्‍वयं अपनी सीमाएं खींचनी आरंभ कीं । तब से सीमा पर छोटी-बडी झडपें होने लगीं । ‘वैश्‍विक महासत्ता’ के रूप में ब्रिटेन कब का अस्‍त हो गया था । मध्‍य के काल में सोवियत यूनियन भी टूट गया । सोवियत यूनियन के ८५ प्रतिशत भूभागवाले रूस को ‘महाशक्‍ति’ के रूप में मान्‍यता प्राप्‍त करना संभव नहीं हुआ । तब एक वैश्‍विक महाशक्‍ति के रूप में चीन का उदय होने लगा । वर्ष २०२० चीन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ । पूरा विश्‍व जहां कोरोना विषाणु से संघर्ष कर रहा है, तब चीन ने अपनी सैन्‍यशक्‍ति का प्रदर्शन करना आरंभ किया । लद्दाख उसके इस खेल का प्रांगण बना । भारत-चीन सीमाविवाद में आज तक की सभी रेखाएं मिटाकर चीन एक नई रेखा खींचने का प्रयास कर रहा है ।

– रवींद्र दाणी

(संदर्भ – दैनिक ‘तरुण भारत’, ६.९.२०२०)