घोर आपातकाल में नई-नई आध्यात्मिक उपचार-पद्धतियों का शोध कर मानवजाति के कल्याण हेतु परिश्रम करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

अनोखी आध्यात्मिक उपचार-पद्धतियों के जनक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

हाथोंकी उंगलियोंसे निकलनेवाली प्राणशक्तिसे विकार दूर करना

     सामान्य लोगों में अपने आस-पास अथवा हमारे जीवन में होनेवाली गतिविधियों के संदर्भ में जानने की जिज्ञासा होती है । आगे की साधनायात्रा में साधक के मन में मैं कहां से आया, मेरा लक्ष्य क्या है, मुझे कहां जाना है ? आदि प्रश्‍न उठते रहते हैं । साधना करते समय ‘जिज्ञासा’ गुण का होना आवश्यक है; क्योंकि उससे साधक सीखने की स्थिति में रहकर उसके अनुसार आचरण करने का प्रयास करता है ।

     महर्षियों के बताए अनुसार परात्पर गुरुदेवजी का कार्य अवतारी है । उसके कारण उनके मन में उत्पन्न होनेवाली जिज्ञासा समष्टि के कल्याण हेतु होती है । सूक्ष्म जगत के संदर्भ में उनके द्वारा किए गए शोधकार्य का बीज उनमें समाहित जिज्ञासु वृत्ति में है । मनोरोग विशेषज्ञ के रूप में कार्य करते समय उनके पास आनेवाले ७० प्रतिशत रोगी स्वस्थ हो जाते थे; परंतु शेष ३० प्रतिशत रोगी स्वस्थ नहीं होते, यह उनके ध्यान में आया । ये ३० प्रतिशत रोगी स्वस्थ क्यों नहीं होते, वे कहां जाकर स्वस्थ होते हैं; उन्होंने जिज्ञासा के साथ इसकी जानकारी ली । वे वहीं नहीं रुके, अपितु इन समस्याओं से ग्रस्त समाज के लोगों के लिए सरल एवं सामान्य उपचार-पद्धतियों का शोध कर उन्होंने उनके आध्यात्मिक कष्टों के निवारण हेतु स्वयंपूर्ण होने का मार्ग भी दिखाया । आध्यात्मिक कष्टों से पीडित कुछ लोग कष्टों के निवारण हेतु पाखंडी तांत्रिक-मांत्रिक के पास जाकर अपना समय, शक्ति और धन व्यय करते हैं । परात्पर गुरुदेवजी की खोजी उपचार-पद्धतियां व्यय रहित और सुलभ हैं । सैकडों लोगों ने इन उपचार-पद्धतियों का लाभ उठाकर उसके परिणाम का अनुभव किया है । इसके लिए इन उपचार-पद्धतियों का शोध करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के प्रति जितनी भी कृतज्ञता व्यक्त करें, अल्प ही है !

जिज्ञासा के कारण आध्यात्मिक उपचारों की जानकारी लेना !

     साधना में पदार्पण करने पर जिज्ञासा के कारण ही मुझे, ‘बीमारियों के कारण केवल शारीरिक एवं मानसिक नहीं; अपितु वे आध्यात्मिक भी होते हैं’, यह ध्यान में आया । तब मुझे ‘स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन’ करने का महत्त्व ध्यान में आया; क्योंकि उनका निर्मूलन करने से व्यक्ति सात्त्विक बन सकता है और सात्त्विक बनने पर उसके अधिकांश मानसिक कष्ट दूर हो जाते हैं । जब कष्ट नहीं होते, तब वे आध्यात्मिक कारणों से, उदा. ‘कुंडलिनीचक्र में व्याप्त बाधाओं के कारण तथा अनिष्ट शक्तियों की बाधाओं के कारण हो रहे हैं और उनका एकमात्र उपाय है साधना’, यह भी मुझे ज्ञात हुआ । इस कारण आयु के ४४ वें वर्ष में साधना में आने का महत्त्व मेरे ध्यान में आया और सम्मोहन चिकित्सा विशेषज्ञ के रूप में चिकित्सा करने के स्थान पर मैं मेरे गुरुदेवजी का पूर्णकालीन शिष्य बन गया । आगे साधना करने पर मुझे अनिष्ट शक्तियों के विविध प्रकार, उनके कार्य, मनुष्य जीवन एवं वातावरण पर पडनेवाले उनके प्रभाव, उनके द्वारा मनुष्य को कष्ट देने के कारण तथा उन कष्टों के लक्षण आदि विषयों का अध्ययन करना संभव हुआ । अनिष्ट शक्तियों के कष्ट पर उपाय के रूप में आध्यात्मिक उपचारों की अभिनव पद्धतियों का शोध करना मुझे संभव हुआ, उदा. ‘एक के पश्‍चात एक’ पद्धति से नामजप करना, शरीर में विद्यमान कुंडलिनीचक्रों के स्थान पर देवी-देवताओं के सात्त्विक चित्र अथवा नामजप-पट्टियां लगाना, मनुष्य को होनेवाली शारीरिक एवं मानसिक बीमारियां, साथ ही मुझे आध्यात्मिक कष्टों के निवारण हेतु उपयुक्त विविध उपचार-पद्धतियों का शोध करना भी संभव हुआ, उदा. रिक्त गत्ते के बक्सों से उपचार, प्राणशक्ति (चेतना) प्रणाली उपचार । अब इन उपचार-पद्धतियों पर आधारित ग्रंथ भी प्रकाशित हुए हैं । मुझमें विद्यमान जिज्ञासुवृत्ति के कारण ही यह सब संभव हुआ ।

– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

जिज्ञासा से कर्मयोग का शास्त्र ज्ञात होने के पर समाज को धर्मशिक्षित करना संभव

श्रीचित्‌शक्‍ति श्रीमती अंजली गाडगीळ

     ‘आज्ञापालन के साथ जिज्ञासा भी चाहिए’, यह परात्पर गुरु की सीख है । क्योंकि आज्ञापालन से व्यष्टि साधना होती है, तथा उसके साथ जिज्ञासा होने पर सारासार विचार करनेवाला विवेक उत्पन्न होता है, जिससे उचित कर्म होते हैं । जिज्ञासा से युक्त होकर प्रश्‍न करने पर संबंधित विषय का शास्त्र समझ में आता है । इससे, समाज को उस विषय में जागरूक कर धर्म की ओर मोडना सरल होता है । इस प्रक्रिया से समष्टि साधना होने के कारण हममें व्यापकता आती है । – (श्रीचित्शक्ति) श्रीमती अंजली गाडगीळ

रिक्त गत्ते के बक्सों से उपचार

     खाली बक्से में रिक्ति होती है और उस रिक्ति में आकाशतत्त्व होता है । परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने वर्ष २००५ में पहली बार गत्ते के बक्से में विद्यमान आकाशतत्त्व के कारण होनेवाले आध्यात्मिक उपचारों के संदर्भ में स्वयं प्रयोग किए । इस शोधकार्य के आधार पर ‘रिक्त गत्ते के बक्सों से उपचार’ की पद्धति का शोध किया ।

नामजप उपचार

     ‘शून्य’, ‘महाशून्य’, ‘निर्गुण’ एवं ॐ निर्गुणवाचक, इन शब्दों के जप, साथ ही ० से लेकर ९ अंकों के जप करने से भी विकार-निर्मूलन होने में सहायता मिलती है । संस्कृत भाषा में अंकजप करने पर वह अधिक प्रभावशाली होता है । ‘देवताओं के नामजप का प्रभाव बढाने हेतु नामजप के आरंभ अथवा अंत में १ अथवा २ बार ‘ॐ’ लगाना, साथ ही ‘एक के पश्‍चात एक’ नामजप करना एक अभिनव उपचार-पद्धति है ।

कुंडलिनीचक्र के स्थान पर देवता का चित्र अथवा नामजप-पट्टियां लगाना

     व्यक्ति के किसी कुंडलिनीचक्र से शरीर में प्रवाहित होनेवाली प्राणशक्ति के वहन में अवरोध उत्पन्न होने से उस कुंडलिनीचक्र से संबंधित अंगों में विकार उत्पन्न होते हैं । अतः उस कुंडलिनीचक्र के स्थान पर देवता का सात्त्विक चित्र अथवा नामजप-पट्टी लगाने से वहां चैतन्य पहुंचता है ।