स्वयं को मोक्षप्राप्ति की इच्छा रखने की अपेक्षा अन्यों को मोक्षमार्ग दिखाने की इच्छा व्यक्त करना
लगभग २० – २५ वर्ष पूर्व की बात है । उस समय मैं मुंबई में नहीं रहता था । दूसरे शहर से छुट्टियों में आता था । तब हमारी (मेरी और परात्पर गुरु डॉक्टरजी कीे) एक-दूसरे के साथ बातें होती थीं । एक बार ऐसे ही बातों-बातों में उन्होंने मुझे बताया, मुझे मोक्ष प्राप्त नहीं करना है, अपितु मुझे मोक्ष के मार्ग में स्थित मील का पत्थर बनना है । स्वयं मोक्षप्राप्त कर मुक्त होने के स्थान पर अनेक लोगों को मोक्ष का मार्ग दिखाने की हमारी इच्छा है । यह अत्यंत विलक्षण बात है । यह कोई सामान्य बात नहीं है । उस आयु में भी उनमें यह भावना थी कि मैं यहीं रहूंगा और सभी को मोक्ष का मार्ग दिखाकर उन्हें मोक्ष तक पहुंचाऊंगा; परंतु हम स्वयं के उद्धार हेतु तडपते रहते हैं और तब भी हमें मोक्ष प्राप्त नहीं होता ।
१. बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी परात्पर गुरु डॉक्टरजी !
१ अ. पतंग उडाना : परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी बचपन से ही हम भाई-बहनों में बहुत अलग ही थे । मैं उनके बचपन की एक घटना बताता हूं । हम ५ भाईयों में हम चारों को ही पतंग उडानी नहीं आती थी; परंतु उन्हें आती थी । बहुत बचपन से ही उनमें एक विलक्षण प्रतिभा थी ।
१ आ. पहली बार ही घूमता हुआ आकाशदीप बनाना : उनमें एक अलग ही आंतरिक प्रेरणा रहती थी । एक बार दीपावली के अवसर पर उन्होंने घर में लगाने के लिए घूमता हुआ आकाशदीप बनाया । उसके अंदर और बाहर एक-एक सिलिंडर था । उन पर अलग-अलग चित्र दिखाई देते थे, जो निरंतर घूमते रहते थे । उन्होंने स्वयं पहली बार और स्वयंप्रेरणा से ही यह बनाया था । तब ऐसा कुछ किया जा सकता है, यह बात हमारे ध्यान में भी नहीं आई थी ।
२. विलक्षण बुद्धिमत्ता
प्रत्येक बात को अलग प्रकार से करने की उनमें इच्छा होती थी । हम ५ भाईयों में वे सबसे अधिक बुद्धिमान हैं । उनका बुद्धिमानी सूचकांक (IQ) हम सभी में अधिक है । वे बचपन में अध्ययन में भी बहुत कुशाग्र थे । उन्हें मुंबई के ग्रैंट मेडिकल कॉलेज में प्रवेश मिला और वे डॉक्टर बन गए । यह बात कोई सामान्य नहीं है । प्रत्येक व्यक्ति यह साध्य नहीं कर सकता ।
३. जन्म से ही समाहित प्रेमभाव !
मेरा उनके साथ अधिक संपर्क नहीं रहा; क्योंकि मैं लगभग १७ – १८ वर्ष पहले से ही शिक्षा और उसके पश्चात नौकरी के कारण अन्य शहर में रहता था । वे मुझसे छोटे हैं । मैं अभियांत्रिकी महाविद्यालय में शिक्षा ले रहा था । तब उन्हें विद्यालय में कोई पुरस्कार राशि मिली थी । उन्होंने उसमें मेरे लिए एक घडी खरीदकर मुझे उपहार के रूप में भेजी ! तब मैं २० – २१ वर्ष का था और वे मुझसे ७ वर्ष छोटे हैं, इसका अर्थ १३ – १४ वर्ष की आयु में भी उनके मन में यह विचार आया कि मेरा भाई दूर रहता है; इसलिए मुझे उसे कोई भेंटवस्तु भेजनी चाहिए । सामान्य रूप में लोगों को मुझे कुछ तो मिलना चाहिए, ऐसा लगता है; परंतु अपनी वस्तु किसी को देने की वृत्ति नहीं होती; परंतु उनमें बचपन से ही किसी बात की आसक्ति नहीं थी ।
४. अहं न होना
सबसे बडी बात तो यह है कि इतने बडे आश्रम का निर्माण करना और उसमें इतने उपक्रम चलाना सर्वसामान्य लोगों की क्षमता के परे है । हम जैसे किसी व्यक्ति ने कोई घर भी खरीदा, तब हममें उसके प्रति कितना गर्व होता है ! मैंने किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा कुछ दिन उपयोग किया घर खरीदा था और उस पर एक मंजिल का निर्माण किया, तब मुझे अच्छा लगा; उस पर गर्व नहीं हुआ; परंतु मेरा घर बन गया, इस विचार से मन को संतोष हुआ । परात्पर गुरु डॉक्टरजी की प्रेरणा से इतने बडे-बडे आश्रम चल रहे हैं; परंतु उनके स्वयं के नाम पर एक भी नहीं है । उनमें अहं होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है ।
५. स्वभावदोष दूर करने के पश्चात ही आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग खुलता है, छोटी आयु में ही इसे जानना
परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने साधकों के स्वभाव में जो परिवर्तन लाया है, वह अत्यंत विलक्षणहै । मनुष्य के स्वभावदोष दूर होना ही मोक्षप्राप्ति हेतु सर्वाधिक आवश्यक सूत्र है, यह उन्होंने छोटी आयु में ही जान लिया था और मुझे यह समझने में इतने वर्ष लगे । उन्होंने उसे जानकर केवल स्वयं में ही परिवर्तन नहीं लाया, अपितु उन्होंने इतने साधकों को यह बात बताई और केवल बताई ही नहीं, उन्होंने साधकों से उस दिशा में प्रयास भी करवाए । इतनी बडी संख्या में साधकों को तैयार करनेवाले कोई गुरु अभी तक मेरी दृष्टि में तो नहीं आए हैं । यह अत्यंत विलक्षण और आश्चर्य की बात है । उन्होंने स्वभावदोष-निर्मूलन जैसी अत्यंत विलक्षण और अभिनव कल्पना की खोज कर जिस प्रकार साधकों को तैयार किया, वैसा अन्य कोई उदाहरण हो ही नहीं सकता ।
६. अनेक साधकों की आध्यात्मिक प्रगति करवाकर लेना
बडे-बडे संतों के पास भी शिष्य होते हैं; परंतु वे केवल २ – ४ शिष्य ही बना पाते हैं । परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने इतने साधकों की आध्यात्मिक उन्नति करवाकर ली कि उसे देखकर हमारी बुद्धि स्तब्ध रह जाती है । फरवरी २०२० तक गुरुकृपायोगानुसार साधना कर १०६ साधक संतपद पर विराजमान हुए हैं और १ सहस्र ८० साधकों ने ६० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया है और वे संतपद की ओर अग्रसर हैं । ऐसे परात्पर गुरु डॉक्टरजी और उनके सभी साधकों को मेरा प्रणाम !
७. साधकों द्वारा गीता में बताए सूत्रों का आचरण करवाकर उन्हें बंधनमुक्त करनेवाले परात्पर गुरु डॉक्टरजी !
परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने आप सभी साधकों को एक बहुत अच्छी बात सिखाई है । आप प्रत्येक कृत्य ईश्वर को नमस्कार कर आरंभ करते हैं और कार्य पूर्ण होने पर नमस्कार कर ही उसे बंद करते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है,
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
– श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९, श्लोक २७
अर्थ : हे कौंतेय (कुंतीपुत्र अर्जुन), तुम जो कर्म करते हो, जो खाते हो, जिसका हवन करते हो और जो दान में देते हो, वह मुझे समर्पित करो ।
गीता में भगवान की वैसी आज्ञा है । ऐसा करने से क्या होता है, यह उन्होंने आगे के श्लोक में बताया है,
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥
– श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९, श्लोक २८
अर्थ : इस तरह जिसमें सभी कर्म मुझे (भगवान को) अर्पित होते हैं, तुम ऐसे संन्यासयोग से युक्त चित्त हो, तो तुम शुभाशुभफलरूपी कर्मबंधन से मुक्त होगे और मुझे आकर मिलोगे ।
प्रत्येक कर्म का शुभ और अशुभ फल होता है । शुभाशुभ फल का अर्थ पुण्य और पाप ! उस पुण्य और पाप के कारण ही हम जन्म-मृत्यु के चक्र में फंस जाते हैं । इससे मुक्त होने हेतु हमारे द्वारा किया जानेवाला प्रत्येक कर्म भगवान को समर्पित करने से उस कर्म का त्याग होता है । उसके कारण हमारे संन्यास-कर्मयोग का आचरण होता है; क्योंकि संन्यास में त्याग होता है । उससे पाप-पुण्य और कर्मबंधन के परे जाकर उस बंधन से आप मुक्त होंगे और मुझे प्राप्त हो सकेंगे, ऐसा भगवान ने गीता में कहा है, उसे परात्पर गुरु डॉक्टरजी आप सभी साधकों से करवाकर ले रहे हैं । ऐसा करने से भगवान आपको मुक्ति प्रदान करेंगे ।
८. साधकों को निर्दोष बनने की शिक्षा देनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !
८ अ. कुछ वर्ष पूर्व रामनाथी आश्रम में पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्धनमठ पुरी पीठाधीश्वर श्रीमद् जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामीजी श्री निश्चलानंदसरस्वती महाराज पधारे थे । उस समय मैं यहां नहीं था, मुंबई रहता था । मैंने दैनिक सनातन प्रभात में उसका समाचार पढा था । उस समय उन्होंने कहा था, निर्दोषं हि समं ब्रह्म । (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ५, श्लोक १९) अर्थात सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम हैं ।
उसका अर्थ यह है, ब्रह्म निर्दोष है । ब्रह्म में कोई दोष अथवा विकृति नहीं होती । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर ये षड्रिपु हैं । वे ब्रह्म में होते ही नहीं और उन्होंने ब्रह्म का दूसरा गुण ब्रह्म सम है, ऐसा बताया है । क्रोध-द्वेष, शीत-उष्ण इन सभी में ब्रह्म सम रहता है । उसे किसी व्यक्ति अथवा किसी भी विशेष बात में रुचि नहीं होती । शंकराचार्यजी को रामनाथी आश्रम में निर्दोषं हि समं ब्रह्म । ऐसा कहना पडा होगा ? रामनाथी आश्रम में अवश्य ही जो निर्दोष और समवृत्ति के हैं, जो किसी से अधिक मित्रता नहीं करते और न ही किसी से द्वेष, ऐसे साधक दिखाई दिए होंगे, जिसके कारण उन्होंने ऐसा कहा होगा ।
तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ।
८ आ. निर्दोष एवं समवृत्ति के साधक ब्रह्म में स्थित होना : ऐसा होने से क्या होता है, यह उस श्लोक के अगले चरण में बताया गया है ।
तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः । – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ५, श्लोक १९
अर्थ : जिनका मन समभाव में स्थिर हो चुका हो, वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थिर होते हैं ।
समवृत्ति के कारण वे साधक ब्रह्म में ही स्थित होते हैं । जो निर्दोष हैं, जिनमें कोई भी स्वभावदोष नहीं है, उनमें समवृत्ति तो अपनेआप आती है । निर्दोषत्व एवं समवृत्ति एक ही सिक्के के २ पहलू हैं । यदि समवृत्ति संपूर्णरूप से आई हो, तो मनुष्य निर्दोष होगा अथवा संपूर्ण निर्दोषत्व हुआ, तो अपनेआप समवृत्ति का होगा । जो साधक निर्दोष और समवृत्ति के हुए, तो वे ब्रह्म में ही लीन रहते हैं । शंकराचार्यजी ने इसीलिए आश्रम में रहनेवाले आप सभी साधकों को देखकर ही ऐसा कहा होगा । उन्होंने निर्दोषत्व का महत्त्व बताया; क्योंकि यही साधना का मूल है । हम जब भक्ति करते हैं, पूजा करते हैं, जप करते हैं; तब क्या होता है ? हमने १० बार नामजप करने का संकल्प लिया, १ सहस्र बार करने का संकल्प लिया और १ लाख नामजप करने का संकल्प लिया, तब भी भगवान उससे प्रसन्न नहीं होते; परंतु जब हम ध्यान देकर नामजप करते हैं और जब हमारा लक्ष्य गृहस्थी से संबंधित बातों में लिप्त न रहकर भगवान की ओर मुड जाता है, तब चित्त में विकृति नहीं रह जाती । वह बढता जाता है और धीरे-धीरे उसकी प्रवृत्ति मनुष्य विकृतिविहीन बना देती है ।
८ इ. किसी भी साधनामार्ग से साधना की, मनुष्य को निर्दोष बनाना ही साधना का उद्देश्य होना : प्रत्येक साधना में यही उद्देश्य होता है, चाहे वह भक्तिमार्ग हो अथवा पतंजलयोग; जिसे योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।(पातञ्जलयोगदर्शन, समाधिपाद, सूत्र २) अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का निरोध करता है, ऐसा कहा गया है । चित्त की वृत्तियां क्या होती हैं ? यों मन में आनेवाले असंख्य अच्छे-बुरे सभी विचारों को रोकता है । सभी विचार यदि रुक गए, तो दोष कहां रहेंगे ? प्रत्येक साधना का उद्देश्य मनुष्य को निर्दोष बनाना ही होता है; परंतु जब हम निष्काम कर्म करेंगे, तो हमारे मन में विकृति ही नहीं रहेगी । यह मूल सूत्र है और परात्पर गुरु डॉक्टरजी आपसे प्रत्यक्ष यही करवाकर ले रहे हैं ।
आप सभी को ऐसे उच्च कोटि के गुरु मिले हैं । उन्हें मेरा प्रणाम !
– पूज्य अनंत आठवले (परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के बडे भाई), ढवळी, फोंडा, गोवा (२७.६.२०१९)
(पू. अनंत आठवलेजी द्वारा उनके संत-सम्मान समारोह के समय बताए सूत्र)