साधको, अनुभूतियां तथा सीखने मिले सूत्रों को लिखकर देने के लाभ समझ लो व तत्परता से लिखकर दो !

‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी साधकों को उन्हें प्राप्त अनुभूतियां तथा सीखने मिले सूत्र लिखकर देने के लिए कहते हैं । ऐसे सूत्र लिखकर देने से साधकों को होनेवाले लाभ यहां दिए हैं ।

डॉ. दुर्गेश सामंत

१. लेखन का प्रकार तथा उसके लाभ

१ अ. अनुभूतियों के विषय में लिखकर देना : साधकों द्वारा अनुभूतियां लिखकर देने से उनकी श्रद्धा वृद्धिंगत होने में सहायता मिलती है ।

१ आ. सहसाधकों के संदर्भ में लिखकर देना : साधकों द्वारा अन्य सहसाधकों की ध्यान में आई गुणविशेषताएं लिखकर देने से ‘उनके साथ तुलना करना, उस साधक के प्रति मन में स्थित पूर्वाग्रह’, जैसे संबंधित साधकों में स्थित स्वभावदोष न्यून होने में सहायता मिलती है । इतना ही नहीं, कुछ मात्रा में अन्य साधकों के प्रति नकारात्मक भावना न्यून होने में सहायता मिलती है ।

१ इ. संतों के संदर्भ में लिखकर देना : साधकों द्वारा संतों के विषय में लिखकर देने से संतों के प्रति कृतज्ञभाव में वृद्धि होती है ।

१ ई. सीखने मिले सूत्र : साधक जब सीखने मिले सूत्र लिखकर देते हैं, उससे उनकी सीखने की वृत्ति में वृद्धि होती है । उनके मन की ‘क्या और कैसे सीखना चाहिए ?’, यह प्रक्रिया अधिक सहजता से होती है ।

१ उ. व्यावहारिक जीवन में अनुभव किए किसी प्रसंग के विषय में लिखकर देना : किसी नकारात्मक स्थिति (उदा. सरकारी कार्यालय में चलनेवाला भ्रष्ट कार्य) का अनुभव हुआ हो, तो मन पर उसका परिणाम होता है । उस विषय में लिखकर देने से साधकों में तटस्थता आने में सहायता मिलती है, साथ ही आगे चलकर ऐसा कोई प्रसंग हुआ, तो उसका सामना करने की तैयारी अपनेआप होती है ।

२. अन्य लाभ

२ अ. स्वयं में अनुशासन आना : साधक स्वयं के नाम से लिखकर देते हैं; इसलिए वे उसे व्यवस्थित लिखकर देने का प्रयास करते हैं । इससे साधकों में अनुशासन लाने का भान उत्पन्न होता है ।

२ आ. विचारों में स्पष्टता आना : साधकों के द्वारा उनके मन के विचारों को लेखन के माध्यम से रखने का प्रयास किए जाने के कारण उनके विचारों में सूत्रबद्धता, साथ ही सुस्पष्टता लाने का प्रयास अपनेआप होता है ।

२ इ. लेखन का संकलन होने से मन को दिशा मिलना : साधकों द्वारा दिया लेखन आगे चलकर अन्य साधक जांचते हैं; इससे उनकी ओर से लेखन का विवरण अथवा अभावों के संदर्भ में पूछा जाता है । उससे साधकों को सीखने मिलता है ।

२ ई. मन में उचित भावों का पोषण होना : हमारे मन में कोई उचित विचार हो, तो उसके साथ कुछ भावना तो आती ही है । हमारे मन में वह विचार जितना पुनः-पुनः आएगा, उतना उस संदर्भ में भावना का पोषण होगा । हमारे मन में भावना का पोषण होने से वह विचार और दृढ होता रहता है । विचार एवं भावना के मध्य का यह संबंध मन पर संस्कार उत्पन्न करता है । साधकों द्वारा लिखकर देने से उत्पन्न विचारों की सुस्पष्टता के कारण उचित सूत्र एवं भावनाएं दृढ हो जाती हैं ।

२ उ. साधकों द्वारा लिखकर देने से वह भगवान को समर्पित हो जाता है, उस समय साधकों को हल्कापन लगता है । इससे साधक अगले चरण में पहुंच जाते हैं ।

२ ऊ. संतुष्टि मिलना : साधकों द्वारा सूत्र लिखकर देने के कारण उन्हें एक प्रकार की संतुष्टि प्रतीत होती है ।

२ ए. जैसे ‘कीर्तन करना’ एक प्रकार की भक्ति है, उसी प्रकार  ‘इस प्रकार का लेखन करना’ भी एक प्रकार की भक्ति है ।

– डॉ. दुर्गेश सामंत, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (११.४.२०२४)