कोलकाता उच्च न्यायालय और समयसीमा में आरोपपत्र प्रविष्ट करने में ढिलाई !

(पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी

१. बंगाल में सहस्रों प्रकरणों में समयसीमा में आरोपपत्र प्रविष्ट न किए जाने से अपराधियों को अनुचित लाभ होना

‘समयसीमा में आरोपपत्र प्रविष्ट न करने के कारण ‘डिफॉल्ट बेल’ पर छोड दिया जाए, इस हेतु बंगाल उच्च न्यायालय की जलपाईगुडी खंडपीठ में एक आरोपी द्वारा याचिका प्रविष्ट कीगई । इस पृष्ठभूमि पर उच्च न्यायालय ने पुलिस को आदेश दिया कि ‘आरोपपत्र प्रविष्ट न किए गए प्रकरणों का ब्योरा प्रस्तुत करें ।’ तब लगभग ९९९ प्रकरणों में समयसीमा में आरोपपत्र प्रविष्ट नहीं किए गए, न्यायालय को ऐसी जानकारी प्राप्त हुई । यह पूर्ण जानकारी बंगाल के अपराधों के विषय में थी ।

‘क्रिमिनल प्रोसिजर कोड’ (दंड प्रक्रिया संहिता) की धारा १६७ के अंतर्गत, जिन अपराधों में १० वर्ष अथवा आजीवन कारावास का दंड होने की संभावना है, ऐसे अपराधों में ९० दिन के भीतर आरोपपत्र प्रविष्ट करना आवश्यक होता है । साथ ही ‘जिन अपराधों में दंड १० वर्ष से अल्प (कम) है, उन अपराधों में ६० दिनों के भीतर आरोपपत्र अंतिम (फाइनल) कर प्रविष्ट करें’, ऐसा नियम है । आरोपपत्र प्रविष्ट नहीं किए गए, तो उस दिन से आरोपी प्रतिभू (जमानत) का पात्र हो जाता है अथवा न्यायालय प्रतिभू देने का आदेश दे सकता है ।

समयसीमा में आरोपपत्र प्रविष्ट न किए गए प्रकरणों का ब्योरा भयावह और चिंताजनक था । इसलिए न्यायालय द्वारा यह ब्योरा मुख्य न्यायमूर्ति के समक्ष प्रस्तुत करने के आदेश दिए गए । आगे यह ब्योरा जनहित याचिका के रूप में स्वीकार किया गया । उस पर राज्य सरकार के कथन की मांग करने पर राज्य के महाधिवक्ता ने पुलिस अर्थात सरकार की ओर से तर्क प्रस्तुत किए । तदुपरांत न्यायालय ने उन्हें ९९९ प्रकरणों में समयसीमा के भीतर आरोपपत्र प्रविष्ट न करने का कारण पूछा । तदनुसार महाधिवक्ता ने कारण प्रस्तुत किए ।

२. पुलिस द्वारा न्यायालय के समक्ष आरोपपत्र प्रविष्ट न करने के विविध कारण प्रस्तुत करना

अनेक प्रकरणों में जांच लंबित अथवा अपूर्ण थी । इसलिए आरोपपत्र प्रविष्ट नहीं किए गए । कुछ प्रकरणों में वैज्ञानिक प्रयोगशाला से ही ब्योरा प्राप्त नहीं हुआ था । कुछ प्रकरणों में संबंधित विषयों के विशेषज्ञों का ब्योरा आवश्यक होता है, उदा. हस्ताक्षर विशेषज्ञ का ब्योरा नहीं आया तो आरोपपत्र प्रविष्ट नहीं हो सकता । कुछ प्रकरणों में अरोपी फरार होने के कारण जांच अपूर्ण थी । ऐसे विविध कारणों से इन प्रकरणों में आरोपपत्र प्रविष्ट करना संभव नहीं हुआ, पुलिस तथा सरकार द्वारा ऐसा बताया गया ।

अनेक प्रकरण ऐसे भी होते हैं जिन्हें चलाने के लिए क्रिमिनल प्रोसिजर कोड की धारा १९७ के अंतर्गत केंद्र सरकार, राज्य सरकार अथवा राज्य के उत्तरदायी अधिकारी की अनुमति आवश्यक होती है । वह अनुमति मिलने में अनेक माह का समय लगता है । इस कारण भी आरोपपत्र समयसीमा में प्रविष्ट नहीं किए जाते ।

३. न्यायालय द्वारा राज्य के सभी स्तर के न्यायालयों से ऐसे प्रकरणों की जानकारी मांगना

न्यायालय ने समयसीमा में आरोपपत्र प्रविष्ट न करने के सभी कारणों को समझा । तदुपरांत न्यायालय ने पुलिस से पूछा, ‘क्या समयसीमा में आरोपपत्र प्रविष्ट करने के लिए मूलभूत सुविधा उपलब्ध है ?’ साथ ही ‘उसके लिए आपको सहायता चाहिए हो तो आपका क्या नियोजन है ? अभियोग चलाने के लिए जिन अधिकारियों से अनुमति मांगी गई थी, उन्होंने वह अभी तक क्यों नहीं दी ? क्या राज्य की जांच प्रयोगशालाओं में पर्याप्त कर्मचारी और मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं ?’, न्यायालय ने ऐसे विविध प्रश्न किए । ‘जिला और तहसील स्तर के न्यायालयों में कितने प्रकरणों में अभी तक आरोपपत्र प्रविष्ट नहीं हुए हैं, उनमें क्या बाधाएं हैं ?’, न्यायालय ने यह भी पूछा । साथ ही इस संदर्भ में सभी जानकारी न्यायालय में प्रस्तुत करने का आदेश दिया गया । न्यायालय ने यह आदेश उच्च न्यायालय के जालस्थल पर प्रकाशित करने के लिए कहा ।

४. पुलिस द्वारा न्यायालय में समयसीमा में आरोपपत्र प्रविष्ट न करने के बताए गए कारणों की वास्तविकता और अपराधियों द्वारा उससे उठाया जानेवाला अनुचित लाभ !

अनेक प्रकरणों में ऐसा प्रतीत होता है कि आरोपियों को प्रतिभू मिले अथवा वे निर्दोष मुक्त हों इस हेतु कुछ भी कारण बताकर पुलिस समयसीमा में आरोपपत्र प्रविष्ट नहीं करती । कुछ प्रकरणों में सरकारी कर्मचारियों ने घूस ली हो तो उनके विरुद्ध शीघ्र निर्णय न हो, कुछ विभागप्रमुखों की ऐसी मानसिकता रहती है । इसलिए अभियोग चलाने के लिए धारा १९७ के अंतर्गत जो अनुमति आवश्यक है, वह लंबित रखी जाती है । अनेक बार पुलिस पर कार्य का अतिरिक्त तनाव रहता है । इसलिए फौजदारी अभियोगों की जांच समय में पूर्ण न होने के कारण आरोपपत्र प्रविष्ट नहीं होते । अपराधी इसका अनुचित लाभ उठाते हैं । कभी-कभी प्रतिभू मिलने पर अपराधी फरार हो जाते हैं ।

५. एक राज्य में केवल आरोपपत्र हेतु १ सहस्र से अधिक अभियोग लंबित रहना दयनीय !

इन सभी बाधाओं को ध्यान में रखकर ‘जांच प्रणाली का एक स्वतंत्र विभाग बनाएं और उसके कर्मचारी वर्ग को अन्य कोई कार्य न दें’, विधि आयोग, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय ने इसके पूर्व समय-समय पर केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को ऐसा आदेश दिया है । जिन प्रकरणों में पुलिसकर्मी को किसी को फंसाना हो, वहां वे सोच-समझकर समयसीमा में आरोपपत्र प्रविष्ट करते हैं । इसलिए आरोपी को धारा १६७ अनुसार ‘डिफॉल्ट बेल’ नहीं मिलती । इससे यह समझ में आता है कि केवल बंगाल में यदि आरोपपत्र के लिए १ सहस्र से अधिक प्रकरण लंबित हैं, तो पूरे देश की क्या स्थिति होगी; इस विचार से ही भय लगता है ।

६. ‘प्रकाश सिंह विरुद्ध केंद्र सरकार’ प्रकरण में सर्वाेच्च न्यायालय का निर्णय !

६ अ. पुलिस दल में परिवर्तन हेतु तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट ! : १९९६ में प्रकाश सिंह असम के पुलिस महासंचालक थे । फिर वे उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिरीक्षक के पद पर नियुक्त हुए । उन्होंने प्रत्येक स्थान पर सर्वाेत्कृष्ट कार्य किया है । पुलिस दल में आमूल परिवर्तन हो, पुलिस तंत्र स्वतंत्रता से कार्यरत रहे, पीडितों को सहायता व न्याय मिले, ऐसी थी श्री. सिंह की लगन ! पुलिस विभाग से सेवानिवृत्त होने पर उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका प्रविष्ट की, जिसमें पुलिस कानून पुराना होने के कारण उसमें आमूल-चूल परिवर्तन आवश्यक हैं, न्यायालय को उन्होंने यह बताया ।

६ आ. वर्ष २००६ में इस प्रकरण का निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण सूत्रों की प्रविष्टि की ।

१. सुरक्षा और जांच हेतु आवश्यक पुलिस अलग-अलग हो । जांच का कार्य करनेवाली पुलिस का कर्मचारी वर्ग स्वतंत्र हो । उच्चपदस्थ अधिकारी और अति महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा हेतु मंडल अथवा आयोग स्थापित कर निश्चित अधिकारी और कर्मचारियों की नियुक्ति करें । साथ ही उन्हें विविध प्रकार के अद्यतन मार्गदर्शन प्रदान किए जाएं ।

२. पुलिस को उसका कार्य उचित प्रकार से करने के लिए जो प्रयोगशाला आवश्यक हो अथवा विशेषज्ञों का ब्योरा प्राप्त होने हेतु जो मूलभूत व्यवस्था आवश्यक है, वे सभी उन्हें उपलब्ध करवाई जाएं ।

३. पुलिस के पास पुराने शस्त्र होते हैं तथा अपराधियों के पास एके ४७, एके ५६ जैसी अत्याधुनिक बंदूकें होती हैं ! वर्तमान में अनेक अपराधी इंटरनेट के माध्यम से चतुराई से अपराध कर रहे हैं । ऐसे साइबर अपराधों का ज्ञान अधिकांश पुलिसकर्मियों को नहीं होता है । इसलिए पुलिस को मूलभूत सुविधा देना राज्य और केंद्र सरकार का कर्तव्य है ।

४. ‘पुलिस एस्टैब्लिशमेंट बोर्ड’ हो और उसमें विविध स्तर के अधिकारी नियुक्त किए जाएं । पुलिस विभाग की एक अलग ही कार्यपद्धति है । उसमें परिवर्तन करने के लिए आयोग अथवा बोर्ड की आवश्यकता है ।

५. सर्वप्रथम पुलिस उपमहानिरीक्षक और पुलिस महानिरीक्षक का कार्यकाल निश्चित करें । इससे निश्चित स्थान पर नियुक्ति होने पर वहां सुधार करने के लिए उस अधिकारी को पर्याप्त समय मिलेगा । वर्तमान स्थिति में जब पुलिस अधिकारियों की पदोन्नति होती है, तब वे अधिकारी सेवानिवृत्ति के स्तर पर होते हैं । इसलिए पुलिस विभाग में सुधार करने के लिए उन्हें अल्प अवधि मिलती है । इससे बचने के लिए न्यायालय ने ऐसा सुझाव दिया कि प्रत्येक बडे अधिकारी को न्यूनतम २ वर्ष प्राप्त हों इस प्रकार उनका कार्यकाल सुनिश्चित करें ।

७. न्यायालय द्वारा पुलिस शिकायत प्राधिकरण स्थापित करने का आदेश ! 

पुलिस बंदीगृह में होनेवाला शोषण गंभीर है । ऐसे में पुलिस की कार्यपद्धति के विषय में आपत्ति दर्ज करने और उनके शोषण पर कार्यवाही करने हेतु एक स्वतंत्र व्यवस्था हो, इस उद्देश्य से ‘पुलिस शिकायत प्राधिकरण’ स्थापित करे, न्यायालय ने ऐसा आदेश दिया ।

हम देखते हैं कि आरोपियों के साथ पुलिस बहुत बुरा आचरण करती है । निरपराधियों को झूठे अपराधों में फंसाया जाता है, तथा सहआरोपी न बनाने के लिए घूस मांगी जाती है । ऐसे सभी प्रकरणों में हम पुलिस शिकायत प्राधिकरण को शिकायत कर सकते हैं । हिन्दुत्वनिष्ठ व गोरक्षक इसका लाभ ले सकते हैं ।

८. निरपराधियों पर हो रहे अन्याय रोकने हेतु ‘प्रकाश सिंह विरुद्ध केंद्र सरकार’ निर्णय का पालन करना आवश्यक !

सर्वोच्च न्यायालय एवं विविध उच्च न्यायालयों ने अभियोगों की सुनवाई करते हुए पुलिस विभाग और विविध कानूनों में सुधार करने हेतु केंद्र व राज्य सरकारों को आदेश दिए हैं । तदनुसार कानून में अनेक सुधार किए गए । दुर्भाग्य की बात यह कि बंगाल का निर्णय या पूर्व पुलिस आयुक्त परमबीर सिंह के प्रकरण में न्यायालय का निर्णय देखें तो ध्यान में आता है कि २००६ में सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा ‘प्रकाश सिंह विरुद्ध केंद्र सरकार’ प्रकरण में केंद्र सरकार और सभी राज्यों को जो निर्देश दिए गए, उनका पालन अभी तक नहीं किया गया है । आरोपी इसका अनुचित लाभ उठा रहे हैं । जिन्हें पुलिस ने जानबूझकर कारागृह में बंदी बनाया है, उनकी अधिक हानि हो रही है । यदि ऐसा लगता है कि यह सब कहीं तो रुके, तो ‘प्रकाश सिंह विरुद्ध केंद्र सरकार’ निर्णय का पालन आवश्यक है ।’

– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, संस्थापक सदस्य, हिन्दू विधिज्ञ परिषद और अधिवक्ता, मुंबई उच्च न्यायालय (१३.६.२०२१)