भगवान के प्रति पूर्ण शरणागत एवं भोलेभाव में रहनेवाले रामनगर (बेलगांव) के सनातन के ५६ वें संत पू. शंकर गुंजेकर !

महर्षि अध्‍यात्‍म विश्‍वविद्यालय की ६८ प्रतिशत स्‍तरप्राप्‍त साधिका कु. प्रियांका लोटलीकर द्वारा रामनगर (बेलगांव) के सनातन के संत पू. शंकर गुंजेकर के साथ ‘साधना का प्रवास’ विषय में हुआ संवाद यहां दिया है ! आज माघ शुक्‍ल पक्ष अष्‍टमी को तिथि के अनुसार पू. गुंजेकरमामा का जन्‍मदिन है ! इस उपलक्ष्य में यह लेख प्रकाशित कर रहे हैं ।
(भाग १)

पू. शंकर गुंजेकरजी को जन्‍मदिवस के उपलक्ष्य में सनातन परिवार की ओर से कृतज्ञतापूर्वक नमस्‍कार !

 

पू. शंकर गुंजेकर

१. परिस्‍थिति चाहे कैसी भी हो, ईश्‍वर के प्रति श्रद्धा कभी अल्‍प न होना, अपितु ईश्‍वर के प्रति बहुत आकर्षण रहना

कु. प्रियांका लोटलीकर : प्रणाम मामा, आज सुबह मैं ईश्‍वर को पूछ रही थी; ‘मैं पू. शंकरमामा से (पू. शंकर गुंजेकरजी से) पहली बार बातें करनेवाली हूं ।
उसका आरंभ कैसे करूं ?’ तब मुझे प.पू. बाबा का (प.पू. भक्‍तराज महाराज का) एक भजन याद आया । ‘सावत्‍या माळ्‌याने हो, माळ्‌याने हो, माळ्‌याने लावला मळा ।’, उस समय मुझे सावता माळी के स्‍थान पर आप ही दिखाई दिए ।

पू. शंकरमामा (हंस कर) : मुझे भगवान की बहुत चाह एवं उनके प्रति आकर्षण था । मार्ग में श्री गणेशजी की कोई भी मूर्ति दिखाई दी अथवा उदबत्ती के (वेष्‍टन)पाकिट पर, पत्रिका पर, कहीं भी भगवान का चित्र दिखाई दिया, तो मैं उसे ले लेता । लोग कहते थे, ‘ये कैसे पागल समान भगवान के छायाचित्र संग्रहित करता है ?’ इसलिए जब वे दूसरी ओर देखते थे, तब मैं धीरे से भगवान के छायाचित्र उठा लेता था । खेत में घास की कुटिया की दीवाल पर ये छोटे-छोटे छायाचित्र आटे से चिपकाया करता था । तत्‍पश्‍चात उस दीवाल को लीपने की आवश्‍यकता ही नहीं थी; क्‍योंकि उस पर नीचे से ऊपर तक भगवान के छायाचित्र चिपका दिए थे । ईश्‍वर के प्रति मेरा आकर्षण देखकर मेरे पिताजी ने मुझे ग्रामदेवता की पूजा करने के लिए कहा था; परंतु कभी-कभी परिस्‍थिति के कारण पिताजी बडे कष्‍ट से मुझे कहते थे, ‘तुम भगवान की इतनी भक्‍ति करते हो; परंतु ईश्‍वर ने तुम्‍हें ऐसा क्‍यों बनाया ? अब तुम पूजा करना छोड दो ।’ तब मैं उन्‍हें कहता था, ‘पिताजी ऐसा मत कहिए, पिछले जन्‍म का कुछ होगा’ ।

 

 पू. शंकर गुंजेकरजी से संवाद करते हुवे कु. प्रियंका लोटलीकर (वर्ष २०१६)

२. सनातन संस्‍था से परिचय

ऐसा करते हुए १५ वर्ष बीत गए । इन १५ वर्षो में हम ऋणमुक्‍त भी हो गए । सदैव काम करते करते आंखों का निचला भाग काला हो गया । मेरे परिचित व्‍यक्‍ति को सनातन के साधक मिलते थे । उनसे मैं ईश्‍वर के विषय में जानकारी लेता था, वे भी ऊब गए । ‘यह प्रतिदिन आता है एवं ईश्‍वर के विषय में पूछता है ।’ उन्‍होंने मुझसे कहा, ‘सनातन के साधक टोपी पहनकर आते हैं एवं ईश्‍वर के संबंध में बताते हैं । मैं उनसे आपकी भेंट करवा देता हूं ।’ पश्‍चात मैंने कहा, ‘मुझे बताएं, वे कौन लोग हैं । क्‍या वे लोग पैसे लेते हैं ?’’ तब उन्‍होंने कहा, ‘मुझे पता नहीं ।’ तत्‍पश्‍चात मैंने कहा, ‘यदि लेते हैं तो लें । मैं किसी से भी पैसे लेकर २०० रु. तक देता हूं ।’ तत्‍पश्‍चात मैंने घर आकर मां से पूछा कि सनातन के साधक ईश्‍वर के विषय में बताते हैं । क्‍या हम उन्‍हें अपने घर बुलाएं ? मां ने कहा, ‘सोमवार को बुलाओ ।’ तत्‍पश्‍चात मैंने सनातन के साधकों को सोमवार को घर पर आमंत्रित किया ।

३. माता-पिता का बहुत अच्‍छे संस्‍कार करने से मन में न अनुचित विचार भी न आना

कु. प्रियांका लोटलीकर : आपके घर की परिस्‍थिति इतनी विकट थी, अत: इतनी विकट परिस्‍थिति में क्‍या कभी अनुचित मार्ग से धनार्जन का विचार आपके मन में आया ?

पू. शंकरमामा ः एक दिन भी ऐसा विचार मन में नहीं आया । ‘किसी को फंसाना अथवा चोरी करना’, ऐसा कुछ भी न करने का मेरा मन था ।

कु. प्रियांका लोटलीकर : ‘जो कुछ भी होगा अपने भाग्‍य से ही होगा’, ऐसा प्रतीत होने के कारण ‘ईश्‍वर ही सब कुछ कर रहे हैं’, इसका भान था ।

पू. शंकरमामा ः पिताजी ने भी मुझे कहा था, ‘जब तक मैं हूं तब तक किसी का बुरा सोचना नहीं और करना भी नहीं । बुरे मार्ग पर जाना नहीं । परिस्‍थिति चाहे जैसी हो, मैंने जैसा किया वैसा तुम भी करो ।’ उनके ये शब्‍द मैंने ध्‍यान में रखे ।

कु. प्रियांका लोटलीकर : मां और पिताजी ने अच्‍छे संस्‍कार किए ।

पू. शंकरमामा ः वे भगवद़्‍भक्‍त ही थे ।

४. भगवान से बात करना एवं भगवान का दर्शन होना

पू. शंकरमामा ः यदि कल हम पर संकट आनेवाला है, तो शंकर (भगवान) मुझे पहले ही सूचित करते थे ।

कु. प्रियांका लोटलीकर : अर्थात भगवान शंकरजी से आपकी प्रत्‍यक्ष बातें होती थीं ।

पू. शंकरमामा ः हां ।

कु. प्रियांका लोटलीकर : आपको भगवान कैसे दिखाई देते थे ?

पू. शंकरमामा ः सपने में दिखाई देते थे । जब मैं पलंग पर आंख बंद कर सोता था, तब मुझे प्रतीत होता था कि भगवान शंकर मुझसे बातें कर रहे हैं । शंकर कहते थे, ‘देखो, वहां जाकर देखो क्‍या किसी ने कुछ रखा है ?’ वहां जाकर देखने पर मुझे वह वस्‍तु मिल जाती थी । रामनगर से ८ किमी दूरी पर वैजगांव है, उस गांव में मैं खेती करता था । वहां के लोग अच्‍छे नहीं हैं । खेत पर मारने के लिए भी आते हैं । एक बार मेरा बैल खेत से भाग गया । वह दूसरे किसी के खेत में गया, तो लोग मुझे अपशब्‍द कहेंगे, इसलिए मुझे भय लगा । मैं उसके कदम ढूंढते हुए उसके पीछे-पीछे जंगल में गया । आधा जंगल पार होते ही मुझे शंकर भगवान की पिंडी दिखाई दी । ‘पूर्व काल में पंडितों ने बनाई होगी’, ऐसा मान कर मैंने उसे हाथ लगा कर प्रणाम किया । एक प्रदक्षिणा अर्पण कर ‘हमारा बैल कहां गया ? मुझे पता नहीं, मुझे वह मिल जाए’, ऐसी प्रार्थना की । थोडा आगे जाने पर उस ओर से हमारा बैल आता दिखाई दिया । मैं बैल को लेकर गांव आया एवं गांव के लोगों से पूछा, ‘क्‍या इस जंगल में शिव की कोई पिंडी है ?’ उन्‍होंने कहा, ‘नहीं ।’

कु. प्रियांका लोटलीकर : पिंडी कितनी बडी थी ?

पू. शंकरमामा ः बहुत बडी थी । अनुमानतः १० फूट ऊंची होगी । उसकी गोलाई भी बडी थी । मुझे उसे देखने के लिए सर ऊपर करना पड रहा था, परंतु गांव के लोगों ने मना किया था, इसलिए दूसरे दिन पुन: जंगल में जाकर देखा, तो वहां पर पिंडी नहीं थी ।

कु. प्रियांका लोटलीकर : अरे बाप रे ! अर्थात प्रत्‍यक्ष शिव ने ही दर्शन दिए ।

५. ‘झगडे करने से भगवान घर से निकल जाएंगे’, इस विचार से झगडे न करने का निश्‍चय करना, तब भी झगडे होना एवं उस समय शंकर भगवान का प्रत्‍यक्ष दर्शन होना

पू. शंकरमामा ः हमारी बहनें कुछ भी बहाना कर झगडे किया करती थीं । तब शंकर भगवान ने मुझे कहा, आपके घर में प्रतिदिन झगडे होते हैं, मैं वहां नहीं रहूंगा । मेरे लिए पडोस में एक देवालय का निर्माण कर देना; मैं वहां रहूंगा ।

कु. प्रियांका लोटलीकर : क्‍या घर में शंकरजी की पिंडी थी ?

पू. शंकरमामा ः नहीं । ‘भगवान घर से बाहर जाएंगे’, इस विचार से मुझे बुरा लगता था । मैंने शंकर भगवान से कहा, ‘मैंने इतनी भक्‍ति कर आपको प्रसन्‍न कर लिया । अब आपको घर पर ही रहना है, बाहर जाना नहीं है । मैं सबसे कह देता हूं, अब कोई झगडा नहीं करेगा; परंतु आप घर पर ही रहें ।’ तत्‍पश्‍चात बहनों से कहा कि आप झगडे न करें अन्‍यथा शंकर भगवान कहते हैं कि उन्‍हें झगडा करना बिलकुल अच्‍छा नहीं लगता । तब बहनों ने भी कहा कि हां, हम अब झगडे नहीं करेंगे । उस समय मुझे ऐसा ज्ञात नहीं था, अब सनातन में सभी सिखाते हैं । तब मुझे स्‍वभावदोष इत्‍यादि कुछ समझ में आता नहीं था । मैं यह सब मन से ही करता था । दूसरे दिन पुन: दोनों के झगडे आरंभ हो गए । उस समय मैं दूसरे कमरे में था । उनमें से भगवान शंकरजी आए एवं मेरे सामने आकर खडे हो गए । उस दिन मैंने शिवजी को प्रत्‍यक्ष रूप में देखा । बहनों को वे दिखाई नहीं दिए; परंतु वे मुझे पूछेंगे कि आप झगडे नहीं करनेवाले थे ना ? तो अब कैसे झगडे करने लगे ? ऐसा सोच कर मैंने सर ऊपर करके उन्‍हें देखा ही नहीं । धीरे से बाजू से देखा ।

कु. प्रियांका लोटलीकर : कैसे देखा ?

पू. शंकरमामा ः मैं सर नीचे कर रुक गया । मुझे शंकर भगवान के केवल चरण दिखाई दिए । उनके गले में पहना हार नीचे चरणों तक आया था । शंकर भगवान अच्‍छे गोरे रंग के एवं सुंदर दिखाई दे रहे थे । वे आधा घंटा रुके थे । तत्‍पश्‍चात पांव नहीं दिखाई दिए, इसलिए मैंने ऊपर देखा ।

कु. प्रियांका लोटलीकर : क्‍या आपने उनकी ओर मुड कर नहीं देखा ?

पू. शंकरमामा ः मैं घबरा गया था, अतः नहीं देखा । शंकरजी के जाने के पश्‍चात मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि अरे, मैं कितना पापी हूं ! ईश्‍वर के मेरे सामने आने पर भी मैंने उनका मुखमंडल नहीं देखा ।

कु. प्रियांका लोटलीकर : क्‍या आपको शंकरजी के वल्‍कल दिखाई दिए ?

पू. शंकरमामा ः हां, घुटने से नीचे अच्‍छी तरह देखा । हार श्‍वेत रंग का था ।

कु. प्रियांका लोटलीकर : और चरण कैसे थे ?

पू. शंकरमामा ः पांव बडे, गोरे एवं गुदगुदे थे । अनेक बार भगवान के दर्शन पानेवाले पू. शंकरमामा गुंजेकर !

कु. प्रियांका लोटलीकर : आपको ईश्‍वर ने अनेक बार दर्शन दिए हैं न ?

पू. शंकरमामा ः हां, ईश्‍वर ने मुझे अनेक बार दर्शन दिए ।

कु. प्रियांका लोटलीकर : ‘देवताआें के दर्शन होते हैं’, ऐसा हमने केवल कथाआें में सुना है; परंतु आपको तो प्रत्‍यक्ष दर्शन हुए हैं ।

पू. शंकरमामा ः हां, अब घर में सामने ही भगवान शंकरजी का छायाचित्र लगाया है । मैं उसके सामने खटिया पर बैठता हूं एवं भगवान शंकरजी को देखता रहता हूं । तब मुझे अलग-अलग रंग दिखाई देते हैं । कभी गुलाबी रंग दिखाई देता, तो मैं कहता, ‘‘देखें, आज भगवान का रंग गुलाबी है । देखें मुखमंडल कैसे दिखाई दे रहा है ।’’

कु. प्रियांका लोटलीकर : क्‍या अन्‍य लोगों को भी वैसा दिखाई देता था ?

पू. शंकरमामा ः कभी कभी दिखाई देता था । मंगल (छोटी बहन) कहती थी, ‘हां मुझे भी दिखाई दे रहा है ।’ मां को भी वैसा दिखाई देता था । मुझे वह अधिक दिखाई देता था ।

(क्रमशः )

(पू. शंकर गुंजेकर से संवाद करती हुई कु. प्रियांका लोटलीकर (२०१६)