परात्पर गुरु डॉक्टरजी ‘स्पिरिच्युअल साइन्स रिसर्च फाउंडेशन’ संस्था के प्रेरणास्रोत हैं । पूरे विश्व में अध्यात्मप्रसार करने हेतु उन्होंने ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ की स्थापना की है । इस विश्वविद्यालय की ओर से भारत के आध्यात्मिक शोधकेंद्र, गोवा में ५ दिनों की आध्यात्मिक कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं । इन कार्यशालाओं का उद्देश्य ‘जिज्ञासुओं को साधना के प्रायोगिक भाग की जानकारी देकर उनकी साधना को गति प्रदान करना’ है । परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा इन कार्यशालाओं में उपस्थित जिज्ञासुओं का किया मार्गदर्शन आगे दिया गया है । (भाग १)
१ अ. अध्यात्म में निहित सैद्धांतिक जानकारी का प्रत्यक्ष
जीवन में क्रियान्वयन किए बिना अध्यात्म समझना असंभव !
श्रीमती श्वेता क्लार्क : कार्यशाला की अवधि में हमें ‘आगरा की कु. मिल्की अगरवाल में बहुत जिज्ञासा और सीखने की वृत्ति है’, यह ध्यान में आया ।
- परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : यह जिज्ञासा केवल अध्यात्म का सैद्धांतिक अंग जानने तक सीमित नहीं होनी चाहिए । सैद्धांतिक अंग का प्रत्यक्ष क्रियान्वयन करना चाहिए, तब जाकर आपको वास्तव में सबकुछ समझ में आएगा । इसलिए कार्यशाला में हम अध्यात्म का सैद्धांतिक अंग न सिखाकर प्रायोगिक भाग सिखाते हैं ।
१ आ. साधना का उद्देश्य
१ आ १. आंशिक निद्रावस्था में भगवान को अनुभव करना तथा निरंतर ईश्वर के सान्निध्य में रहने का प्रयास करना, साधना की नींव अच्छी होने का संकेत है !
श्रीमती श्वेता क्लार्क : श्रीमती मामी सुमगरी को १ वर्ष पहले आंशिक निद्रा में एक अनुभूति हुई । उन्हें एक अच्छी शक्ति का अस्तित्व प्रतीत हुआ । उस समय उनके मन में ‘वे भगवान हो सकते हैं’, यह विचार आया । उस समय उन्हें साधना के संदर्भ में विशेष कुछ ज्ञात नहीं था । यह अनुभूति कुछ ही क्षण टिक पाई; परंतु उसके उपरांत ‘यह अनुभूति पुनः होनी चाहिए’, ऐसा उन्हें लगने लगा ।
- परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : आप साधना करना आरंभ करें, आपको जागृतावस्था में भी यह अनुभूति होगी । बाह्ममन में अनेक विचार चलते रहते हैं । आंशिक निद्रा की स्थिति में बाह्यमन सक्रिय नहीं होता है । ऐसे समय में ईश्वर से आपका सान्निध्य हो सकता है । पूरे दिन २४ घंटे तक ईश्वर के सान्निध्य में रहना संभव होने के लिए हम साधना करते हैं । मामी को प्राप्त अनुभूति बहुत अच्छी है तथा वह उनकी आगे की साधना के लिए अच्छी नींव है ।
१ आ २. प्रत्येक प्रसंग में आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करना और साधना के संदर्भ में अन्यों का मार्गदर्शन करना, ईश्वर के निकट जाने का राजमार्ग है !
श्री. शॉन क्लार्क : श्री. ट्रंग वेन की अपनी दुकान है । लोग उनकी दुकान में आते हैं और कभी-कभी वहां की बोतल उठाकर भूमि पर पटक देते हैं अथवा उसी भांति कुछ कृत्य करते हैं । ऐसे प्रसंग में श्री. ट्रंग का दृष्टिकोण होता है कि ‘अब मुझे अधिकाधिक नामजप करना चाहिए ।’
- परात्पर गुरु डॉ. आठवले : वे आध्यात्मिक स्तर पर विचार कर रहे हैं और वह महत्त्वपूर्ण भी है । इसके विपरीत, यदि वे मानसिक अथवा बौद्धिक स्तर पर होते, तो ऐसे प्रसंगों के समय ‘अब मैं क्या करूं ?’, ‘क्या मुझे अब दुकान में कैमरा लगाकर रखना चाहिए ?’ अथवा ‘क्या मैं पुलिस से इसकी शिकायत करूं ?’, जैसे विचार आए होते । ‘वेन, आप तीव्रगति से आध्यात्मिक प्रगति कीजिए । अमेरिका आपकी प्रतीक्षा कर रहा है ।’
श्री. ट्रंग वेन : अमेरिका के लगभग ८० प्रतिशत लोग निराशा में हैं ।
- परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : अमेरिका के लोगों को सहायता की बहुत आवश्यकता है । वे लोग मनोरोगी हो गए हैं । इन लोगों में निराशा, अति चिंता और अन्य मानसिक बीमारियां हैं । वहां के ८० प्रतिशत लोगों को मनोचिकित्सा की आवश्यकता है; परंतु जब आप (श्री. ट्रंग) अमेरिका जाएंगे, तब उन्हें मनोचिकित्सा की आवश्यकता नहीं पडेगी । आप लोगों को अध्यात्म सिखाकर समाज में उसका प्रसार करें, जिससे उन लोगों का जीवन आनंदमय हो जाएगा । समाज को अध्यात्म की शिक्षा देने का (ईश्वर का) कार्य करने से आप ईश्वर को उनके अपने लगेंगे । अध्यात्म के प्रति केवल जानना और घर में बैठकर ध्यान करना स्वार्थ है । अन्यों को साधना सिखाने से स्वयं में व्यापकता आती है ।
१ आ ३. स्वयं की रुचि-अरुचि को एक ओर रखकर परेच्छा से आचरण करना, ईश्वरेच्छा की दिशा में उठाया गया पहला कदम है !
श्रीमती श्वेता क्लार्क : सेवा में श्रीमती योगिता दीदी की कोई रुचि-अरुचि नहीं होती । उन्हें सेवा देने पर वे कभी भी, ‘मुझे यह सेवा नहीं चाहिए’ अथवा ‘यह सेवा करना मेरे लिए संभव नहीं है’, ऐसा नहीं बोलतीं ।
- परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी : वे (श्रीमती योगिता) रुचि-अरुचि के पार चली गई हैं । प्राथमिक चरण में स्वयं के विचार होते हैं । हमें वही सच्चे लगते हैं और हम उनके अनुसार आचरण करते हैं । अगला चरण होता है, ‘अन्यों की बात सुनना’ । श्रीमती योगिता ‘अन्यों की बात सुनने’ के चरण में हैं । उससे आगे जाने पर आप ‘ईश्वर को जो अपेक्षित है’, वह सहजता से कर सकेंगी । उस स्थिति में आप वास्तव में ईश्वर के सान्निध्य में होंगी । (क्रमशः)
‘गुरु या ईश्वर के चरणों में पूर्ण समर्पित होने पर अपने विषय में विचार बहुत कम हो जाते हैं । हम अखंड ईश्वर के आंतरिक सान्निध्य में रहते हैं, तब ईश्वर का भी हमारी ओर ध्यान रहता है । गुरुचरणों में पूर्ण समर्पण व अखंड ईश्वर का आंतरिक सान्निध्य, ऐसे दोनों होने पर हमसे होनेवाली कृति ईश्वरेच्छा से होती है । ऐसी अवस्था में किसी समय कुछ प्रतिकूल घटित हो भी जाए, तब भी ‘वह ईश्वरेच्छा से ही हुआ है इसलिए कल्याणकारी ही है’, ऐसा विचार मन में आता है । इसलिए प्रतिकूल घडने पर बुरा नहीं लगता । इससे गुरुचरणों में पूर्ण समर्पण व अखंड ईश्वर के आंतरिक सान्निध्य में रहने का महत्त्व भी ध्यान में आता है ।’ – (पू.) श्री. संदीप आळशी (१०.११.२०२०)