परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने साधकों को प्रत्यक्ष क्रियान्वयन से ही तैयार किया है । वर्ष १९९८ में साप्ताहिक ‘सनातन प्रभात’ का, तथा वर्ष १९९९ में दैनिक ‘सनातन प्रभात’ का आरंभ होने पर नियतकालिक में निहित लेखन की प्रधानता कैसी होनी चाहिए ?, सामाजिक समाचारों को राष्ट्र एवं धर्म के हित के परिप्रेक्ष्य में कैसे दृष्टिकोण देने चाहिए ?, सात्त्विकता के परिप्रेक्ष्य में पृष्ठसंरचना का अध्ययन कैसे करना चाहिए आदि सेवाएं उन्होंने ही साधकों को सिखाई हैं । इस लेख में ‘सनातन प्रभात’ की सेवा सीखते समय साधक श्री. प्रभाकर प्रभुदेसाई को परात्पर गुरु डॉक्टरजी की प्रतीत अलौकिक विशेषताएं दी गई हैं । |
प.पू. गुरुदेवजी द्वारा कागद के छोटे-छोटे
टुकडों पर लेखन कर मितव्ययिता की शिक्षा देना
सरकारी कार्यालय में ४ पंक्तियों का भी लेखन करना हो, तो उसके लिए हम ‘फुलसाइज पेपर’ का उपयोग करते थे; परंतु प.पू. गुरुदेवजी बहुत छोटे से तथा एक ओर लिखे कागद पर लिखकर वह कागद हमें देते थे । ऐसे छोटे कागद पर लिखे गए लेखन को जोडना तो हमारे सामने बडी समस्या होती थी; किंतु कुछ दिनों के पश्चात हम इसके अभ्यस्त हो गए ।
‘दैनिक ‘सनातन प्रभात’ का मुंबई, ठाणे और रायगड संस्करण आरंभ करने का सुनिश्चित होने पर संपादक के रूप में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने मेरा चुनाव किया । उस समय मैं नौकरी करता था ।
१. प.पू. गुरुदेवजी के ‘संपादक’ के रूप में परिपूर्ण सेवा करना संभव होना चाहिए,
साथ ही कोई साधक छुट्टी पर गया, तब भी काम नहीं रुकना चाहिए’, यह मुख्य दृष्टिकोण होना
अगस्त १९९७ में सनातन संस्था के मार्गदर्शन में मेरी साधना आरंभ हुई । उस समय प.पू. गुरुदेवजी मुंबई में रहते थे और मैं सांताक्रूज (मुंबई) में रहता था । आरंभ में उनके घर मेरा बहुत बार आना-जाना होता था । संपादक के रूप में चयनित होने के उपरांत दिसंबर १९९९ में मुझे संपादकीय शिक्षा लेने हेतु गोवा बुलाया गया । ‘संपादक के रूप में परिपूर्ण सेवा करने की क्षमता होनी चाहिए, साथ ही कोई साधक छुट्टी पर गया, तब भी काम नहीं रुकना चाहिए’, यह उनका मुख्य दृष्टिकोण था । मुंबई के उत्तरदायी साधकों ने मुझे ‘‘एक बार वहां शिक्षा लेने जाने के उपरांत जब तक गुरुदेवजी ‘अब आप वापस जाओ’, ऐसा नहीं बोलते, तब तक उन्हें वापस जाने के संबंध में मत पूछिए’, यह बताकर रखा था । उसके कारण मैं आरंभ में १ महीने की छुट्टी लेकर वहां गया । उसके उपरांत प.पू. गुरुदेवजी ने जब तक ‘अब आप वापस जाइए’, ऐसा नहीं कहा, तब तक मैं छुट्टी बढाता गया ।
२. प.पू. गुरुदेवजी को संपादक से कुछ कहना हो,
तो वे संपादक के पटल के पास आकर निर्देश देते थे !
उस समय दैनिक ‘सनातन प्रभात’ के गोवा एवं सिंधुदुर्ग, ये २ संस्करण चल रहे थे । स्वयं प.पू. गुरुदेवजी ही उनके ‘संपादक’ थे । उस समय संपादकीय विभाग में मेरे सहित ८-१० साधक सेवा में थे । प.पू. गुरुदेवजी हमारे साथ ही बैठते थे । सरकारी सेवा में उच्चपद पर आसीन होने से मुझे कुछ बडा देखने की आदत थी; परंतु यहां तो सब विपरीत था । सरकारी सेवा में वरिष्ठ अधिकारी से कुछ चर्चा करनी हो, तो वे हमें अपने केबिन में बुलाते थे; परंतु प.पू. गुरुदेवजी को हमें कुछ बताना हो, तो वे स्वयं हमारे पटल के पास आकर हमें निर्देश देते थे । उनका यह अलगपन मुझे बहुत प्रशंसनीय लगता था और ‘इसी में उनकी महानता समाई थी’, ऐसा मुझे लगता था ।
३. संपादकीय विभाग में सेवा सीखते समय एक दिन गुरुदेवजी
द्वारा एक पृष्ठ का दायित्व दिया जाना और साथ ही संपादन भी कर लेना
संपादकीय विभाग में सेवा का प्रशिक्षण समाप्त होने को आया, तब मुझे एक दिन बताया गया, ‘आज आप पृष्ठ क्र. ३ के संपादक हैं । आपने अभी तक जो शिक्षा ली है, उसके अनुसार आज आप दैनिक का पृष्ठ तैयार कीजिए और उसे गुरुदेवजी को दिखाकर अंतिम कीजिए ।’ मुझे यह दायित्व निभाना बहुत कठिन लगा; परंतु उन्हीं की कृपा से यह पृष्ठ तैयार हुआ ।
उस समय हमें निर्देश था, ‘जब पृष्ठ तैयार होगा, तब उसे प.पू. गुरुदेवजी को दिखाकर पूरा करना है ।’
३ अ. प.पू. गुरुदेवजी द्वारा केवल एक ही मिनट में दैनिक का एक पूरा पृष्ठ ऊपर से नीचे तक देखा जाना और कुछ ही क्षणों में उसमें ७ सुधार बताकर ‘उन्हें क्यों करना है ?’, यह भी बताना : मेरा पृष्ठ बन गया, तब प.पू. गुरुदेवजी अन्य किसी से बातें कर रहे थे । जब मैं उन्हें पृष्ठ दिखाने के लिए गया, तब उन्होंने केवल एक मिनट में वह पूरा पृष्ठ देखा । उनकी द़ृष्टि घुमाने की वह पद्धति देखकर मैं अचंभित रह गया और केवल इतना ही नहीं, कुछ ही क्षणों में उन्होंने मुझे ७ स्थानों पर सुधार करने के लिए बताया और वो सुधार क्यों आवश्यक हैं, यह भी बताया ।
वहां से निकलकर मैं अपने स्थान पर आकर बैठ गया । सुधारों का स्मरण रहे; इसके लिए मैंने ७ स्थानों पर पेंसिल से चिन्हित किया । उतने में उन्होंने मुझे ‘इंटरकॉम’ से वो सुधार कौन से हैं, यह पुनः बताया और पूछा, ‘‘क्या आपने सुधार किए ?’’ उनकी यह तत्परता और स्मरणक्षमता देखकर मैं अचंभित रह गया ।
४. प.पू. गुरुदेवजी द्वारा ‘राज्य बिजली विभाग’ और
‘देश का बिजली वितरण’ विषयों पर लेखमाला तैयार करवाना
एक दिन प.पू. गुरुदेवजी मेरे पटल के पास आकर मुझसे कहने लगे, ‘‘हमें ‘राज्य बिजली विभाग’ और ‘देश में बिजली वितरण की व्यवस्था’ विषयों पर लेखमाला तैयार करनी है । हम कल से उसका लेखन आरंभ करेंगे ।’’ उनके ऐसे बताने पर मैं आश्चर्यचकित रह गया ।
पहले दिन ही क्या लिखना चाहिए और कहां से आरंभ करना चाहिए ?, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था । वैसे मेरे पास इससे संबंधित मूलभूत सूत्र उपलब्ध नहीं थे; परंतु उन्हीं की कृपा से पहला लेख तैयार हुआ । उन्होंने उस लेख में निहित प्रत्येक अक्षर की पडताल की और उसमें कई सुधार भी किए । इस प्रकार दैनिक ‘सनातन प्रभात’ में यह लेखमाला २५-३० दिनों तक चली ।
मेरे द्वारा लिखे गए लेख की वे पडताल करते थे । कभी-कभी प.पू. गुरुदेवजी उस लेखन में कई स्तंभों का लेखन बढाकर देते थे और तब वह लेख तैयार हो पाता था, तो कभी-कभी वे एकाध शब्द बदल देते थे । उनके द्वारा केवल एक ही शब्द के किए गए बदलाव से वाक्य को बहुत सुंदर अर्थ प्राप्त हो जाता था । तब मुझे स्वयं में निहित अल्पता और उनकी महानता प्रतीत होती थी ।
५. संपादकीय लेख लिखने
के लिए साधक को तैयार करना
एक बार प.पू. गुरुदेवजी मेरे पटल के पास आकर मुझसे कहने लगे, ‘‘कल का संपादकीय आप को लिखना है ।’’ उस समय उन्होंने कोई विषय नहीं बताया था । इससे मैं पूरा गडबडा गया; परंतु मैंने ही विषय का चुनाव किया और लेख लिखा । वह लेख दूसरे दिन प्रकाशित भी हुआ ।
६. संपादकीय सेवाओं का प्रशिक्षण लेते समय स्वयं
के केवल निमित्त होने का भान होने से व्यक्त हुई कृतज्ञता
संपादकीय विभाग में सेवा का प्रशिक्षण लेते समय प.पू. गुरुदेवजी के साथ अनेक प्रसंगों का अनुभव हुआ । अब मैं जब भी उसके संबंध में विचार करता हूं, तब यह बात ध्यान में आती है कि तब मैं केवल निमित्त ही था । कर्ता-धर्ता तो प.पू. गुरुदेवजी ही थे । उनके चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता !’
– श्री. प्रभाकर प्रभुदेसाई, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल. (२६.२.२०२०)