नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना हुए कुछ ही वर्ष हुए हैं, वहां अब नेपाली हिन्दुआें ने देश में पुनः राजतंत्र की स्थापना करने की मांग आरंभ कर दी है । इसके लिए पूरे देश में बडी मात्रा में उत्स्फूर्तता से जनआंदोलन चलाए जा रहे हैं और उनका प्रचुर प्रत्युत्तर भी प्राप्त हो रहा है । केवल राजतंत्र ही नहीं, अपितु नेपाल को पुनः ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित करने की मांग की जा रही
है । किसी भी देश में अभी तक राजतंत्र नष्ट किए जाने पर अथवा उसके हटाने के उपरांत इस प्रकार से उसकी पुनर्स्थापना करने की मांग किए जाने का सुनने में नहीं आया है, भले वह रूस अथवा अन्य कोई छोटा देश ही क्यों न हो । ऐसे देशों में लोकतंत्र अथवा तानाशाही की स्थापना हुई और वह स्थायी रूप से चलती रही । अब नेपाल इसे अपवाद सिद्ध करने का प्रयास कर रहा है, जो स्वागत योग्य है । मूलतः ऐसा क्यों हो रहा है ?, इसका अध्ययन करने की आवश्यकता है ।
विगत १०० – २०० वर्षों के इतिहास में अनेक देशों में राजतंत्र को समाप्त कर दिया गया । इसके पीछे राजा का अनियंत्रित शासन, जनता को तुच्छ समझना, संपत्ति अर्जित करना, जनता की समस्याआें का समाधान न करना, विकास में बाधा बनना आदि कारणों से अनेक देशों में जनता ने राजतंत्र के विरुद्ध विद्रोह कर तख्तापलट किया । नेपाल में सीधे ऐसा नहीं हुआ । १ जून २००१ में नेपाल के राजा वीरेंद्र विक्रम और उनके राजवंश के ९ लोगों की गोलियां मारकर हत्या कर दी गई । इसके लिए राजकुमारी का प्रेमविवाह कारण बना, ऐसा कहा जाता है; परंतु इसकी गुत्थी अभी तक नहीं सुलझी है । उसके उपरांत राजा ज्ञानेंद्र राजसिंहासन पर विद्यमान हुए; परंतु जनता को अब राजतंत्र विकास में बाधा प्रतीत होने से उसने राजतंत्र का विरोध करना आरंभ किया । वर्ष २००४-२००५ में इसी के लिए जनआंदोलन हुआ था । उससे आगे जाकर वर्ष २००८ में राजतंत्र को समाप्त कर लोकतंत्र की स्थापना की गई । तत्पश्चात संविधान लिखना आरंभ हुआ और वह वर्ष २०१५ में पूरा हुआ । उसमें नेपाल को ‘हिन्दू राष्ट्र’ के स्थान पर ‘धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र’ घोषित किया गया; क्योंकि राजतंत्र के उपरांत नेपाल में चीनसमर्थक वामपंथी प्रबल हो गए थे । वर्ष २००८ के चुनाव में नेपाली कांग्रेस को विजय मिली; परंतु उसके अगले चुनाव में वामपंथी सत्ता में आ गए । नेपाल का जो संविधान लिखा गया था, उसे नेपाल की संस्कृति, तत्त्वज्ञान और विचारधारा पर आधारित न बनाकर पाश्चात्य तत्त्वज्ञान और विचारधारा के आधार पर बनाया गया । उसमें पुनः नेपाल को ‘धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र’ घोषित किया गया ।
इसके कारण ही नई राजव्यवस्था के साथ जनता का समन्वय नहीं हुआ और यह उसके समझ में आया कि विकास में बाधा का कारण राजतंत्र नहीं था । जब राजतंत्र समाप्त किया गया, तब कुछ लोग राजतंत्र का समर्थन भी कर रहे थे; परंतु उनकी संख्या न्यून थी और वे खुलेआम बोल नहीं सकते थे । प्रसारमाध्यमों में भी उनकी बातों की ओर ध्यान नहीं दिया । जो लोग लोकतंत्र का विरोध कर राजतंत्र की मांग कर रहे हैं, अब उनके यह समझ में आ गया है कि राजनीतिक दल के नेता ही राजा बने हैं और वे वही कर रहे हैं, जिससे उन्हें लाभ मिले । राजा नेपाली प्रजा की चिंता करता था । लोकतंत्र में न्यायपालिका शक्तिशाली होनी चाहिए; परंतु लोगों को यह दिखाई दे रहा है कि नेता न्यायपालिका को अपनी जेब में लेकर घूम रहे हैं । ‘नेपाल की सरकार और विरोधी दलों को भी लकवा मार गया है’, राजनीतिक विश्लेषक ऐसा बता रहे हैं । जिस जनता ने राजतंत्र को हटाने के लिए सडक पर उतरकर उसका विरोध किया था, वही जनता राजतंत्र की पुनर्स्थापना के लिए पुनः सडक पर उतर रही है; क्योंकि लोकतंत्र के कारण लोग निराश हैं । विशेषज्ञ बता रहे हैं कि ‘यदि स्थिति ऐसी ही बनी रही, तो आगे जाकर नेपाल में क्रांति हो सकती है ।’ राजतंत्र की मांग करनेवालों में केवल उसके समर्थक ही नहीं, अपितु वामपंथी (कम्युनिस्ट) दल, नेपाली कांग्रेस और माओवादी भी अंतर्भूत हैं । यह एक उत्स्फूर्त आंदोलन है, जिसका कोई नेता है । इससे नेपाल की स्थिति समझ में आती है ।
भारतीय भी हिन्दू राष्ट्र के लिए क्रियाशील बनें !
वर्तमान में नेपाल में चल रहा आंदोलन भारत के लिए एक अवसर है । यह आंदोलन जितना तीव्र होगा, भारत के लिए वह उतना ही लाभदायक सिद्ध होगा । पिछले कुछ वर्षों से नेपाल में बढी हुई राजनीतिक घुसपैठ को देखते हुए वह इस आंदोलन के कारण समाप्त हो सकती है, ऐसा कहा जा सकता है । पिछले कुछ महीने से नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली के चीनप्रेम के कारण उनके द्वारा भारत के साथ शत्रुता मोल लेने का प्रयास और चीन के द्वारा नेपाल में की गई सैन्य घुसपैठ को देखते हुए अब नेपाल की जनता को यह समझ में आ रहा है कि नेपाल का लोकतंत्र नेपाल के अस्तित्व पर ही प्रहार कर रहा है । उसके लिए लोकतंत्र मिटाकर पहले के राजतंत्र की पुनर्स्थापना कर पुनः एक बार देश को ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित कर नेपाली संस्कृति, विचारधारा, तत्त्वज्ञान और भारत के साथ पारंपरिक मित्रता को बनाए रखने की आवश्यकता है, यह बात केवल नेपाली जनता की ही नहीं, अपितु वहां के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता, कार्यकर्ता और समर्थकों के भी समझ में आई है और वे भी इस आंदोलन में सम्मिलित हुए हैं । कुछ सप्ताह पूर्व ही भारत के गुप्तचर संगठन ‘रॉ’ के प्रमुख सुमंत कुमार गोयल ने प्रधानमंत्री ओली से भेंट की । तत्पश्चात भारत के सेनाप्रमुख मनोज मुकुंद नरवणे ने भी नेपाल की यात्रा की और उसके उपरांत ही यह आंदोलन आरंभ हुआ है । इसका अर्थ अब नेपाल के लोगों को चीन के कारण उन पर मंडरा रहा संकट और भारत का महत्त्व समझ में आया है, उसी का यह परिणाम है; ऐसा कहा जाए, तो अनुचित नहीं होगा । नेपाली जनता को नेपाल की रक्षा, साथ ही हिन्दू धर्म की रक्षा हेतु सडक पर उतरकर लोकतांत्रिक पद्धति से इस प्रकार का विद्रोह करने की आवश्यकता थी और ‘सनातन प्रभात’ के माध्यम से पहले से यही कहा जा रहा था । अब वही हो रहा है, यह प्रसन्नता की बात है ।
अब यह आंदोलन शीघ्रातिशीघ्र पूर्णता को प्राप्त कर अर्थात लोकतंत्र समाप्त होकर राजतंत्र की पुनर्स्थापना की दिशा में अग्रसर होना चाहिए । राजतंत्र अनियंत्रित न हो; इसके लिए आवश्यकता हुई, तो कोई संविधान भी लिखा जा सकेगा । नेपाल के राजनीतिक विशेषज्ञों को इस दिशा में भी विचार करना चाहिए । उसके लिए भारत को आवश्यक सहयोग देना चाहिए । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी इस पर ध्यान देना चाहिए; क्योंकि नेपाल का चीनप्रेम छोडकर पुनः भारत की ओर बढना महत्त्वपूर्ण है । उससे भी आगे जाकर भारत के हिन्दुआें को भी नेपाली जनता का आदर्श सामने रखकर भारत में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करने के लिए संगठित होकर लोकतांत्रिक पद्धति से संघर्ष करना चाहिए । केवल १० – १२ वर्षों में ही जो बात नेपाली जनता के समझ में आई, वही बात स्वतंत्रता के ७४ वर्ष उपरांत भी भारतीय जनता के समझ में नहीं आई है, जो अत्यंत दुर्भाग्यजनक है । इसलिए अब जागना होगा !