‘तन, मन, धन एवं जीवन समर्पित कर निःस्वार्थभाव से राष्ट्र-आराधना कैसे करनी चाहिए ?’, इसके आदर्श एवं मूर्तिमंत उदाहरण हैं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

‘मैं एक दिन एक साधक के साथ राष्ट्र से संबंधित वर्तमान गतिविधियों पर चर्चा कर रही थी । विषय चाहे कोई भी हो; परंतु साधकों की बातों में ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी’ का उल्लेख न हो, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता । बात करते हुए उस साधक ने कहा, ‘‘हमारे राष्ट्र का प्रातिनिधिक स्वरूप है परात्पर गुरु डॉक्टरजी का शरीर ! परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने बहुत पहले ही कहा है, ‘जिस समय हिन्दू राष्ट्र की स्थापना होकर राष्ट्र को स्थिरता प्राप्त होगी, उस समय मेरे सभी कष्ट समाप्त हो जाएंगे और मैं स्वस्थ हो जाऊंगा’ ।’’ इसके उपरांत मेरे मन में मानो विचारों की एक शृंखला ही आरंभ हो गई । उनमें से कुछ विचारों को यहां शब्द रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रही हूं ।

१. राष्ट्र के साथ परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की एकरूपता और अदम्य व्यापकता

श्रीमती मेघना वाघमारे

     उस साधक की बातों से मुझे ‘राष्ट्र पर आनेवाली प्रत्येक विपत्ति का परात्पर गुरु डॉक्टरजी पर किस प्रकार स्थूल एवं सूक्ष्म से परिणाम होता है’, यह समझ में आया । इसका अर्थ ‘जब राष्ट्र पर आघात होता है, तब परात्पर गुरु डॉक्टरजी के शारीरिक और आध्यात्मिक कष्ट बढ जाते हैं ।’ राष्ट्र के साथ यह कैसी एकरूपता और असीमित व्यापकता ! राष्ट्र एवं धर्म के प्रति यह कितनी लगन ! और इन सभी से साकार परात्पर गुरु डॉक्टरजी का हिन्दू राष्ट्र-स्थापना का कार्य ! प्रत्येक सांस में एक ही संकल्प ‘हिन्दू राष्ट्र का कल्याण ! यह कितना विशाल और उदात्त लक्ष्य है !’

२. गहन अध्ययनपूर्वक हिन्दू राष्ट्र की
स्थापना का कार्य करना सुनिश्‍चित करना और
उसे साकार करने हेतु योजनाबद्ध पद्धति से कदम उठाना

     ‘हिन्दू राष्ट्र !’ हिन्दुओं का राष्ट्र ! हिन्दू हैं कौन, तो ‘हीनान् गुणान् दूषयति इति हिन्दूः ।’, अर्थात ‘अपने हीन गुणों का (दुष्प्रवृत्तियों का) त्याग कर उत्तम गुणों को अंगीकार करनेवाले वे हिन्दू’ । ईश्‍वर की उपासना करनेवाले ही हिन्दू ! ऐसे लोगों का राष्ट्र है ‘हिन्दू राष्ट्र !’ वह साकार हो; इसके लिए आवश्यक परंतु वर्तमान में विलुप्त हो रही राष्ट्र एवं धर्म के प्रति अस्मिता एवं राष्ट्र की दयनीय स्थिति पर परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने विचार किया और उन्होंने उसका पुनरुत्थान करने का कार्य अपने हाथों में लिया । उन्होंने ‘भारत की, हिन्दुओं की और हिन्दू धर्म की स्थिति ऐसी क्यों हुई है ?’, इसका गहन अध्ययन किया है । ‘समाज की नैतिकता अत्यंत हीन स्तर पर पहुंच गई है, हिन्दू मृतवत होकर निद्रित हो गया है और इसका कारण क्या है’, यह उन्होंने अचूकता से पहचाना । उन्होंने अत्यंत अध्ययनपूर्वक यह कार्य करना सुनिश्‍चित किया और योजनाबद्ध पद्धति से कदम उठाते हुए इसे साकार करना आरंभ किया ।

३. छत्रपति शिवाजी महाराज की भांति मुट्ठीभर साधकों को साथ में लेकर स्वयं का आदर्श
आचरण एवं विचारों से साधकों को तैयार करते हुए हिन्दू राष्ट्र-स्थापना का कार्य आरंभ करना

     ‘धर्माचरण की आवश्यकता को ध्यान में लेते हुए उन्होंने सबसे पहले हिन्दुओं को धर्म की शिक्षा देना, उनमें धर्माचरण के प्रति रुचि उत्पन्न करना और धर्मजागृति करना’, इनकी तीव्र आवश्यकता को ध्यान में लिया और समाज को ईश्‍वरप्राप्ति एवं साधना के विचारों की ओर मोडने का कार्य हाथ में लिया । जिस प्रकार छत्रपति शिवाजी महाराज ने मुट्ठीभर सैनिकों को साथ लेकर हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की, उसी प्रकार परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने मुट्ठीभर सात्त्विक जीवों और साधकों को साथ में लिया । उन्होंने स्वयं के आदर्श आचरण और विचारों से साधकों को तैयार कर हिन्दू राष्ट्र-स्थापना के कार्य का आरंभ किया ।

३ अ. ‘पहले कर दिखाया और उसके पश्‍चात बताया’ वचन को सार्थक करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ! : माता-पिता भी अपने बच्चों को संस्कार देते हैं; परंतु ‘इतने उदात्त उद्देश्य से अखिल मनुष्यजाति को संस्कारित करना और उतनी ही अपितु उससे अधिक उदात्तता से और लगन से स्वयं उसका आचरण करना’, इसके एकमात्र उदाहरण हैं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ! उनके संदर्भ में ‘पहले कर दिखाया और उसके पश्‍चात बताया’ वचन सार्थक प्रमाणित होता है ।

     हिन्दू राष्ट्र-स्थापना के कार्य के लिए ही ‘अखिल मनुष्यजाति को अध्यात्म जीने की शिक्षा देकर संपूर्ण विश्‍व को सात्त्विक बनाएं’, यह भी परात्पर गुरु डॉक्टरजी का उदात्त एवं असीमित व्यापक लक्ष्य है ।

     परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने साधकों को राष्ट्र की आराधना करने की शिक्षा दी । तन, मन, धन एवं जीवन समर्पित कर राष्ट्र पर निःस्वार्थ प्रेम करने की शिक्षा दी । राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना, राष्ट्रीय संपत्ति का संरक्षण एवं संवर्धन करना; राष्ट्र को स्थिरता प्राप्त हो; जनता को सुखी, संतुष्ट एवं सुरक्षित जीवन जीना संभव हो; इसके लिए प्रयासरत रहना जैसी अनेक बातों की शिक्षा साधकों को दी ।

     परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने अध्यात्म को राष्ट्रकार्य के साथ जोडने की शिक्षा दी । इसके कारण ‘मैं अकेला यह सब कैसे कर पाऊंगा ?’, यह प्रश्‍न ही उत्पन्न नहीं हुआ । ‘ईश्‍वर को स्मरण कर तथा उन्हें साथ में लेकर कार्य करनेवाले के साथ ईश्‍वर सदैव रहते हैं ।’, यह बात साधकों के मन पर अपनेआप ही अंकित हुई ।

     आंदोलन करना अपने हाथ में है; परंतु कार्य के योग्य नियोजन एवं कार्य की सफलता के लिए ईश्‍वर का अधिष्ठान एवं साधना की आवश्यकता है । – दासबोध, दशक २०, श्‍लोक ४, वचन २६

     परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने राष्ट्रसंत समर्थ रामदासस्वामीजी के उक्त वचन का प्रत्यक्ष आचरण किया, कर रहे हैं और वे साधकों को भी इसके अनुसार आचरण करने की शिक्षा दे रहे हैं ।

३ आ. कोई भी आंदोलन आरंभ करते समय अथवा चलाते समय उसे विधि की कार्यकक्षा में रहकर संयमित पद्धति से ही चलाने का मार्गदर्शन करना : परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने हिन्दू जनजागृति समिति के माध्यम से राष्ट्र में अस्थिरता उत्पन्न करनेवाली घटनाएं, हानि पहुंचानेवाली अयोग्य एवं अनुचित बातें रोकने हेतु समाज में आंदोलन खडे किए जाते हैं; परंतु उसमें अनेक बार राष्ट्रीय संपत्ति की असीमित हानि होती हुई दिखाई देती है । ‘कोई भी आंदोलन खडा करते समय तथा उसे चलाते समय उसे संयमित पद्धति से और विधि की कार्यकक्षा में रहकर ही कैसे चलाना है ?’, साथ ही उसके कारण राष्ट्रीय प्रतीकों और राष्ट्रपुरुषों का अनादर न हो; इसका ध्यान रखने की शिक्षा दी । ‘समाज को उचित और अनुचित का भान हो’, इसके लिए वे सनातन प्रभात नियतकालिकों के माध्यम से उचित दृष्टिकोण देकर निरंतर समाज का उद्बोधन भी कर रहे हैं ।

४. हिन्दू राष्ट्र-स्थापना’ का शिवधनुष उठाने से भी कठिन कार्य
केवल परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी जैसे अवतारी पुरुषों के लिए ही संभव होना

     ‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी की प्रत्येक सांस हिन्दू राष्ट्र के लिए ही है’, इसका हम अनुभव कर रहे हैं; परंतु ‘हिन्दू राष्ट्र’ का उनका यह विचार केवल भारत तक सीमित नहीं है, अपितु वह विचार संपूर्ण विश्‍व में व्याप्त है । यह असीमित व्यापकता है ! ‘हिन्दू राष्ट्र-स्थापना का यह कार्य शिवधनुष को उठाने समान ही नहीं, अपितु उससे भी कठिन है’, जिसे केवल अवतारी पुरुष ही कर सकते हैं; क्योंकि उसके लिए आध्यात्मिक सामर्थ्य प्राप्त व्यक्ति का होना आवश्यक है और परात्पर गुरु डॉक्टरजी इस क्षमता से ओतप्रोत हैं, केवल इतना ही नहीं वे अंशावतारी ही हैं ! इसके साथ ही उन्हें प्रतिक्षण और कदम-कदम पर संतों एवं श्रीगुरु की (परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के गुरु संत भक्तराज महाराजजी की) कृपा का सामर्थ्य एवं ईश्‍वर की सहायता मिल रही है ।

५. हिन्दू राष्ट्र-स्थापना की कार्यपूर्ति के पश्‍चात साधकों का
आनंद एवं निरपेक्षतापूर्वक अपनी साधना करने हेतु प्रयाण करना

     इस अवतारी पुरुष का यह कार्य निःस्वार्थभाव तथा धैर्यता से विगत ३० वर्ष से निरंतर चल रहा है । अब वर्ष २०२३ में ‘हिन्दू राष्ट्र’ आएगा । उसके पश्‍चात साधक परात्पर गुरु डॉक्टरजी के मार्गदर्शनानुसार उसे स्थिरता प्रदान करने की सेवा करेंगे और तब पुनः एक बार ‘विश्‍वगुरु’ के रूप में भारत का गौरव विश्‍व में ऊंचा होगा । इससे राष्ट्र को स्थिरता मिलेगी । परात्पर गुरु डॉक्टरजी का स्वप्न साकार होगा । उनके स्वास्थ्य में सुधार आएगा । धर्माचरणी एवं सात्त्विक विचारधारावाली नई पीढी के हाथों राष्ट्र का दायित्व सौंपा जाएगा । तत्पश्‍चात इसकी ओर आनंद के साथ देखते हुए साधक परात्पर गुरु डॉक्टरजी की शिक्षा के अनुसार वानप्रस्थाश्रमी बनकर निरपेक्षता से मोक्षप्राप्ति हेतु आगे की साधना करने के लिए प्रयाण करेंगे ।

     संक्षेप में कहा जाए, तो ‘तन, मन, धन एवं जीवन समर्पित कर निःस्वार्थभाव से राष्ट्र-आराधना कैसे करनी चाहिए’, इसके आदर्श एवं मूर्तिमंत उदाहरण हैं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

कृतज्ञता

     परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की महिमा वर्णन करनेवाली यह विचारशृंखला जब आरंभ होती है, तब वह असीमित दौडने लगती है । उसे कागज पर उतारना भी हो, तो आकाश जितना कागज और समुद्र के जितनी स्याही लेकर जन्म-जन्मांतर तक इसका लेखन किया, तो भी उसे शब्दों में उतारना असंभव है; क्योंकि शब्द की अपनी मर्यादाएं होती हैं । अतः उसे केवल निःशब्दता से अनुभव करना, उसका क्रियान्वयन कर उस प्रकार आचरण करना और मन ही मन उसमें समाहित परात्पर गुरु डॉक्टरजी का स्मरणानंद लेते रहना ही उचित है । ऐसा होते हुए भी परात्पर गुरु डॉक्टरजी के चरणों में उन्हीं की प्रेरणा और उन्हीं की कृपा से अंशात्मक क्यों न हो; परंतु शब्दों के माध्यम से साकार यह कृतज्ञतापुष्प शतकोटि नमनपूर्वक समर्पित !

– मेघना वाघमारे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२९.६.२०२०)