१. उद्देश्य
गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना
२. महत्त्व
अ. गुरुपूर्णिमा पर अन्य किसी भी दिन की तुलना में गुरुतत्त्व (ईश्वरीय तत्त्व) १ सहस्र गुना अधिक कार्यरत रहता है । इसलिए गुरुपूर्णिमा के आयोजन हेतु अथक परिश्रम (सेवा) व त्याग (सत् हेतु अर्पण) का व्यक्ति को अन्य दिनों की तुलना में १ सहस्र गुना अधिक लाभ होता है । अतएव गुरुपूर्णिमा ईश्वरकृपा का एक अनमोल पर्व ही है ।
आ. ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ हिन्दुओं की लाखों वर्ष पुरानी चैतन्यमय संस्कृति है; परंतु काल के प्रवाह में, रज-तमप्रधान संस्कृति के प्रभाव के कारण इस महान परंपरा की उपेक्षा हो रही है । गुरुपूर्णिमा के अवसर पर गुरुपूजन किया जाता है । संक्षेप में, गुरु-शिष्य परंपरा को संजोए रखने का सुअवसर प्राप्त होता है । (गुरु एवं शिष्य संबंंधी विशेष जानकारी अनुक्रम से ‘गुरुका महत्त्व, प्रकार एवं गुरुमंत्र’ तथा ‘शिष्य’ नामक ग्रंथ में दी गई है ।)
३. उत्सव मनाने की पद्धति
‘प्रत्येक गुरु के शिष्य इस दिन उनकी पाद्यपूजा करते हैं एवं उन्हें गुरुदक्षिणा देते हैं । इस दिन व्यासपूजन करने की प्रथा है । गुरुपरंपरा में व्यासजी को सर्वश्रेष्ठ गुरु माना गया है । भारतीयों की धारणा है कि सर्व ज्ञान का उद्गम व्यासजी से होता है । दक्षिण भारत में कुंभकोणम् एवं शृंंगेरी पीठ हैं । इन स्थानों पर व्यासपूजा का महोत्सव होता है । श्रद्धालुओं का मानना है, व्यास महर्षि, शंकराचार्यजी के रूप में पुनः अवतीर्ण हुए । इसलिए संन्यासी व्यासपूजा के रूप में शंकराचार्यजी की पूजा करते हैं ।’
(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘धार्मिक उत्सव एवं व्रतों का अध्यात्मशास्त्र’)