श्रीविष्णु के श्रीजयंतावतार का महान कार्य एवं विशेषताएं !

परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी श्रीमहाविष्णु के अवतार हैं, ऐसा सप्तर्षि, भृगु ॠषि और अत्रि ॠषि ने नाडीपट्टिकाओं में लिखा है । अनेक संतों ने परात्पर गुरु डॉक्टरजी के अवतारत्व के संदर्भ में बताया है, तो सप्तर्षियों ने परात्पर गुरूदेवजी को श्रीविष्णु का श्रीजयंतावतार कहा है । ऐसे श्रीजयंतावतार की विशेषताएं और उनके कार्य से परिचित हो लेते हैं ।

श्री. विनायक शानभाग

१. अवतार की व्युत्पत्ति

     भगवान श्रीमहाविष्णु पंचमहाभूतों की उत्पत्ति करते हैं । वे त्रिगुणों की उत्पत्ति करते हैं । वे पंचमहाभूत तथा त्रिगुणों को एकत्रित कर उससे सृष्टि की निर्मिति करते हैं । सृष्टि की निर्मिति होने पर वे उसका पालन, पोषण एवं संतुलन बनाए रखते हैं । सृष्टि का अर्थ अनंतकोटि ब्रह्मांड, सप्तलोक, सप्तपाताल, देवी-देवता, ॠषि, मनुष्य, कृष्णविवर, आकाशगंगा, पर्वत, अरण्य, समुद्र, भूमि इत्यादि । वे इस सृष्टि को कालचक्र में बांधकर रखते हैं । वे भूमि पर प्रकृति के माध्यम से जीवराशियों का पालन करते हैं । श्रीमहाविष्णु देवता एवं ॠषियों के माध्यम से प्रकृति के नियम तय करते हैं । श्रीमहाविष्णु उनसे उत्पन्न मनुष्य को पुनः उनकी ओर आने का मार्ग दिखाते हैं और इस मार्ग को ही धर्म कहा जाता है । जब धर्म के कुंठित होने पर अधर्म प्रबल होता है, तब श्रीविष्णु वैकुंठ लोक से पृथ्वी पर आते हैं, इसी को अवतार कहा जाता है ।

२. अवतार का कार्य

     पूर्णावतार श्रीकृष्ण में श्रीविष्णु का तत्त्व १०० प्रतिशत था । उस श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया,

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानाम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥

     भगवान कहते हैं, मैं प्रत्येक युग में धर्मसंस्थापना हेतु पुनः-पुनः जन्म लेता हूं । अब कलियुगांतर्गत कलियुग के चक्र से कलियुगांतर्गत सत्ययुग की ओर जाते समय उस संधिकाल में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का अवतार हुआ है । महर्षि बताते हैं कि भगवान ने धर्मसंस्थापना हेतु ही यह अवतार धारण किया है ।

३. कलियुग में श्रीविष्णु का श्रीजयंतावतार

३ अ. मनुष्य का अहंकार नष्ट करना तथा ईश्‍वर ही सबकुछ करते हैं, इसकी शिक्षा देना ही श्रीजयंतावतार का प्रयोजन होना ! : विगत २ सहस्र वर्षों में मनुष्य का अहंकार बहुत ही बढ गया । उसने अपने सुख के लिए धर्म के सभी नियम तोड दिए । उसने लालच के कारण भ्रष्टाचार किया, स्वयं के सुख के लिए अन्यों में कलह उत्पन्न किए और अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का विनाश किया । मनुष्य में लोकैषणा होने से उसने स्वयं की झूठी प्रतिमा तैयार की । उसमें मैं विज्ञान की सहायता से कुछ भी कर सकता हूं, यह अहंकार बढने से मनुष्य ने ईश्‍वर के अस्तित्व को ही धिक्कारा । हिटलर जैसे नरपशु ने लाखों लोगों का नरसंहार किया । अमेरिका आदि राष्ट्रों ने युद्ध किए और मनुष्य, साथ ही भूमि को भी नष्ट करने के लिए परमाणुअस्त्र बनाए । उससे अनेक राष्ट्र पर संकट आए, सामान्य मनुष्य त्रस्त हुए और भूदेवी की आंखों में आंसू आ गए ।

     तब देवताओं ने श्रीविष्णु से प्रार्थना की । वर्ष १९४१ की ज्येष्ठ पूर्णिमा को कश्मीर घाटी में स्थित शिवखोरी गुफा में श्रीविष्णु के श्रीजयंतावतार की आकाशवाणी हुई और वर्ष १९४२ की ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष सप्तमी को श्रीविष्णु ने जयंत नाम से अवतार धारण किया, ऐसा सप्तर्षि ने बताया है । १३.५.२०२० को गुरुदेवजी ने ७८ वर्ष पूर्ण कर ७९ वें वर्ष में पदार्पण किया । इन वर्षों में उन्होंने मनुष्य साधना कर अहंकार नष्ट करे, इसपर बल दिया है और ईश्‍वर ही सबकुछ करते हैं, यह सीख उन्होंने स्वयं के आचरण से दी है । उन्होंने सनातन के साधकों को उनमें विद्यमान अहंभाव दूर करने हेतु स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया सिखाई है ।

३ आ. स्वयं अवतार होते हुए भी ईश्‍वर ही सबकुछ करते हैं, इस भाव से जीवन व्यतीत करना : परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को किसी बात की (स्थूल या सूक्ष्म) न्यूनता नहीं है; परंतु तब भी उनका व्यक्तिगत जीवन किसी संन्यासी की अपेक्षा सीधा और सादगी युक्त है । साधकों के लिए सबकुछ करना; परंतु स्वयं को उससे अलग रखना उनकी जीवनशैली है । अलग रहने में ही ईश्‍वरीय शक्ति का संपूर्ण रहस्य छुपा है । इसका भान कराने हेतु भगवान गुरुदेवजी के रूप में साधकों के साथ रहने के लिए आए । साधकों के साथ रहते हुए उन्होंने साधकों को ही अपने जैसा कब और कैसे बनाया, यह ध्यान में ही नहीं आया । उन्होंने अहंशून्यता एवं प्रेमभाव, इन सबसे बडे गुणरूपी अस्त्रों का कब और कैसे प्रयोग किया, यह समझ में ही नहीं आया ।

३ इ. गुरुदेवजी की सादगी युक्त जीवनशैली की विशेषताएं

१. न्यूनतम आवश्यकताएं और कभी भी अन्यों पर निर्भर न रहना

२. जीवनभर अन्यों के आनंद का ही विचार करना और उसके लिए स्वयं परिश्रम करना

३. साधकों में ईश्‍वरीय गुण उत्पन्न होने हेतु उन्हें प्रतिक्षण तैयार करना और कठिन स्थिति से उन्हें सहजता से बाहर निकालना

४. परात्पर गुरुपद पर विराजमान होते हुए भी शिष्यभाव में रहना और साधकों को सहजता से उच्च आध्यात्मिक अधिकार प्राप्त करवाकर देना

५. जीवनभर यह मेरे कारण हुआ; परंतु मैंने नहीं किया, इस स्थिति में रहना

४. श्रीविष्णु की शक्ति श्री महालक्ष्मी ही योगमाया होना

४ अ. अवतार के साथ रहनेवाले भक्त को श्रीविष्णु के तत्त्वरूप की अनुभूति क्यों नहीं होती ? : श्रीविष्णु आनंदस्वरूप हैं । उनके मूल स्वरूप की अनुभूति हुई, तो हम कर्म करना छोड देंगे । ऐसा न हो; इसके लिए श्रीविष्णु की माया उनकी आज्ञा से भक्तों के लिए कार्यरत होती है; इसलिए भक्त माया में रहता है और उसे माया में रहकर ही साधना करनी पडती है । अवतारी कार्य पूर्ण होने पर श्रीविष्णु की माया दूर होती है और तब श्रीविष्णु के भक्तों को उनके मूल सच्चिदानंद स्वरूप की अनुभूति होती है । श्रीविष्णुमाया ही श्री महालक्ष्मी हैं !

५. अवतार द्वारा पृथ्वी पर जन्म लेने पर उनकी सेवा के लिए जीव कैसे एकत्रित होते हैं ?

     परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का जन्म महाराष्ट्र के नागोठणे गांव में हुआ । वे जब मुंबई में थे, तब कुछ जीव उनके संपर्क में आए । आगे जब गुरुदेवजी गोवा और महाराष्ट्र के अनेक स्थानों पर जाने लगे, तब गोवा और महाराष्ट्र के कुछ जीव उनके संपर्क में आए । तदुपरांत उन साधकों के माध्यम से अन्य राज्यों के कुछ जीव उनसे जुड गए । यह सब कैसे हुआ, इस संदर्भ में आद्य शंकराचार्यजी ने श्रीविष्णुपादादिकेशान्तस्तोत्र में बताया है । वे कहते हैं, सत्त्व, रज एवं तम, ये त्रिगुण प्रकृति होते हैं और वह प्रकृति ही श्रीविष्णु की शक्ति श्री महालक्ष्मी हैं । श्री महालक्ष्मी त्रिगुणों की सहायता से लीलाएं करती हैं । उसके कारण जीव श्रीविष्णु के निकट आते हैं या दूर जाते हैं । सत्त्व गुण के आधार से श्री महालक्ष्मी सभी निर्जीव एवं सजीव प्राणिमात्रों का पालन-पोषण करती हैं । श्री महालक्ष्मी जब श्रीविष्णु की आज्ञा से किसी भक्त पर कृपा करती हैं, तब उस भक्त के जीवन में समृद्धि आती है । श्री महालक्ष्मी की कृपा से सभी साधकों के जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग घटित हुए जिसके कारण उन्होंने बुद्धि से साधना करने का निर्णय लिया । तब साधक श्रीविष्णु स्वरूप गुरुदेवजी के संपर्क में आए ।

६. श्रीविष्णु के अभय हस्त का महत्त्व !

     श्रीविष्णु के अभय हस्त के संदर्भ में हम सभी ने सुना है । आजकल समस्त पृथ्वी पर कोरोना विषाणु रूपी वैश्‍विक संकट मंडरा रहा है । समाज के लोग, विश्‍व के सभी राष्ट्र भय, चिंता और तनाव से ग्रसित हैं । कई लोग केवल एक ही समय का भोजन ले पा रहे हैं, तो अनेक लोगों का घर नहीं रहा । अनेक लोग इस चिंता से मनोरोगी बन रहे हैं कि मेरा भविष्य क्या होगा । इसके विपरीत सनातन के साधक साधना करने के कारण श्रीविष्णु के अवतार परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के अभय हस्तों तले सुरक्षित हैं । संकटकाल में ही श्रीविष्णु के अभय हस्तका महत्त्व समझ में आता है । इसके आगे भी कोरोना जैसे अनेक संकट आएंगे; परंतु गुरुदेवजी साधकों का हाथ पकडकर उन्हें किसी पुष्प की भांति बडी सहजता से उससे पार करानेवाले हैं । सभी साधकों के मस्तक पर श्रीविष्णु का अभय हस्त निरंतर रहे और उनकी छत्रछाया में सभी साधक आनंद के साथ संकटकाल का सामना करें, यही श्रीविष्णु के अवतार परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के चरणों में प्रार्थना है !

– श्री. विनायक शानभाग, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (९.५.२०२०)