आजकल कोविड-१९ की चिकित्सा करने हेतु पूरे विश्व में चर्चा में रहे क्लोरोक्वीन औषधि के जनक महान वैज्ञानिक आचार्य प्रफुल्लचंद्र रे के संदर्भ में जानकारी लेना महत्त्वपूर्ण होगा । देश को ऐसी स्थिति में होना चाहिए कि जीवनरक्षक औषधियों के लिए उसे पश्चिमी देशों के सामने याचना न करनी पडे, यह आचार्य प्रफुल्लचंद्र का स्वप्न था । आचार्य प्रफुल्लचंद्र ने बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल की स्थापना कर उसमें क्लोरोक्वीन औषधि का उत्पादन आरंभ किया । आज विश्व के अनेक शक्तिशाली देश कोरोना का सामना करने हेतु हायड्रोक्सीक्लोरोक्वीन औषधि के माध्यम से भारत की सहायता लेने के लिए प्रतीक्षारत हैं । ऐसी इस अलग स्थिति में जिनकी दूरदर्शिता के विचारों ने भारत को आज कोरोना का सामना करने हेतु सक्षम बनाया, वे महान वैज्ञानिक, स्वतंत्रता सेनानी और समाजसुधारक आचार्य प्रफुल्लचंद्र रे के संदर्भ में जानकारी प्राप्त करते हैं !
आचार्य प्रफुल्लचंद्र रे का परिचय
आचार्य प्रफुल्लचंद्र रे को भारतीय फार्मास्युटिकल उद्योग का जनक माना जाता है । २ अगस्त १८६१ को बंगाल के खुलना जनपद के (आज का बांग्लादेश) ररूली कतिपरा में उनका जन्म हुआ था । प्रफुल्लचंद्र के पिता हरिश्चंद्रराय फारसी भाषा के विद्वान थे । उनके पिता ने अपने गांव में मॉडेल स्कूल नाम का विद्यालय स्थापित किया था । इसी विद्यालय में प्रफुल्लचंद्र ने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण की । १२ वर्ष की आयु में जहां छोटे बच्चे परीकथाएं पढते हैं, उस आयु में प्रफुल्लचंद्र को गैलिलियो और न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों की जीवनी पढने की रुचि थी । उनपर वैज्ञानिकों की जीवनी का बडा प्रभाव था । उन्होंने एक अंग्रेजी लेखक की पुस्तक में १ सहस्र महान लोगों की सूची में भारत के केवल राजा राममोहन राय का नाम पढा, तब वे स्तब्ध रह गए । तभी उन्होंने इस सूची में अपना नाम लाने की ठान ली । उन्हें रसायनशास्त्र बहुत प्रिय था ।
कोलकाता विश्वविद्यालय में डिप्लोमा की शिक्षा लेने के पश्चात वे गिल्क्राईस्ट छात्रवृत्ति लेकर आगे की शिक्षा लेने विदेश गए । वर्ष १८८७-८८ में एडिनबरा विश्वविद्यालय में रसायनशास्त्र की सोसाईटी ने उन्हें उपाध्यक्ष के रूप में चुना । स्वदेश के प्रति प्रेम रखनेवाले प्रफुल्लचंद्र विदेश में भी भारतीय वेशभूषा धारण करते थे । वर्ष १८८८ में भारत लौटने पर उन्होंने स्वयं की प्रयोगशाला में तत्कालीन प्रसिद्ध वैज्ञानिक तथा उनके मित्र जगदीशचंद्र बोस के साथ काम कर बहुत परिश्रम किया । वर्ष १८८९ में कोलकाता के प्रेसिडेन्सी महाविद्यालय में वे रसायनशास्त्र विषय के सहायक प्राध्यापक के रूप में काम करने लगे । प्रफुल्लचंद्र रे केवल विज्ञान के कारण नहीं, अपितु स्वयं के राष्ट्रवादी विचारों के कारण लोगों को प्रभावित कर रहे थे । उनके सभी लेख लंडन के समाचार-पत्रों में प्रकाशित होते थे । इन लेखों में उन्होंने अंग्रेजों ने भारत को किस प्रकार लूटा और उसके कारण भारतवासी आज किस प्रकार की यातनाएं भुगत रहे हैं, वे इस संदर्भ में लिखते रहते थे । डॉ. प्रफुल्लचंद्र रे अपने छात्रों को बताते थे कि रूसी वैज्ञानिक निमेत्री मेंडलीफ ने पिरियॉडिक टेबल अंग्रेजी में प्रकाशित न कर रूसी भाषा में प्रकाशित किया गया ।
रसायनशास्त्र में किए आविष्कार
वर्ष १८९४ में डॉ. प्रफुल्लचंद्र ने मर्क्युरी (पारा) पर पहला शोध किया । उन्होंने अस्थायी पदार्थ मर्क्युरस नाइट्रेट को प्रयोगशाला में प्रमाणित कर दिखाया । इस पदार्थ की सहायता से ८० नए यौगिक प्रमाणित किए और अत्यंत कठिन समस्याओं का समाधान निकाला । इस अभूतपूर्व कार्य के कारण विश्व स्तर के श्रेष्ठ वैज्ञानिकों में उनका नाम लिया जाने लगा । इस शोध पर आधारित उनके प्रकाशनों से विश्व में खलबली मच गई । डॉ. प्रफुल्लचंद्र की इच्छा थी कि स्वयं का ज्ञान और कार्य का उपयोग देश के लोगों के लिए हो । उन्हें यह ज्ञात था कि भारत जीवनरक्षा की औषधियों के लिए विदेशों पर निर्भर है । इसलिए वे देश में ही औषधियां बनाने हेतु प्रयासरत थे । वे स्वयं की आय में से अधिकांश धन इसी कार्य में लगा देते थे । वे पशुओं की हड्डियां जलाकर घर पर ही कैल्शियम और फॉस्फेट तैयार करते थे ।
बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल की स्थापना
आज भी वे रसायनशास्त्र का अध्ययन करनेवाले भारतीय युवा पीढी के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं । मेघनाद साहा और शांतिस्वरूप भटनागर जैसे प्रसिद्ध वैज्ञानिक उनके शिष्य थे । डॉ. प्रफुल्लचंद्र का मत था कि औद्योगिकीकरण करने से ही भारत की प्रगति होगी । उन्होंने स्वयं के घर पर बहुत अल्प उपकरणों का उपयोग कर केवल ७०० रुपए के अल्प निवेश में भारत का पहला कारखाना आरंभ किया । वर्ष १९०१ में उनके परिश्रम के बल पर बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल प्रतिष्ठान की स्थापना हुई । आज १०० वर्ष की समृद्ध परंपरा के पश्चात भी बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल का बडा नाम है ।
(साभार : दैनिक अमर उजाला)