आहार और आचार से संबंधित अद्वितीय शोध करनेवाला महर्षि अध्यात्म
वर्तमान में रसोईघर में सहजता से मिलनेवाली और भारतीय अन्न का अविभाज्य घटक बन गई है मिर्ची । हरी मिर्च और लाल मिर्च, ये दोनों पदार्थ प्रत्यक्ष में भारतीय नहीं हैं, तब भी भारतीय भोजन से वे इतने समरस हो गए हैं कि चटपटे अन्न का विचार करने पर सर्वप्रथम भारतीय भोजन ही आंखों के सामने आता है । अपनी पुरानी पाककृति को देखने पर हम पाएंगे कि भारतीय रसोई पूर्वकाल से मिर्चयुक्त (तीखी) नहीं थी । भारतीय भोजन में स्वाद और पोषण को अधिक महत्त्व दिया गया है । भारतीय भोजन पर आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धति का भी अधिक प्रभाव रहा है । इसलिए ‘ऋतुचक्र के अनुसार आहार में परिवर्तन करना’, अन्यत्र कहीं भी न दिखाई देनेवाली इस प्रथा का अनेक वर्षाें से भारतीय अनुपालन कर रहे हैं । ऐसा लगता है कि ‘पाश्चात्यों का अंधानुकरण करने के परिणामस्वरूप समृद्ध भाग से सुशोभित अपनी खाद्यसंस्कृति को हम भूलते जा रहे हैं ।’
१. आयुर्वेदानुसार षड्रसों में से ‘तीखा’ रस की विशेषता
आयुर्वेद में विविध स्वाद की तुलना रसों से की गई है । उसके अनुसार छह रस होते हैं – मीठा, कडवा, तीखा, खट्टा, कसैला और नमकीन । आहार में इन षड्रसों का उचित मात्रा में समावेश होने से उस आहार से शरीर को पोषण मिलने से स्वास्थ्य अच्छा रहने में सहायता मिलती है; जैसे किसी भी बात का अतिरेक हानिकारक है, वैसे ही इन षड्रसों का भी है । अधिक मात्रा में उनका सेवन करने पर उस रस से संबंधित अवयवों की भी हानि होती है । इन षड्रसों में से तीखा एक रस है । तीखे रस में तेज और वायु तत्त्वों का समावेश होता है । तेजतत्त्व अग्नि से संबंधित है और वायु अग्नि प्रज्वलित करने में सहायता करती है । इसीलिए जब यह अन्न हमारे जठर में पहुंचता है, तब वह जठराग्नि को और बढाता है; इसीलिए तीखा खाने पर हमारे शरीर की उष्णता में वृद्धि प्रतीत होती है ।
२. अति तीखे अन्न का नियमित सेवन करने से होनेवाले दुष्परिणाम
२ अ. शारीरिक परिणाम
२ अ १. पित्त बढना : अति तीखा अन्न ग्रहण करने से पित्त बढकर उससे संबंधित कष्टों की मात्रा बढती है । ‘छाती में जलन, दुर्गंधयुक्त डकारें’, ये पित्त के ही लक्षण हैं ।
२ अ २. ‘गैस्ट्रिक अल्सर’ का संकट होना : निरंतर तीखा अन्न ग्रहण करने से जठर के भीतरी ओर सूजन आ सकती है और कभी-कभी घाव भी हो जाते हैं । इस घाव को ‘जठर का अल्सर’ भी कहते हैं । इसमें ‘उलटियां होना और भोजन के पश्चात पेट का ऊपरी भाग फूलने समान प्रतीत होना’ इत्यादि लक्षण दिखाई देते हैं ।
२ अ ३. मुंह का स्वाद जाना : सतत तीखा अन्न ग्रहण करने से जिह्वा पर विद्यमान स्वाद पहचानने की पेशियों की हानि होती है और कालांतर में स्वाद पहचानने की जिह्वा की क्षमता अल्प हो जाती है ।
२ आ. मन पर होनेवाला परिणाम
२ आ १. चिडचिडापन और उतावलापन : तीखा अन्न तमप्रधान होने से उसके द्वारा शरीर में जा रही तामसिक तरंगों का मन पर भी परिणाम होता है । तीखे अन्न के सेवन से चिडचिडापन, उतावलापन जैसे स्वभावदोष उभर आते हैं । ऐसे व्यक्तियों का बोलना अथवा आचरण भी कुछ मात्रा में रूखा होता है ।
२ आ २. निद्रा अल्प होना : बहुत तीखा अन्न ग्रहण करने से हमारी जठराग्नि कार्यरत होती है । जठराग्नि शांत हुए बिना निद्रा नहीं आती; इसीलिए शरीर में इस परिवर्तन के कारण निद्रा की मात्रा अल्प होती है ।
२ इ. अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से तमप्रधान तीखे अन्न के सेवन से होनेवाले परिणाम : अध्यात्मशास्त्रानुसार तीखा आहार, तमप्रधान माना जाता है; उदा. मांस और मछली । तीखा आहार ग्रहण करने से उस व्यक्ति पर भी उसका परिणाम होता है और उसके रज-तम की प्रबलता बढती है । मिर्च तमप्रधान होने से भगवान को जो नैवेद्य दिखाते हैं, उसमें मिर्च नहीं डालते । जब किसी व्यक्ति की सात्त्विकता बढती है, तब उस व्यक्ति की मिर्च खाने की रुचि भी न्यून (कम) हो जाती है । इसका उदाहरण यदि देना हो, तो जब हम मिर्चयुक्त अन्न के प्रयोग के लिए साधक ढूंढ रहे थे, तब बहुत तीखा अन्न ग्रहण करनेवाले ६० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर के साधक हमें बहुत थोडे ही मिले और तीखा खानेवाले संत तो मिले ही नहीं । यहां हमें ध्यान में आता है कि जब किसी व्यक्ति में सात्त्विकता बढती है, तब तामसिक अन्न की ओर उसका झुकाव घट जाता है ।
३. श्री. ऋत्विज ढवण को अत्यंत तीखा, मध्यम तीखा और मिर्च रहित पदार्थ ग्रहण करते समय ध्यान में आए सूत्र
प्रथम मैंने अत्यंत तीखा पदार्थ ग्रहण किया । तदुपरांत मध्यम तीखा और तत्पश्चात मिर्च रहित पदार्थ ग्रहण किया । उस समय मुझे ध्यान में आए सूत्र आगे दिए हैं ।
– श्री. ऋत्विज ढवण, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (दिसंबर २०२०)