ज्ञान, भक्ति और कर्म मार्ग से साधना करने की क्षमता रखनेवाले एकमेवाद्वितीय सनातन के सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी !

१. जन्मदिनांक : श्रावण शुक्ल पक्ष प्रतिपदा (६.८.१९६७)

२. संत और सद्गुरु पद पर विराजमान : १४.५.२०१२ को संत बने और २४.६.२०१७ को सद्गुरु बने ।

     सनातन के १४ वें संत सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी के जन्मदिन (श्रावण शुक्ल पक्ष प्रतिपदा अर्थात इस वर्ष २१ जुलाई) के अवसर पर कुछ सूत्र यहां दे रहे हैं ।

इस लेख का विषय पहले का होने से संतों के नाम का उल्लेख उसी के अनुसार है । – संपादक

सद्गुरु डॉ. पिंगळेजी के विषय में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के गौरवोद्गार

१. सादगी, नम्रता, प्रीति आदि गुणों के कारण सबको अपने लगनेवाले डॉ. चारुदत्त पिंगळे हुए पू. पिंगळेजी ! 

     ‘धोती पहने हुए डॉ. पिंगळेजी कान, नाक और गला विशेषज्ञ हैं’, यह उनके सहज व्यवहार से कोई समझ नहीं सकता । आचारधर्म के अनुसार धोती का महत्त्व समझते ही उन्होंने धोती पहनना प्रारंभ किया । इससे उनकी साधना के संबध में ‘जो समझा, उसका पालन करना, यह प्रवृत्ति ध्यान में आती है और इसी कारण उनकी प्रगति हुई है । आश्रम के साधकों को अन्य डॉक्टरों से बोलते समय डॉक्टर से बोल रहे हैं’, इसका भान रहता है; किंतु पू. पिंगळेजी से बात करते समय ‘एक सहसाधक मित्र से बातें कर रहे हैं; ऐसा अनुभव होता है ।’ ‘प्रीति’ गुण के कारण पू. (डॉ.) पिंगळेजी ने शीघ्र प्रगति की । अनिष्ट शक्ति का तीव्र कष्ट होने पर भी उन्होंने संतपद प्राप्त किया और पू. अनुराधा वाडेकरजी की, ‘अनिष्ट शक्ति का तीव्र कष्ट होने पर भी संत पद प्राप्त किया जा सकता है’, यह उक्ति सत्य की । साधकों को पू. पिंगळेजी का अनुकरण कर शीघ्र प्रगति करने की बुद्धि मिले, यह भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना !’

२. डॉ. पिंगळेजी का प.पू. डॉक्टरजी को भावपूर्ण मालिश करना !

‘पहले मेरी नसों में कई गाठें हुई थीं । डॉ. पिंगळे के प्रतिदिन ४५ मिनट भावपूर्ण मालिश करने के कारण ४ महीने में गांठों का आकार कम हुआ ।’

३. ईश्‍वर की बातें सिखानेवाले कान, नाक और गला विशेषज्ञ पू. डॉ. पिंगळेजी !

     ‘पू. डॉ. पिंगळेजी कान, नाक, गला विशेषज्ञ होने के कारण उन्होंने श्रवण दोष से ग्रस्त व्यक्तियों पर उपचार किए । कुछ व्यक्तियों को श्रवण यंत्र का उपयोग करने की सलाह दी । साधना करते हुए संत बनने पर उन्हें वे स्थूल कानों से श्रवण के उपचार न कर ईश्‍वर की बातें सुनने के लिए साधकों का मार्गदर्शन करते हैं ।’

४. ‘कम बोलकर भी अपने आचरण से हम दूसरों का मन
जीत सकते हैं; पू. पिंगळेजी इसका एक उत्तम उदाहरण हैं ।’

५. आदर्श वक्ता पू. डॉ. पिंगळेजी !

     छठे अखिल भारतीय हिन्दू अधिवेशन में पू. डॉ. पिंगळेजी ने क्षात्रतेज युक्त प्रभावी भाषण किया । अब तक उनके ब्राह्मतेज युक्त और भाव जागृत करनेवाले भाषण सुने थे । आवश्यकता के अनुसार ब्राह्मतेज अथवा क्षात्रतेज से भाषण कैसे देना चाहिए, इसका आदर्श उन्होंने सबके सामने रखा है ।

६. ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग, इन तीनों मार्गों से साधना करनेवाले सद्गुरु डॉ. पिंगळेजी !

     ‘संत प्राय: किसी एक योगमार्ग से साधना करते हैं; किंतु सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग, इन तीनों मार्गों से साधना करते हैं ! उनकी शीघ्र प्रगति का मुख्य कारण यह है कि अध्यात्म की जो बातें समझीं, उनका उन्होंने तुरंत पालन किया; उदा. धोती का महत्त्व समझते ही (१५ वर्ष पहले – वर्ष २००२ में) उन्होंने पैंट पहनना बंद कर धोती पहनना आरंभ किया । इन गुणों के कारण अनिष्ट शक्तियों का तीव्र कष्ट होने पर भी उन्होंने सद्गुरुपद प्राप्त किया । प्रेम भावना होने के कारण साधकों को उनका आधार लगता है । प्रेम होने पर भी वे पत्नी और पुत्री में नहीं अटके । वे आवश्यकता के अनुसार ब्राह्मतेज और क्षात्रतेज, किसी भी स्तर पर भाषण देते हैं । उनके अध्ययनपूर्ण और उत्स्फूर्त भाषण से अनेक हिन्दुत्वनिष्ठ अपने कार्य में जुडे हैं । साधकों के समान अनेक धर्मप्रेमी व्यक्तियों को भी उनके प्रति आदर और आधार प्रतीत होता है । उनके मार्गदर्शन से अनेक हिन्दुत्वनिष्ठ व्यक्तियों की साधना और कार्य को गति प्राप्त हुई है ।’

     ‘सद्गुरु डॉ. पिंगळेजी की इसी प्रकार शीघ्र प्रगति के लिए भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना !’

– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

सद्गुरु (डॉ.) पिंगळेजी के विषय में संतों के गौरवोद्गार

श्री स्वामी शांति स्वरूपानंद गिरीजी महाराज

     ‘सद्गुरु डॉ. पिंगळेजी से मिलने पर उनकी नम्रता और सादगी का अनुभव होता है । उनकी राष्ट्रभक्ति और भारत की प्राचीन सनातन संस्कृति जागृत करने के प्रयत्न प्रशंसनीय हैं ।’ – १००८ श्री स्वामी शांति स्वरूपानंद गिरीजी महाराज, पीठाधीश्‍वर, पंचायती आखाडा श्री निरंजनी तथा महामंडलेश्‍वर, श्री चारधाम मंदिर (१.२.२०१९)

श्रीमती अंजली गाडगीळजी

पू. डॉ. पिंगळेजी की नम्रता उनकी अभिव्यक्ति से दिखाई देती है । नम्रता के कारण ही उनकी प्रगति हुई है; यह प.पू. डॉक्टरजी ने बताया : प.पू. डॉक्टरजी ने पू. पिंगळेजी के विषय में बताया है कि उनमें ‘सिर से पैर तक नम्रता’ है ।  इसी गुण से उनकी प्रगति हुई । उनकी अभिव्यक्ति से नम्रता दिखती है । उनकी दृष्टि सदैव झुकी रहती है । अनेक साधकों की नम्रता वाणी से दिखाई देती है; किंतु अभिव्यक्ति से ‘अंतर्बाह्य नम्रता’ कैसी होनी चाहिए, यह पू. पिंगळेजी से सीखने मिला । (१६.५.२०१२)

आध्यात्मिक विश्‍लेषण संबधी सद्गुरु डॉ. पिंगळेजी के लेख

मेरे माध्यम से ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी विविध कार्य करते हैं’, इस संदर्भ में कुछ विचार

सद्गुरु (डॉ.) पिंगळे

१. शरीर : ‘हे गुरुदेव ! यह शरीर आपका है । आपने ही इस जीव को शरीर दिया है । इस शरीर से आप ही जीव का उद्धार कर रहे हैं ।’

२. मन : ‘हे गुरुदेव ! यह मन और मन के विचार तथा संस्कार आप ही हैं । साधना और भावभक्ति से आप ही इस जीव का उद्धार कर रहे हैं ।’

३. बुद्धि : ‘हे गुरुदेव ! यह बुद्धि (सद्बुद्धि) और ज्ञान आपके ही हैं । इस जीव को स्व-स्वरूप और विराट रूप की अनुभूति देकर आप ही उसका उद्धार कर रहे हैं ।’

४. अहं : ‘हे गुरुदेव ! अहं भी आप ही हैं । यह अहं ईश्‍वर ही है । वह इस शरीर के माध्यम से प्रकट हुआ है । जीव का शिव कर मैं-तुम अर्थात एक तत्त्व । भौतिक दृष्टि से मैं-तुम एक नहीं अपितु आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वत्र मैं-तुम !’

५. गुरु द्वारा अहं का भान करवाना : अहं का अर्थ है ‘अद्वैत रहित कर्तापन’ जो आध्यात्मिक प्रगति के लिए हानिकारक होता है । यह अहं सर्वसामान्य व्यक्ति में दिखाई देता है । जब अहं, सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमानता की अनुभूति होती है; उस समय जो स्फूर्ति आती है, वह आकार रहित होती है । सर्वव्यापी स्वरूप का आकार नहीं होता; इस स्थिति को ‘ब्रह्मस्थिति’ कहते हैं । इस स्थिति के गुरु जब शिष्य को अपना भान करवाते हैं; तब ‘अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूं) का भान होता है । इस स्फुरण में स्थिर होने पर ‘अयमात्मा ब्रह्म (आत्मा ब्रह्म है)’ का अनुभव होता है और उसकी व्यापकता समझ में आती है, तब ‘त्वमेव सर्वङ् खल्विदम् ब्रह्मासि’ (‘सर्वव्यापी ब्रह्म तू ही है’), इसकी अनुभूति होती है । यही ‘परब्रह्म अवस्था’ है ।’

– (सद्गुरु) डॉ. पिंगळे (९.७.२०१७)

बुरी शक्ति : वातावरण में अच्छी तथा बुरी (अनिष्ट) शक्तियां कार्यरत रहती हैं । अच्छे कार्य में अच्छी शक्तियां मानव की सहायता करती हैं, जबकि अनिष्ट शक्तियां मानव को कष्ट देती हैं । प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों के यज्ञों में राक्षसों ने विघ्न डाले, ऐसी अनेक कथाएं वेद-पुराणों में हैं । ‘अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर अनिष्ट शक्तियां, उदा. असुर, राक्षस, पिशाच को प्रतिबंधित करने हेतु मंत्र दिए हैं ।’ अनिष्ट शक्ति के कष्ट के निवारणार्थ विविध आध्यात्मिक उपचार वेदादि धर्मग्रंथों में वर्णित हैं ।