औद्योगीकरण के गंभीर दुष्परिणामों का एकमात्र उपाय : भारतीय जीवनशैली !

     प्रत्येक बात को पैसों में तौलना स्वयं को आर्थिक विशेषज्ञ कहलनेवालों की विशेषता है । अर्थव्यवस्था के कुछ समर्थकों ने यह कल्पना प्रस्तुत की है कि कोरोना का प्रसार होने दें, उससे अपनेआप युवकों में समूह प्रतिरक्षा (हर्ड इम्युनिटी) उत्पन्न होगी और उससे कोरोना पर रोक लगेगी । औद्योगीकरण ही विकास, यह सबसे बडा अंधविश्‍वास है । आजकल का अर्थशास्त्र बिना किसी शाश्‍वत नींव की पूर्णतः असत्य, अवैज्ञानिक, अतार्किक, अनैतिक और मूलविहीन संकल्पना है । भारतीय जीवन एवं पृथ्वीरक्षा आंदोलन के निमंत्रक अधिवक्ता गिरीश राऊत ने इन सभी बातों का विश्‍लेषण करते हुए लेख लिखा है, जिसे हम पाठकों के लिए दे रहे हैं । (भाग १)

१. भौतिकता पर खडी अर्थव्यवस्था का शाश्‍वत होना असंभव !

     ‘धृ धारयति इति धर्मः ।’ अर्थात ‘जिस धारणा के कारण अच्छे संस्कार उत्पन्न होते हैं, उसे धर्म कहते हैं ।’ पृथ्वी मनुष्य एवं जीवसृष्टि को धारण करती है । पृथ्वी के विरुद्ध अर्थात उसकी धारणा करने की क्षमता के विरुद्ध आचरण नहीं करना चाहिए । स्वचालित यंत्र, बिजली निर्मिति, सीमेंट, मोटर, अन्य वाहन, दूरदर्शन इत्यादि सभी औद्योगिक युग की बातें, उनका निर्माण, उपयोग और निर्गत में पृथ्वी की धारणा का विनाश करते हैं; परंतु इसी भौतिकता एवं भौतिकवाद पर यह अर्थशास्त्र एवं अर्थव्यवस्था खडी की गई है, जिसका शाश्‍वत होना कभी भी संभव नहीं था ।

     गौतम बुद्ध कहते हैं, ”तृष्णा (इच्छा) ही सभी दुःखों का मूल है ।” भारतीय तत्त्वज्ञान इच्छाओं से मुक्ति को स्वतंत्रता मानता है; परंतु यह अर्थव्यवस्था निरंतर हवा देकर इच्छाओं की अग्नि प्रज्वलित रखती है । अब वह प्रचंड ज्वाला में परावर्तित होकर जीवन को तहस-नहस कर रहा है ।

२. कोरोना की पृष्ठभूमि पर इटली एवं अन्य देशों में
किया गया ‘समूह प्रतिरक्षा (हर्ड इम्युनिटी)’ का असफल प्रयोग !

     अर्थव्यवस्था के कुछ समर्थकों ने यह कल्पना प्रस्तुत की है कि कोरोना का प्रसार होने देना चाहिए, जिससे अपनेआप ही युवकों में ‘समूह प्रतिरक्षा (हर्ड इम्युनिटी)’ तैयार होगी और उससे कोरोना पर रोक लगेगी । इस कल्पना की बलि चढने से ब्रिटेन एवं अन्य कुछ देशों की स्थिति नियंत्रण से बाहर चली गई । ब्रिटेन के राजवंश एवं प्रधानमंत्री को भी कोरोना का संक्रमण हुआ । वहां ‘समूह प्रतिरक्षा’ विकसित नहीं हुई । अभी तक इटली की चिकित्सकीय व्यवस्था विश्‍व में सर्वोत्तम मानी जाती थी; किंतु जर्मनी और स्पेन में रोगियों की संख्या के सामने वह व्यर्थ सिद्ध हुई; क्योंकि भोगवादी अर्थव्यवस्था का उन्माद मस्तिष्क तक आ गया था । उन्होंने पहले १ महीने तक किसी प्रकार के बंधन नहीं पाले, इसका अर्थ समर्थक जिसका समर्थन करते हैं, उस समूह प्रतिरक्षा का प्रयोग वहां किया गया, जो पूर्णतः असफल सिद्ध हुआ । सभी को इसका संज्ञान लेकर उनके विचारों पर बलि नहीं चढनी चाहिए ।

     एक-एक मनुष्य या समूह के कारण समाज में इस प्रकार की प्रतिरोधक क्षमता तैयार नहीं होगी । उससे बिना कारण लोग मर जाएंगे । इनका अर्थशास्त्र ही सतही और दुष्ट विचारों का गढ है । जीवप्रजातियों में जनुकीय गुणधर्म के रम जाने से अनुवांशिक क्षमता आती है । कुछ जीवों में कुछ ही घंटे अथवा दिन में अर्थात तीव्र गति से कई पीढियां आने के कारण होता है । १०० वर्ष में मनुष्य की केवल ४ पीढियां बनती हैं । अतः मनुष्य में अल्पावधि में यह संभव नहीं है । ‘कोरोना का अधिक प्रसार होने दीजिए, उसके प्रतिरोध क्षमता बढेगी’, ऐसा बोलनेवाले चूक कर रहे हैं । अधिक रोगी होने से विषाणुओं का अपनेआप प्रभावहीन होकर उनका नष्ट होना अधिक कठिन हो जाएगा ।

३. कोरोना का प्रसार टालने हेतु स्वीडन एवं तुर्कमेनिस्तान, इन देशों के प्रयास !

     स्वीडन जैसे कुछ देशों में कोरोना का प्रसार अल्प है; क्योंकि उन्होंने अर्थव्यवस्था के चंगुल में फंसना टाल दिया । उन्होंने अनेक वर्ष पहले ही औद्योगीकरण और उससे उत्पन्न होनेवाले प्रदूषण पर रोक लगा दी थी । तुर्कमेनिस्तान देश चारपहिया अथवा दोपहिया वाहन की प्रतियोगिता का आयोजन करने की अपेक्षा साईकिल की प्रतियोगिता आयोजित करता है । इससे पर्यावरण के प्रति उनकी सजगता दिखाई देती है; परंतु अर्थव्यवस्था के समर्थक यह बात बताना कुटिलतापूर्वक टाल देते हैं ।

४. १७ वीं शताब्दी के मध्य के उपरांत हुए शोधों के भयानक परिणाम
वैज्ञानिकों के ध्यान में न आने से उत्पन्न औद्योगीकरण एवं शहरीकरण की लहर !

     प्रत्येक बात को पैसों में तौलना तो स्वयं को आर्थिक विशेषज्ञ कहलानेवाले लोगों की विशेषता है । विश्‍व में वर्ष १७५६ में पहली बार जेम्स वैट का भाप पर चलनेवाला स्वचालित यंत्र आया । उसके कारण उत्पादन पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन हुए; परंतु इसे ‘क्रांति’ कहने में चूक हुई । ‘क्रांति सकारात्मक प्रगति का अंग है’, यह माना जाता है और यहां इस यंत्र के संदर्भ में आकलन में बहुत बडी चूक हुई; परंतु तब भी मनुष्यजाति सुख, सुविधाएं, आराम और प्रतिष्ठा के मायाजाल में फंस गई । जेम्स वैट के उपरांत उत्पादन बदलावों पर आधारित आज के अर्थशास्त्र के जनक एडम स्मिथ (वेल्थ ऑफ द नेशन्स – १७७६), उसके १०० वर्ष पश्‍चात प्रौद्योगिकी से संबंधित अनेक शोध करनेवाले, औद्योगीकरण एवं शहरीकरण को प्रचुर मात्रा में गति प्रदान करनेवाले तथा उससे विनाश को पृथ्वीव्याप्त परिणाम देनेवाले एडिसन जैसे तंत्रज्ञ एवं २० वीं शताब्दी में आई तंत्र-अर्थ की लहर में मनुष्यजाति समा गई । उसी को वह प्रगति और विकास मानने लगी । वैट, एडम स्मिथ अथवा एडिसन इत्यादि को, वे जो कुछ कर रहे हैं अथवा बता रहे हैं, भविष्य में उसके कितने भयानक परिणाम होंगे, इसका भान नहीं था । इससे प्रौद्योगिकी एवं आर्थिक तत्कालीन विश्‍व का प्रभाव और फैलाव इतना बढ गया कि उसी को लोग वास्तविक विश्‍व मानने लगे और पृथ्वी के वास्तविक विश्‍व के भान का विलोप हो गया ।

५. निर्धन व्यक्तियों के लिए अर्थव्यवस्था के समर्थकों का कथित शोर

     ७ वर्ष पूर्व इसका अनुभव हुआ । किसानों की आत्महत्याओं के कारण व्यथित होकर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, ‘गोदामों में अनाज का बहुत बडा भंडार है । इन परिवारों और देश में अन्न के अभाव में मरनेवाले निर्धन लोगों में अनाज का निःशुल्क वितरण किया जाए ।’ उसके पश्‍चात अर्थव्यवस्था समर्थक तत्काल आगे आ गए । तत्कालीन वित्तमंत्री चिदंबरम् ने कहा कि ‘इससे अर्थव्यवस्था संकट में आ जाएगी ।’ तब अर्थव्यवस्था समर्थकों ने यह शोर मचाया कि निर्धन लोग भूखे हैं; क्योंकि उनके पास क्रयशक्ति ही नहीं है अर्थात उनमें क्रयशक्ति लाने हेतु पहले हमें भौतिक विकास करने दें ।

     इसमें वास्तविकता यह है कि आप उन्हें (निर्धन लोगों को) अपनी क्रयशक्ति की तत्कालिक व्यवस्था में लेकर आए; इसी कारण वे मर रहे हैं, अन्यथा इस देश में १० सहस्र वर्ष तक उत्कृष्ट खेती हुई और इस अवधि में किसी भी किसान ने आत्महत्या नहीं की थी । औद्योगीकरण एवं विकास के कारण प्रकृति ध्वस्त होने से पूर्व प्रकृति फल-फूल रही थी और वह किसी को भूखे मरने नहीं देती थी । जनता को यह सोचना चाहिए कि ‘जब किसान और निर्धन संकट में थे, तब अन्य सुरक्षित थे । अब सभी शहरी भी संकट में हैं और अर्थव्यवस्था आपको मरने के लिए छोड देने पर तुल आई है ।’

६. औद्योगीकरण का अर्थ विकास, सबसे बडा अंधविश्‍वास !

     औद्योगीकरण का अर्थ विकास, सबसे बडा अंधविश्‍वास है । वर्तमान अर्थशास्त्र बिना किसी शाश्‍वत नींव के संपूर्ण असत्य, अवैज्ञानिक, अतार्किक, अनैतिक और बिना मूल की बात एवं संकल्पना है । जीवन अमूल्य है; इसलिए यातायात बंदी ही इसका एकमात्र उपाय है । पृथ्वी जीवन देने के लिए है, वह उसे ध्वस्त करनेवाले उद्योगों के लिए नहीं ! औद्योगिक युग की नौकरी बिलकुल अनावश्यक तथा जीवन के विरुद्ध दिशा में जानेवाली, कृत्रिम उत्पाद खरीदकर अर्थव्यवस्था नामक भ्रम को चलाए रखने हेतु संयोजित तथा यंत्रोत्तर कृत्रिम जगत की घातक व्यवस्था है । यह औद्योगिक कृत्रिम जगत ही कोरोना लेकर आया है । चाहे जैवविविधता तथा पृथ्वी पर स्थित दुर्गम पहाड, वन इत्यादि प्राकृतिक बनावट को नष्ट करना हो अथवा जैविक अस्त्र हेतु जनुकीय प्रयोग करने हों; ऐसी स्थिति में भी प्रकृति ही मनुष्य को बचा रही है; परंतु मनुष्य आज भी इसे स्वीकारने की स्थिति में नहीं है ।

     वाहन, कोयले से होनेवाला बिजली का उत्पादन और सीमेंट निर्मिति के कारण लगभग ९४ प्रतिशत दूषित वायु का उत्सर्जन होता है । यह उत्सर्जन यंत्रयुग की सभी वस्तुओं और उसके उपयोग के साथ जुडा हुआ है । उसके कारण कोरोना, कर्करोग तथा तापमानवृद्धि से मनुष्य को बचाना है, तो उसके लिए औद्योगीकरण को रोकना ही पडेगा ।

७. कोरोना एवं अन्य विषाणुओं के कारण होनेवाली बीमारियां तथा औद्योगीकरण से उनका संबंध !

     प्रश्‍न केवल कोरोना का नहीं है, अपितु कर्करोग एवं तापमानवृद्धि का भी है । १२ सितंबर २०१८ को प्रकाशित विश्‍व स्वास्थ्य संगठन के ब्यौरे में कहा गया है कि विश्‍व में वर्तमान में जीवित मनुष्यों में से एक मनुष्य को उसके जीवन में कर्करोग हो सकता है । ५ वर्ष पश्‍चात यही अनुपात ‘३ में से १ मनुष्य’ हो जाएगा । इसका अर्थ आज के ७५० करोड लोगों में १५० करोड और ५ वर्ष पश्‍चात २५० करोड लोग जीवन में कर्करोगग्रस्त हो जाएंगे । कोरोना, अन्य विषाणुओं का प्रसार एवं बीमारियों का संबंध औद्योगीकरण से है; परंतु जीवनशैली हेतु अपने जीवन का मूल्य चुकाने के लिए मनुष्यजाति तैयार है और वह उसका मूल्य चुका भी रही है । इसे क्या कहें ?

८. प्रकृति ने यदि, ‘मनुष्य पृथ्वी पर रहने के योग्य नहीं है’, यह निष्कर्ष निकाला, तो उसमें आश्‍चर्य कैसा ?

     करोडों वर्ष से नदियां इस जीवन की आधार एवं वाहक हैं । उन्होंने जीवन को विकसित किया; परंतु ‘मीठी नदी’ से लेकर गंगा-यमुना नदियों में विष और कचरा फेंका जाता है । इसे देखते हुए प्रकृति ने, ‘मनुष्य पृथ्वी पर रहने के योग्य नहीं है’, ऐसा निष्कर्ष निकाला, तो उसमें आश्‍चर्य कैसा ? एक बात निश्‍चित है कि कोरोना विषाणु तो उन्मत्त हुए मनुष्य को प्रकृति की दी हुई अंतिम चेतावनी और वर्ष २०२० अंतिम अवसर है । वर्ष १९८० में ऋतुचक्र टूट गया । वर्ष १९८१ में मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता को ध्वस्त करनेवाला एचआईवी विषाणु आ गया । यौन स्वैराचार पर बंधन आ गए, तब से नए-नए विषाणु आ रहे हैं । इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि मनुष्य ने अपनी मर्यादाएं लांघ दी हैं । अर्थव्यवस्था, औद्योगीकरण एवं शहरीकरण रुका, तो ही अस्तित्व टिक पाएगा । मनुष्य को पृथ्वी पर रहकर पृथ्वी के विरुद्ध जीना संभव नहीं होगा, अपितु प्राणियों की भांति ‘उसके लिए स्वीकार्य’ जीवन व्यतीत करें !

९. भारतीयता ही विश्‍व को बचाएगी !

जीवो जीवस्य जीवनम्, न्याय के अनुसार केवल जीने के लिए अन्न के रूप में जीवसृष्टि का सीमित प्राकृतिक उपभोग करना चाहिए; परंतु जीवनशैली के लिए संहार और असीमित उपभोग प्रकृति सहन नहीं करेगी । पृथ्वी को यह कभी भी अभिप्रेत नहीं था । इस ब्यौरे के अनुसार पृथ्वी के लगभग ९३ प्रतिशत क्षेत्र पर मनुष्य ने अनिष्ट हस्तक्षेप किया है अर्थात उसने अत्याचार किए हैं । कर्करोग नहीं चाहिए; परंतु गुटका नहीं छोडेंगे, यह संभव नहीं है । जीवन बचाना है, तो अर्थव्यवस्था को छोडना ही होगा और वह भी तत्काल ! मनुष्य के अस्तित्व का यह संघर्ष अपने ही मन के विरुद्ध तथा पृथ्वीविरोधी कल्पनाआें के विरुद्ध लडना है । भारतीय तत्त्वज्ञान हमारा मार्गदर्शन कर हमें बचा सकता है । पारंपरिक सेंद्रिय अथवा प्राकृतिक कृषि से अन्न, चरखा अथवा करघे पर बने वस्त्र, मिट्टी-बांस के घर जैसे संयम एवं सादगी पर आधारित १० सहस्र वर्ष का शाश्‍वत सदाहरित कृषियुग लाकर ही मनुष्यजाति एवं जीवसृष्टि की रक्षा करेंगे । भारतीयता जगी, तो वही विश्‍व को बचाएगी ।

– अधिवक्ता गिरीश राऊत, निमंत्रक, भारतीय जीवन एवं पृथ्वीरक्षा आंदोलन (२८.४.२०२०)