कोरोना से उत्पन्न विकट आर्थिक संकटों का सामना
कोरोना से उत्पन्न विकट आर्थिक संकटों का सामना करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को आत्मनिर्भर बनाने का जो मार्ग चुना है, वह निश्चित ही प्रशंसनीय है । कोरोना के कारण अवरुद्ध अर्थचक्र को गति देने के लिए मोदी ने २० लाख करोड रुपए का भारी-भरकम पैकेज घोषित किया है । यह राशि भारत की सकल राष्ट्रीय आय की १० प्रतिशत है । इतनी बडी आर्थिक सहायता करते समय सरकार ने देश को आत्मनिर्भर बनाने का जो लक्ष्य निर्धारित किया है, वह भारत के विकास के प्रयत्नों को स्थायी दिशा देनेवाला है ।
२० लाख करोड रुपए के सरकारी पैकेज में से ८ लाख करोड रुपए इसके पहले ही रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार ने कोरोना से लडनेवाली योजनाओं पर व्यय किया है अथवा वैसा करने का प्रस्ताव है । शेष १२ लाख करोड रुपए में से लघु और मध्यम उद्योगों को बल देने के लिए सरकार ने ३ लाख करोड रुपए का ऋण बिना कुछ गिरवी रखे देने का निर्णय लिया है । साख के अभाव में तथा क्लिष्ट नियमों के कारण दुर्बल होते जा रहे अति लघु, लघु और मध्यम स्तर के उद्योगों की सहायता के लिए लिया गया यह निर्णय अति महत्त्वपूर्ण है । पैकेज की अन्य राशि किन-किन घटकों के लिए और किस रूप में देने का निर्णय हुआ है, यह वित्तमंत्री निर्मला सीतारामन के बयान से सामने आया है । इस माध्यम से सरकार ने देसी उद्योगों को गति देकर, स्वदेशी ब्रांड निर्माण करने का जो प्रयत्न आरंभ किया है, वह प्रशंसनीय है ।
आत्मतेज जगानेवाली शिक्षा
स्वतंत्रता के पश्चात जो विदेशी है, वह अच्छा है ऐसी भ्रामक धारणा भारत में जानबूझकर लोगों के मन में दृढ की गई । इसका मूल कारण भारतीयता के विषय में हीन भावना उत्पन्न कर, अंग्रेजियत के रंग में रंगे विद्यार्थी तैयार करनेवाली मैकॉले की शिक्षा-पद्धति थी । हीन भावना दृढ करनेवाली यह शिक्षापद्धति अभी भी जारी है । जब तक यह अनुपयोगी शिक्षापद्धति परिवर्तित कर विद्यार्थियों का सब प्रकार से कल्याण और सर्वांगीण विकास करनेवाली, राष्ट्रप्रेम बढानेवाली, प्राचीन संस्कृति के विषय में स्वाभिमान उत्पन्न करनेवाली और विद्यार्थियों का आत्मतेज जगानेवाली शिक्षापद्धति लागू नहीं होती, तब तक देश का आत्मनिर्भर बनना कठिन है । केवल आर्थिक स्तर की आत्मनिर्भरता एक सीमा तक सफलता दिला सकती है; परंतु व्यापक स्तर पर सफलता प्राप्त करने के लिए आत्मनिर्भर बनानेवाली शिक्षा भी विद्यार्थियों को मिले, इस दिशा में सरकार को पग बढाने चाहिए ।
स्वदेशी को प्रोत्साहन
आत्मनिर्भर भारत अभियान में स्वदेशी को प्रोत्साहन एक अनिवार्य प्रावधान है । मुक्त व्यापार नीति की आंधी में भारतीय स्वदेशी कवच छिन्न-भिन्न हो गया । ऐसी स्थिति में स्वदेशी के प्रणेता स्व. राजीव दीक्षित ने झंझावात की भांति कार्य कर, विदेशी प्रतिष्ठानों की लूट को जनता के सामने उजागर किया । स्वतंत्रता की लडाई में इसी स्वदेशी आंदोलन ने लाखों भारतीयों के मन देशप्रेम से ओतप्रोत कर, उन्हें उस संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था । जब स्वतंत्रता मिली, तब भारत में केवल ७३३ विदेशी प्रतिष्ठान कार्यरत थे । सत्ता हस्तांतरण के समय ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत से निष्कासित किया गया । क्योंकि, इसी कंपनी के अत्याचार के कारण भारत पर अंग्रेजी राज्य आया था । वर्तमान में भारत में ५ सहस्र से अधिक विदेशी प्रतिष्ठान सक्रिय हैं और वह भी भारतीय उद्योगों का गला दबाकर ! ऐसी परिस्थिति में स्वदेशी आंदोलन को पुनः जीवित करने के लिए कुछ ठोस उपाय करना और जनता का आत्मविश्वास तथा कुछ कर दिखाने की प्रेरणा जगाना आवश्यक था । इसमें एक अच्छा काम सरकार ने यह भी किया है कि उसने २०० करोड रुपए तक के ठेकों के लिए विदेशी प्रतिष्ठानों पर रोक लगा दी है । स्वदेशी केवल वस्तु नहीं, अपितु एक विचारधारा है । एक स्वदेशी उद्योग कडी प्रतियोगिता के काल में भी अल्पकाल में ही विदेशी प्रतिष्ठानों के एकाधिकार को ध्वस्त कर सकता है, यह पतंजलि उद्योगसमूह ने कर दिखाया है । ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं । विश्व के कोरोना पीडितों के लिए आशा की किरण बनी हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन औषधि भारत की ही देन है ।
मेक इन इंडिया अभियान या विदेशी उत्पादों के आयात पर कर बढाना भी, सरकार की ओर से स्वदेशी को गति देने के लिए उठाया गया पग है । मुक्त व्यापार नीति के कारण सरकार को अपने स्तर पर कुछ करने की सीमाएं हैं; फिर भी सरकार जनता को जागरुक तो कर ही सकती है । स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग के विषय में जनप्रबोधन के विज्ञापन जारी करना, जगह-जगह स्वदेशी वस्तु वितरण केंद्र बनाना, उसके लिए अनुदान देना, ऐसे अनेक प्रयत्न अब होने चाहिए । स्वदेशी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए विदेशी वस्तुओं की लत, बडप्पन का आडंबर और जनता के मन में दृढ हुई दासता (गुलामी) की भावना निकालनी होगी । अंग्रेजों के भारत आने से पहले यह देश एक आर्थिक महाशक्ति और सांस्कृतिक गुरु था । विदेशी अर्थशास्त्री एंगस मेडिसन के कथनानुसार १७ वीं शताब्दी में विश्व व्यापार में भारत का भाग लगभग २५ प्रतिशत था । यह गौरव विदेशों का अंधानुकरण करने से नहीं, अपितु स्वावलंबी होने से ही मिलेगा । आत्मनिर्भरता का पंख, भारत की ऊंची उडान में सहायक होंगे ।