दिव्य सिद्ध मंत्र एवं योगसामर्थ्य के बल पर निरंतर सनातन की रक्षा करनेवाले, परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का महामृत्युयोग टालनेवाले तथा ईश्वरीय राज्य की स्थापना में उत्पन्न बाधाएं दूर करने हेतु असीमित प्रयास करनेवाले योगतज्ञ दादाजी वैशंपायनजी !

     ९.५.२०२० को योगतज्ञ दादाजी की पुण्यतिथि है; योगतज्ञ दादाजी काल का पर्दा हटाकर अतीत अथवा भविष्य की अनेक घटनाएं बताते थे और जनहितार्थ आवश्यक हो, तो उस अनिष्ट घटना को टाल भी देते थे । दादाजी के इसी निरपेक्ष प्रेमभाव के कारण सनातन संस्था अभी भी जीवित है और कार्यरत है, यह केवल और केवल योगतज्ञ दादाजी के कृपाशीर्वाद के कारण ही !

     योगतज्ञ दादाजी वैशंपायनजी के इस अद्वितीय अवतारी कार्य के विश्‍लेषित क्षणमोती, परत्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी के कृतज्ञतामय शब्दों में !

बांय से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी और योगतज्ञ दादाजी वैशंपायनजी

१. घर के सदस्य समान प्रेम करनेवाले योगतज्ञ दादाजी

     मेरे गुरु संत भक्तराज महाराजजी ने वर्ष १९९५ में देहत्याग किया । उसके पश्‍चात अध्यात्म के संदर्भ में साथ खुलकर बात कर सकूं, ऐसा मेरे लिए कोई नहीं था । वर्ष २००५ में अकस्मात योगतज्ञ दादाजी वैशंपायनजी से मेरा परिचय हुआ और उसके पश्‍चात मेरी उनसे इतनी निकटता हुई कि उनके जितनी मेरी निकटता व्यवहार में भी किसी से नहीं हुई थी । मुझे उनके साथ सबकुछ खुलकर बोलना संभव होने लगा । इसका कारण था उनका स्वभाव ! हम दोनों की आयु में २३ वर्ष का अंतर था; परंतु उन्होंने उसका कभी भान नहीं होने दिया । उन्होंने अंत तक मुझ पर घर के सदस्य समान प्रेम किया । उनके मुखमंडल की ओर देखकर इतना प्रेम प्रतीत होता था कि उनकी ओर देखते ही रहने का मन करता था । उनकी बातों में इतनी मिठास थी कि उनकी बातें सुनते रहें, ऐसा लगता था ।

२. योगतज्ञ दादाजी वैशंपायनजी देहधारी ऋषि व प्रेम का सागर !

     योगतज्ञ दादाजी ने ऋषियों की भांति अनेक वर्ष तक कठोर तपस्या की, साथ ही उनके पास ऋषियों जैसी अनेक सिद्धियां भी थीं । भले ही ऐसा हो; परंतु कुछ ऋषियों के संदर्भ में जैसे वे क्रोधित हुए, तो शाप देंगे, यह जो भय था, उस प्रकार का भय दादाजी से कभी नहीं लगा; क्योंकि योगतज्ञ दादाजी तो प्रेम का सागर थे !

३. पितृवत प्रेम करनेवाले योगतज्ञ दादाजी वैशंपायनजी !

     मेरे और सनातन संस्था पर मंडरा रहे संकटों की शृंखला दूर करने हेतु वे दिन-रात सबकुछ दांव पर लगाकर प्रयास करते थे और इस संदर्भ में उनमें किसी प्रकार से ऋणभरपाई की अपेक्षा कणभर भी नहीं रहती थी । योगतज्ञ दादाजी कैसे और कितनी सहायता करते थे, वे इसका भान भी नहीं होने देते थे । प.पू. दादाजी ने जब सहायता करना आरंभ किया, तब हमारा परिचय नहीं था । इसका अर्थ मैं उनसे परिचित नहीं था; परंतु वे मुझे पहचानते थे !

     हम जब उन्हें किसी भी संकटकालीन प्रसंग के संदर्भ में सूचित करते थे, तब वे तुरंत कहते, जी हां, मुझे यह ज्ञात है और उसके लिए मैं उपचार भी कर रहा हूं । योगतज्ञ दादाजी जैसे द्रष्टा संतों को उनमें विद्यमान दिव्य शक्ति के कारण सनातन पर आनेवाले किसी भी संकट के संदर्भ में पहले ही ज्ञात होता था और उसके निवारण हेतु वे अविलंब उपचार आरंभ करते थे । ऐसे समय में वे अपने स्वास्थ्य की तनिक भी चिंता नहीं करते थे । संकट आने से पहले भी वे प्रतिबंधजन्य उपचार कर प्रतिक्षण हम सभी की रक्षा करते थे । सनातन की सहायता हेतु तत्परता के साथ दौडकर आनेवाले वात्सल्यस्वरूप दादाजी का यह निरपेक्ष प्रेमभाव देखकर मन भावविभोर हो जाता था । योगतज्ञ दादाजी के प्रति चाहे कितनी भी कृतज्ञता व्यक्त की जाए, अल्प ही है ।

     मेरी थकान बढी या मुझे थोडा अच्छा लगा, तो ठीक उसी दिन प.पू. दादाजी का दूरभाष आता था । एक बार मैंने उनसे पूछा, दादाजी मेरी थकान बढी या मुझे थोडा सा अच्छा लगा, तो आप ठीक उसी दिन दूरभाष कैसे करते हैं ? उस पर उन्होंने कहा, हमारा तो जॉईन्ट एकाऊंट है; उसके कारण सब ज्ञात हो जाता है !

४. दैवी सिद्धियों का उपयोग सदैव जनकल्याण हेतु करना

     पृथ्वी पर विद्यमान उच्च आध्यात्मिक क्षमता से युक्त कुछ चुनिंदा संतों में से एक थे योगतज्ञ दादाजी ! उन्होंने आयु के १६ वें वर्ष से साधना आरंभ की, हिमालय की कंपकंपाती ठंड में भी तपस्या जैसी कठोर साधना की । विशेष बात यह कि इस तपस्या से उन्हें जो आध्यात्मिक बल, साथ ही दैवी सिद्धियां प्राप्त हुईं, उनका उपयोग उन्होंने सदैव जनकल्याण हेतु ही किया । दादाजी के उपायों की विशेषताएं ये हैं कि वे स्थूल और सूक्ष्म, दोनों स्तरों के उपचारों की योजना करते थे । उनके सिद्धमंत्रों में इतनी शक्ति होती थी कि मंत्रपारायण से साधकों को अनेक प्रकार के लाभ मिलते थे । उनके द्वारा सिद्ध दत्तमाला मंत्रपारायण से प्राप्त अनुभूति – रामनाथी आश्रम के ध्यानमंदिर में साधकों द्वारा इस मंत्र का पारायण करने की कुछ अवधि के पश्‍चात ध्यानमंदिर के बाहर के परिसर में अपनेआप ही ३०० से अधिक गूलर (उदूंबर) वृक्ष उग आए    । वातावरण पर मंत्रों का कैसे प्रभाव होता है, इसका दृश्य परिणाम दिखानेवाला यह उदाहरण है तथा उससे उनके मंत्रसामर्थ्य की प्रतीति होती है ।

५. काल को भी पहचाननेवाले योगतज्ञ दादाजी का द्रष्टापन

     वाल्मीकि ऋषि ने रामजन्म से पूर्व रामायण लिखी और आगे जाकर उसके अनुसार ही अचूकता से रामायण घटित हुआ, ऐसा हमने पढा है । तब अधिकांश लोगों के मन में यह कैसे संभव हो सकता है, इस प्रकार संदेहात्मक प्रतिक्रिया आती है । यह सब सत्य है, ऐसा अनुभव योगतज्ञ दादाजी वैशंपायनजी द्वारा अनेक वर्ष पहले ही लिखकर, पश्‍चात घोषित की अनेक भविष्यवाणियों से होता है । योगतज्ञ दादाजी काल का पर्दा हटाकर अतीत अथवा भविष्य की अनेक घटनाएं बताते थे और जनहितार्थ आवश्यक हो, तो उस अनिष्ट घटना को टाल भी देते थे । उन्होंने मेरे और सनातन संस्था के संदर्भ में भी अनेक भविष्यवाणियां की थीं । आश्‍चर्य की बात यह कि उनके साथ स्थूल से परिचय होने के पूर्व ही उन्होंने वर्ष २००४ में मेरा महामृत्युयोग और सनातन संस्था के परात्पर गुरु देशपांडेजी के देहत्याग की भविष्यवाणी कर दी थी । (२४.९.२०१० को परात्पर गुरु देशपांडेजी का देहत्याग हुआ ।) उन्होंने उसे वर्ष २०१० में उजागर किया । प.पू. दादाजी द्वारा समय-समय पर की भविष्यवाणियों में मेरे कार्य का अर्थात सनातन संस्था के कार्य का उल्लेख है ।

६. योगतज्ञ दादाजी द्वारा परात्पर गुरु डॉक्टरजी पर आए हुए
महामृत्युयोग के भयावह संकट को अपनी दैवी शक्ति से दूर करना

     प.पू. दादाजी की दैवी सहायता के कारण मुझ पर अनेक बार आया महामृत्युयोग का संकट दूर हुआ । प.पू. दादाजी कठोर साधना कर मेरे स्वास्थ्य का बहुत ध्यान रखते थे । प.पू. दादाजी कहते, आप बचे, तभी आपके अध्यात्मप्रसार का कार्य टिक पाएगा; इसलिए आपके जीवन की डोर मजबूत करने के लिए सदैव मेरे प्रयास चल रहे हैं । वर्ष २००७ से मुझ पर अनेक बार मृत्युयोग आए । किसी भी विशेषज्ञ ज्योतिषी ने वर्ष २०१० के पश्‍चात मेरा भविष्य नहीं बताया है; क्योंकि तब तक मैं जीवित ही नहीं रह सकता था । ऐसा होते हुए भी प.पू. दादाजी वैशंपायनजी के किए अखंड अनुष्ठानों के कारण मैं आज भी प्रतिदिन अनेक घंटे ग्रंथलेखन की सेवा कर पा रहा हूं और राष्ट्र-धर्म हेतु थोडा-बहुत कार्यरत हूं । अतः मैं शब्दों में इतना ही बता सकता हूं कि मैं और सनातन संस्था अभी भी जीवित हैं और कार्यरत हैं, वह केवल प.पू. दादाजी के कृपाशीर्वाद के कारण ही !

७. सनातन के आधारस्तंभ

     योगतज्ञ दादाजी जिस क्षण सनातन के संपर्क में आए, उसी क्षण से उन्होंने सनातन के प्रत्येक साधक, तथा सनातन के कार्य के आध्यात्मिक स्तर का संरक्षण अपने ऊपर ले लिया । सनातन के साधकों को बहुत कष्ट हो रहे थे, तब उन्होंने अपना आध्यात्मिक सामर्थ्य सनातन के पीछे खडा किया । इसलिए वे सनातन के लिए बहुत बडे आधारस्तंभ रहे हैं । प्रतिक्षण और प्रत्येक स्थिति में उनके स्वयं की प्राणशक्ति अत्यंत अल्प होते हुए भी दादाजी सनातन के साथ दृढता के साथ खडे रहे । उनकी दैवी सहायता के कारण ही साधकों के कष्टों का निवारण भी होता था ।

     मध्यावधि में सनातन के साधकों को कष्ट पहुंचाना और संस्था के राष्ट्र एवं धर्मजागृति के कार्य बंद करना, अनिष्ट शक्तियों का नियोजन है । समय-समय पर प.पू. दादाजी के किए अनुष्ठानों के कारण सनातन के साधकों के कष्ट दूर होते चले गए । प.पू. दादाजी ने सनातन के साधकों पर होनेवाली बडी अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण दूर करने हेतु त्र्यंबकेश्‍वर, नृसिंहवाडी, गाणगापुर, हिमालय के अनेक स्थान और तिरुपति में अनेक अनुष्ठान निरंतर जारी रखे थे । मेरे और सनातन के प्रति प्रेमभाव के कारण स्वयं अधिकाधिक निर्गुण स्थिति में होते हुए और असंख्य कष्ट झेलकर इस आयु में भी अनुष्ठान करना तो दादाजी जैसे महान विभूति ही कर सकते हैं । इसके कारण ही सनातन के साधक ऐसे घोर संकटकाल में भी साधना कर पा रहे हैं । प.पू. दादाजी के कृपाशीर्वाद के बल पर ही यह संभव हो रहा है ।

     सनातन पर उनकी और एक कृपा यह थी कि उन्होंने सनातन के साधक श्री. अतुल पवार पर अखंड कृपा कर उन्हें अपने यहां सेवा हेतु रखा ! उसके कारण साधना में श्री. पवार की भी अच्छी प्रगति हुई है ।

कृतज्ञता

     ऐसे योगतज्ञ दादाजी का पितृवत छत्र प्राप्त होना, सनातन पर ईश्‍वर की बडी कृपा है और इस कारण ही आज सनातन संस्था के कार्य का विस्तार हो रहा है । दादाजी तो सनातन के लिए अमूल्य एवं अद्वितीय वरदान हैं । उनका ऋण चुकाना सर्वथा असंभव है । भारत और हिन्दू धर्म को योगतज्ञ दादाजी वैशंपायन जैसे सिद्धपुरुष मिलना, हमारा सौभाग्य है । हम पर उनका कृपाशीर्वाद बना रहेगा और ईश्‍वरीय राज्य की स्थापना होगी, इसके प्रति हम आश्‍वस्त हैं ।

     योगतज्ञ दादाजी ने भले ही देहत्याग कर दिया हो; परंतु वे आज भी हमारे साथ हैं, इसका हम अनुभव कर रहे हैं ।

     योगतज्ञ दादाजी के संदर्भ में कितना भी लिखा जाए, वह लेखन कभी पूर्ण नहीं होगा; इसलिए उनके चरणों में अनंत कृतज्ञता व्यक्त कर मैं अपनी लेखनी को विराम देता हूं ।

– (परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले