राजनीतिक नेताआें की बयानबाजी देश के लिए नई नहीं है । अनेक बार बडे-बडे नेताआें की जीभ सार्वजनिक स्थानों पर फिसलती दिखाई देती है । ऐसी घटनाआें से बदनामी केवल उस नेता की अथवा उसके दल की नहीं होती; अपितु समूची राजनीति का ही स्तर गिरा हुआ लगता है, यह इन उदाहरणों से लगता है । मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ ने मध्य प्रदेश के उपचुनाव में प्रचार करते समय महिला प्रत्याशी इमरतीदेवी को ‘आइटम’ कहा । कमलनाथ के ऐसा कहने पर वहां उपस्थित लोग हंसने लगे । पश्चात, स्पष्टीकरण में कहा, ‘उनका नाम याद नहीं आया, इसलिए वैसा कहा ।’ तो क्या किसी महिला का नाम याद न आने पर उसे ‘आइटम’ कहा जा सकता है ? कमलनाथ के ऐसा कहने पर वहां उपस्थित लोग हंसने लगे । इसके पहले दिग्विजय सिंह ने भी कांग्रेस की लोकसभा सांसद मीनाक्षी नटराजन को ‘टंच माल’ कहा था ।
महिलावाद का ढोंग
अपने नेताआें के ऐसे बयानों पर दल के नेता और पदाधिकारी चुप्पी साध लेते हैं । हाथरस में हुए बलात्कार प्रकरण में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार को कठघरे में खडा करनेवाली कांग्रेस की प्रियंका गांधी कमलनाथ के बयान पर चुपचाप क्यों रहती हैं ? पूरे देश में किरकिरी होने लगने पर राहुल गांधी ने कहा, ‘कमलनाथ का बयान दुर्भाग्यपूर्ण है ।’ स्थानीय प्रशासन की अनुमति न होने पर भी हाथरस की बलात्कार पीडिता से मिलने के लिए पैदल चलना, पुलिस के रोकने पर उससे हाथापाई करना, क्या यह सब नाटक मतदाताआें को दिखाने के लिए तथा राज्य की भाजपा सरकार को अडचन में डालने के लिए किया गया था ? ऐसे समय चुप रहना, लोकलाज के कारण दिखावे के लिए बयान देकर समय निकालना, यह कमलनाथ के बयान का एक प्रकार से समर्थन करना है । अर्थात, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी ने इस समय कमलनाथ की टिप्पणी पर कुछ प्रतिक्रिया दी होती, तो वह केवल औपचारिकता होती । महिलाआें के विषय में चिंता होती, तो दल ने ऐसे बडबडिया और दुष्ट नेताआें के विरुद्ध बहुत पहले कार्यवाही की होती । जिस दल के बडे नेता महिलाआें के विषय में ऐसी अश्लील टिप्पणी करते हों, उस दल के पदाधिकारियों में महिलाआें के विषय में आदर कैसे होगा ? ये राजनीतिक दल, नेता और जनप्रतिनिधि समाज को किस दिशा में ले जाएंगे ?
उदासीन समाज
कमलनाथ, दिग्विजय सिंह ने जो अश्लील टिप्पणी की है, वैसी टिप्पणियों का सामना साधारण महिलाआें को अनेक बार करना पडता है । जब राजनीतिज्ञ लोग सार्वजनिक मंच से इस प्रकार की तुच्छ बात करते हैं, तब उनकी केवल शाब्द़िक आलोचना होती है, यह उनका सौभाग्य कहा जाए अथवा भारतीय समाज का दुर्भाग्य ? भारतीय जनता कहीं ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’की बलि तो नहीं चढी है ? ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’ का अर्थ है, अपने पर अन्याय करनेवालों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न होना । वर्ष १९७३ में स्वीडन के स्टॉकहोम शहर में एक अधिकोष पर २ शस्त्रधारी डाकुआें ने डाका डाला । उस समय वहां उपस्थित कर्मचारियों का डाकुआें ने अपहरण किया और कुछ दिन बाद छोड दिया । ‘डाकुआें ने हमारा केवल अपहरण किया, हत्या नहीं की’, इसलिए उन कर्मचारियों को डाकुआें के प्रति सहानुभूति जगी । आगे, उन कर्मचारियों ने डाकुआें को कारागार से छुडाने के लिए धनसंग्रह किया और सहायत की ! भारतीय लोकतंत्र में ऐसे नीतिहीन, भ्रष्टाचारी, दुराचारी राजनीतिज्ञ बार-बार चुनाव जीतकर विधान मंडल अथवा संसद में पहुंचते हैं और समाज में माथा ऊंचा कर घूमते हैं, क्या ऐसा आचरण पराभूत मानसिकता का प्रतीक नहीं है ? जब सामान्य महिला और लोगों की भीड को यह समझता है कि ‘अश्लील टिप्पणी करनेवालों का प्रतिकार करना चाहिए’, तब कमलनाथ के सामने बैठे जन-समूह को ऐसा क्यों नहीं लगा ? क्या हमें ऐसे राजनीतिज्ञों के प्रति सहानुभूति लगती है ? हमारे समाज में ऐसे पतित लोगों के अनुयायियों की संख्या बडी है । क्या हमें उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, नीति-अनीति में भेद बतानेवाला हमारा विवेक समाप्त हो गया है ? बलात्कार की बढती घटनाएं, विनयभंग के प्रसंग, महिलाआें पर खुलकर होनेवाली अश्लील टिप्पणियां क्या दर्शाती हैं ? पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव के समय एक सनदी महिला अधिकारी का छायाचित्र सब प्रचारमाध्यमों में दिखाई दे रहा था । उसने किसी रंग की साडी पहनी है, उसका ‘गॉगल’ किस प्रकार का है आदि समाचार प्रसारित किए जा रहे थे । उस मतदान केंद्र में कितना मतदान हुआ, वहां क्या अनाचार हुआ आदि के विषय में किसी को कुछ लेना-देना नहीं था । ऐसी हमारे सामाज की मानसिकता बनती जा रही है ।
एक ओर महिला सशक्तिकरण की घोषणाएं करना, कानून अधिकाधिक कठोर बनाने की बात करना, महिलाआें को कैसे पीडित किया जा रहा है और हमारा ही दल उनकी रक्षा कैसे कर सकता है आदि की ढींग हांकना और दूसरी ओर ऐसा गिरा आचरण करना ! यह आज की सच्चाई है मित्रो ! सुरक्षित वातावरण तो दूर की बात, नीतिवान जनप्रतिनिधि मिलना ही भारतीय समाज की पहली आवश्यकता है !