बच्चे असंस्कारी होने का परिणाम !

‘मातृदेवो भव । पितृदेवो भव ।’ (तैत्तिरीयोपनिषद्, शीक्षा, अनुवाक ११, वाक्य २ ) अर्थात ‘माता और पिता को ईश्वर मानें’, माता पिता द्वारा बालकों पर बाल्यावस्था से ही ऐसा संस्कार न करने के कारण बडे होने पर माता-पिता के संदर्भ में मतलब निकल गया, तो पहचानते नहीं ’, ऐसी उनकी वृत्ति हो जाती है तथा वे माता पिता को वृद्धाश्रम में रखते हैं, इसमें आश्‍चर्य की क्या बात है ?’

कहां लगभग ३५०० वर्ष पूर्व ही निर्मित हुए विविध धर्म (पंथ) तथा कहां अनादि अनंत सनातन धर्म !

१४०० वर्ष पूर्व इस संसार में एक भी मुसलमान नहीं था, २१०० वर्ष पूर्व इस संसार में एक भी ईसाई नहीं था, २८०० वर्ष पूर्व एक भी बौद्ध अथवा जैन नहीं था तथा ३५०० वर्ष पूर्व इस संसार में एक भी पारसी नहीं था; फिर इसके पूर्व इस संसार में कौन था ? केवल हिन्दू थे । सनातन हिन्दू धर्म अनादि तथा अनंत है और सबका मूल धर्म हिन्दू ही है ।’

राष्ट्रविरोधी व्यक्ति स्वतंत्रता वाले !

‘व्यक्ति की अपेक्षा समाज एवं समाज की अपेक्षा राष्ट्र महत्त्वपूर्ण है, यह न समझनेवाले व्यक्ति स्वतंत्रता के पक्षधर देश को विनाश की ओर ले जा रहे हैं !’

संपूर्ण सृष्टि के कर्ता-करावनहार भगवान का ही अस्तित्व नकारने वाले बुद्धिवादी !

‘कर्ता द्वारा बनाई गई वस्तु कभी भी कर्ता से श्रेष्ठ नहीं हो सकती, उदा. बढई द्वारा बनाई गई कुर्सी कभी भी बढई से श्रेष्ठ नहीं हो सकती । ऐसा होते हुए भी भगवान द्वारा निर्मित कुछ मनुष्य संपूर्ण सृष्टि के कर्ता-करावनहार भगवान को ही तुच्छ समझते हैं !’

हास्यास्पद बुद्धिवादी !

‘जिस प्रकार जन्म से दृष्टिहीन कोई व्यक्ति कहे, ‘देखना, दृष्टि, ऐसा कुछ होता है’, यह मानना अंधश्रद्धा है’; उसी प्रकार बुद्धिवादी कहते हैं, ‘सूक्ष्म दृष्टि जैसा कुछ है’, यह मानना अंधश्रद्धा है !’

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी के ओजस्वी विचार

‘अपनी इच्छा के अनुसार न हो, तो मानसिक तनाव बढता है और आगे अनेक मनोविकार होते हैं । इसके लिए आजकल के मनोविकार विशेषज्ञ विविध उपाय सुझाते हैं; परंतु कोई भी यह नहीं सिखाता कि स्वेच्छा नहीं रखनी चाहिए ।

हिन्दू नववर्षारंभ (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) से व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में रामराज्य स्थापित करने का संकल्प करें !

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी का नववर्ष के अवसर पर संदेश

रज-तम का प्रदूषण सभी प्रदूषणों की जड है !

‘ध्वनिप्रदूषण, जलप्रदूषण, वायुप्रदूषण आदि से संबंधित सदैव समाचार आते हैं; परंतु धर्म शिक्षा के अभाव में उनकी जड रज-तम के प्रदूषण की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता !’

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के ओजस्वी विचार

‘आध्यात्मिक उन्नति हेतु साधना करने में ‘त्याग’ एक महत्त्वपूर्ण चरण होता है । इसमें तन, मन एवं धन गुरु अथवा ईश्वर को अर्पित करना आवश्यक होता है । अनेक संप्रदाय अपने भक्तों को नाम, सत्संग जैसे सैद्धांतिक विषय सिखाते हैं; परंतु त्याग के विषय में कोई नहीं सिखाता ।

इस संसार में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं, जिसका कोई उपयोग नहीं !

‘अंधकार के कारण प्रकाश का, दुर्गंध के कारण सुगंध का, और मूर्ख के कारण बुद्धिमान का महत्त्व समझ में आता है !’