विज्ञान एवं अध्यात्म के अनुसार सगुण-निर्गुण !

अनेक बार आध्यात्मिक क्षेत्र में परमात्मा के संबंध में चर्चा होती रहती है । अन्य पंथ ‘ईश्वर एक ही हैं तथा वे निर्गुण हैं’, इस मत के होते हैं । इतना ही नहीं, वे सगुण उपासना अथवा मूर्तिपूजा इत्यादि का विरोध भी करते हैं; परंतु सनातन हिन्दू धर्म ईश्वर के सगुण-निर्गुण रूप के विषय में स्पष्टता से बताता है । साथ ही सगुण, साकार, अवतार एवं मूर्तिपूजा के विषय में भी बताता है । ‘सगुण को समझे बिना निर्गुण को समझना कठिन है’, ऐसा कहा जाता है । इस कारण समाज में लोग अनेक बार प्रश्न पूछते हैं । उनका यह कहना होता है, ‘ईश्वर केवल निर्गुण हैं; सगुण नहीं हैं ।’ , यही निश्चित रूप से किसी को भी ज्ञात नहीं हुआ है; इसलिए उसकी प्राप्ति हुई, ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण होगा । इसके विपरीत सगुण साकार की अनुभूति होने से उसके अव्यक्त चराचर स्वरूप की अर्थात निर्गुण की अनुभूति होना सरल एवं सुलभ होता है । इसके संदर्भ में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की कृपा से मुझे अंतर से विज्ञान एवं अध्यात्म, साथ ही उनके संदर्भ में सगुण एवं निर्गुण के विषय में कुछ सूत्र सूझे । वे इन दोनों संकल्पनाओं को सुस्पष्ट करते हैं, इसकी मुझे अनुभूति हुई ।


१. विज्ञान में निर्गुण एवं सगुण 

मुझे अंतर से यह सूझा कि मान लीजिए की भौतिकी पढा हुआ विज्ञानवादी, रसायनशास्त्र पढा हुआ विज्ञानवादी तथा सामान्य व्यक्ति एकत्रित हुए तथा उन्होंने ‘पानी क्या होता है ?’, इस विषय पर बातचीत की, तो वे विभिन्न प्रकार से उसका विश्लेषण करेंगे ।

अ. रसायनशास्त्र के अनुसार पानी का वर्णन : रसायनशास्त्र पढा हुआ विज्ञानवादी रसायनशास्त्र के समीकरण के अनुसार ‘पानी अर्थात H2O’, ऐसा कहेगा तथा कागद पर लिखकर भी देगा । यह है पानी का निर्गुण स्वरूप; क्योंकि यहां प्रत्यक्ष पानी नहीं, अपितु पानी का रासायनिक स्वरूप कागद पर लिखा है । शास्त्र के अनुसार वह पानी ही होता है; परंतु उसे पिया नहीं जा सकता । वह केवल ज्ञानार्जन के लिए उपयोगी होता है ।

आ. भौतिकी के अनुसार पानी का वर्णन : रसायनशास्त्र पढा हुआ व्यक्ति पानी को सहजता से H2O बोलकर रुक जाता है; परंतु इस संदर्भ में भौतिकी का विज्ञानवादी क्या कहेगा ? वह कहता है, ‘नहीं ! केवल ऐसा कहना पर्याप्त नहीं है । १ ऑक्सिजन एवं २ हाइड्रोजन के परमाणु एकत्रित होकर जो बनता है वह है पानी !’ तो वह कागद पर पानी का ‘मॉलिक्युलर ऑर्बिटल फॉर्मूला’ बनाकर यह दिखाता है कि H2O का अर्थ है २ हाइड्रोजन एवं १ ऑक्सिजन की रचना से युक्त तरल पदार्थ ! कुल मिलाकर यह चित्र तो पानी के निर्गुण स्वरूप की रचना का दर्शक होता है । शास्त्र के अनुसार वह पानी ही होता है; परंतु वह पीनेयोग्य अथवा प्यास बुझानेवाला न होकर केवल ज्ञानार्जन के लिए ही उपयोगी होता है ।

इ. सामान्य व्यक्ति के दृष्टिकोण से पानी का वर्णन : सामान्य व्यक्ति को पूछने पर वह एक गिलास में पानी ले आएगा तथा बोलेगा, ‘इस गिलास में जो तरल पदार्थ है, वह पानी है । यह प्रत्यक्ष पानी है । उसे पीना संभव है तथा उससे प्यास बुझती है । इस व्यक्ति को भले ही उसका शास्त्रीय ज्ञान न हो; परंतु उसने अनुभूति ली है । आगे जाकर यदि वह शास्त्रों को पढे, तो उसे पानी के निर्गुण स्वरूप का भी ज्ञान होता है । अर्थात निर्गुण के सगुण की अनुभूति न हो, तो अंततः निर्गुण क्या है, यह समझ में ही नहीं आएगा ।

(सद्गुरु) डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी

२. सगुण की सरलता तथा निर्गुण के ज्ञान के लिए सगुणता की आवश्यकता

अ. मान लीजिए की हमारे पास रसायनशास्त्र का H2O फॉर्मूला लिखा हुआ एक कागद है, दूसरा ‘मॉलिक्युलर ऑर्बिटल फॉर्मूला’ का चित्र अंकित कागद है तथा तीसरा एक गिलास में प्रत्यक्ष लाकर रखा हुआ पानी है । किसी छोटे बच्चे को बुलाकर उसे ये तीनों बातें दिखाईं तथा उससे पूछा कि इनमें से पानी कौनसा है ?, तो वह पानी के गिलास की ओर संकेत करेगा ।

आ. आगे विज्ञान की शिक्षा प्राप्त छात्र कहेगा कि कागद पर लिखा H2O पानी है तथा वह इस गिलास में रखा तरल पदार्थ है अथवा इस कागद पर जिसका ‘मॉलिक्युलर फॉर्मूला’ लिखा है, वह पदार्थ है गिलास में रखा पानी !

३. विज्ञानवादियों का अध्यात्म से संघर्ष होने का कारण

अ. यहां कागद पर लिखा H2O हो अथवा कागद पर ‘मॉलिक्युलर फॉर्मूला’ का चित्र हो, इसे पानी का शास्त्रीय प्रतीक अर्थात पानी का निर्गुण स्वरूप मान लेते हैं । यदि ऐसा है, तो गिलास में रखा पानी उसका सगुण स्वरूप है; क्योंकि कागद पर लिखा H2O अथवा कागद पर लिखा ‘मॉलिक्युलर फॉर्मूला’ ज्ञानपिपासा पूर्ण करेगा; परंतु प्यास नहीं बुझा सकेगा । इसके विपरीत गिलास में रखा पानी निश्चित रूप से प्यास बुझाकर पानी की अनुभूति दे सकता है ।

आ. इसी प्रकार अध्यात्म में ब्रह्मांड के जो मूलतत्त्व हैं, उसे अध्यात्म निर्गुण एवं निराकार परमात्मा (सत्-चित्-आनंदस्वरूप अविनाशी तत्त्व) कहता है तथा साधकों सहित विज्ञानवादी भी उसकी खोज में हैं । सनातन हिन्दू धर्म के दर्शन को छोड दिया जाए, तो अन्य सभी पंथों के साथ ही विज्ञानवादी भी यह स्वीकार नहीं करते कि ‘परमात्मा का सगुण स्वरूप हो सकता है ।’ इसी का अर्थ यह है कि कागद पर लिखा H2O हो अथवा ‘मॉलिक्युलर फॉर्मूला’, ये दोनों ही पानी का स्वाद तथा प्यास बुझाने की अनुभूति नहीं दे सकते । उसी प्रकार निर्गुण क्या है ?, इससे अनभिज्ञ व्यक्ति को सत्-चित्-आनंद की अनुभूति कैसे होगी ? जिन्हें अनुभूति ही नहीं है, वे निर्गुण को कैसे जानेंगे   ? यहीं निर्गुण अथवा एकेश्वरवादियों की दिशा चूक रही है ।

४. अध्यात्म की प्यास सगुण उपासना की भगवद्भक्ति से ही पूर्ण होती है !

अध्यात्म में भले ही शाब्दिक अथवा मानसिक ज्ञान मिल जाए; परंतु आनंद की (आत्मस्वरूप की) अनुभूति न हुई, तो उससे जीव की आध्यात्मिक (अंतिम सत्य की अनुभूति करने की) प्यास नहीं बुझती । इसका अर्थ यह है कि अध्यात्म में केवल निर्गुण उपासना अर्थात केवल ज्ञानप्राप्ति के सूखे प्रयासों से परिपूर्णता प्राप्त नहीं होती । किसी सामान्य भक्त को ज्ञान न होगा; परंतु उसे भगवान की प्रतीति (प्रत्यक्षानुभूति) हुई हो, तो उसे आध्यात्मिक तृप्ति मिलती है । एक अर्थ से चाहे वह निर्गुण उपासना की हो अथवा ज्ञान की उपासना की हो; परंतु अध्यात्म की प्यास सगुण उपासना की भगवद्भक्ति से ही पूर्ण होती है । आदि शंकराचार्य हों अथवा महर्षि व्यास, उनकी ज्ञानसाधना के उपरांत प्रत्यक्ष भक्तिसाधना से जब उन्होंने अनुभूति प्राप्त की, तभी जाकर उनका चित्त शांत हुआ । अनुभूति प्राप्त भक्तों को जितना ज्ञान आवश्यक होता है, उतना भगवान देते हैं तथा उसके कारण ही अशिक्षित संतों द्वारा किया गया गद्यात्मक अथवा पद्यात्मक लेखन आज भी चिरंतनता की अनुभूति कराता है ।’

– (सद्गुरु) डॉ. चारुदत्त पिंगळे, राष्ट्रीय मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिति (अगस्त २०२३)

अध्यात्म एवं विज्ञान

१. अध्यात्म का अर्थ है जीव के द्वारा साधना करते-करते आंतरिक अनुभूति के द्वारा मन एवं बुद्धि से परे चराचर में व्याप्त (अंर्तबाह्य में स्थित तथा सजीव-निर्जीव में स्थित) एकमात्र शाश्वत अपरिवर्तनशील तत्त्व की अनुभूति प्राप्त करना !

२. विज्ञान का अर्थ है बाह्य प्रयोग एवं निरीक्षणों के द्वारा मन, बुद्धि एवं ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से बाह्य विश्व की अशाश्वत परिवर्तनशील रचना को जानने की प्रक्रिया !

३. विज्ञान बाह्य परिवर्तनशील विश्व का अनुभव है, जबकि अध्यात्म अंर्तबाह्य शाश्वत स्वरूप की अनुभूति है ।

– (सद्गुरु) डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी (अगस्त २०२३)

सगुण के बिना निर्गुण का पथ न मिलना !

पानी का गुण प्यासे की प्यास बुझाना है । प्यास बुझना व्यक्ति की प्रत्यक्षानुभूति होती है । कागद पर लिखा रसायनशास्त्र का फार्मूला H2O हो अथवा कागद पर बनाया पानी के ‘मॉलिक्युलर ऑर्बिटल’फार्मूला का चित्र हो, उससे जैसे किसी की प्यास नहीं बुझ सकती, वैसे ही उसे पढनेवाले अथवा देखनेवाले को उसकी प्यास बुझने की अनुभूति नहीं होगी, यह वास्तविकता है । इसीलिए अध्यात्म में निर्गुण की उपासना को अपनाते हुए सगुण उपासना बताई गई है । प्रत्यक्ष पानी है; परंतु यदि उसका विज्ञान ज्ञात न हो, तब भी प्यास बुझ सकती है तथा उससे संतुष्टि मिलती है । उसी प्रकार से अध्यात्म में सगुण उपासना अर्थात भगवद्भक्ति करने से भगवान के आनंद की अनुभूति होती है । इस अनुभूति के उपरांत भक्त को भगवान का (ब्रह्मांड का) चराचर को व्याप्त परमस्वरूप का (परमात्मा का) पूर्ण ज्ञान होता है । भक्ति के उपरांत होनेवाले इस ज्ञान का अर्थ ही ब्रह्मांड में विद्यमान अंतिम सत्य की अनुभूति करना है । यही सगुणाधारित निर्गुण उपासना है ।

– (सद्गुरु) डॉ. चारुदत्त पिंगळे (अगस्त २०२३)