‘अनेक वर्ष पूर्व साधकों का प्रबोधन करने हेतु परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने एक कविता में कहा था, ‘मेरा स्थूलदेह से सर्वत्र होने में मर्यादाएं हैं; इसलिए मैं ‘सनातन धर्म’ के रूप में सर्वत्र हूं’, यह भाव रखें । कालांतर में हिन्दुत्व का कार्य बढता गया, वैसे अनेक हिन्दुत्वनिष्ठ भी परात्पर गुरु डॉक्टरजी की ओर आकर्षित हुए और आज उन्हें ‘गुरु’ स्थान पर मानते हैं । अब हमें कदम-कदम पर ‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी ‘सनातन धर्म’ के हैं, इसकी प्रतीति होती है । परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने कभी आचार-विचार में भी सनातन के साधक और अन्य हिन्दुत्वनिष्ठ, अपने और अन्यों के संगठन में कोई भेद नहीं किया । इस कारण वे साधकों की भांति हिन्दुत्वनिष्ठों का भी मार्गदर्शन कर सके । आज अनेक हिन्दुत्वनिष्ठ उस मार्ग का आचरण कर हिन्दुत्व के कार्य में और ईश्वरप्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हैं । इसके कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत हैं । – श्री. नागेश गाडे, समूह संपादक, सनातन प्रभात नियतकालिक
हिन्दुत्वनिष्ठों को ‘सनातन प्रभात मुखपत्र आपका ही है’, ऐसा बताना
समाज मानता है कि ‘सनातन प्रभात’ ‘सनातन संस्था’ का मुखपत्र है; परंतु परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने साधकों को शिक्षा दी है, ‘सनातन प्रभात को ‘समस्त हिन्दुत्वनिष्ठों के मुखपत्र’ के रूप में कार्य करना चाहिए’ ! उन्होंने उनसे मिले प्रत्येक हिन्दुत्वनिष्ठ को बताया है कि आप सनातन प्रभात समाचारपत्र को आपका अपना ही मानिए और ‘सनातन प्रभात’ में प्रकाशन हेतु आपके संगठन के समाचार दीजिए ! उन्होंने कर्नाटक के एक संगठन के पदाधिकारियों को बताया, ‘‘कन्नड साप्ताहिक ‘सनातन प्रभात’ का एक पृष्ठ हम आपके संगठन के लिए आरक्षित रखेंगे । आप आवश्यक लेख भेजिए । हम उसे प्रकाशित करेंगे ।’’
हिन्दुत्वनिष्ठ जालस्थलों में सबसे अधिक पाठकसंख्यावाले HinduJagruti.org जालस्थल पर भी विविध संगठनों के उपक्रमों के समाचार नियमित रूप से प्रकाशित किए जाते हैं । परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने यह सब करने के पीछे दृष्टिकोण दिया, ‘हिन्दुत्वनिष्ठों द्वारा किए जा रहे कार्य में हमारा छोटा सा योगदान ।’
संकटग्रस्त हिन्दुत्वनिष्ठ अथवा संगठनों को आधार देना
धर्मरक्षा का कार्य करते समय ‘पुलिस और धर्मविरोधियों द्वारा हिन्दुत्वनिष्ठों को अन्यायपूर्ण बंदी बनाना और मारपीट होना’ आदि घटनाएं सदैव होती रहती हैं । परात्पर गुरुदेवजी ने साधकों को यह शिक्षा दी कि ‘ऐसे प्रसंग में साधक को स्वयं उन हिन्दुत्वनिष्ठों से अथवा उस संगठन
के कार्यकर्ताओं से मिलने जाना चाहिए ।’ जब हम संकट में होते हैं और कोई हमारी सहायता करने आता है, तो हमें उनका आधार प्रतीत होता है । वैसे ही अन्यों को भी हमारा आधार प्रतीत होना चाहिए ।’ इसके पीछे परात्पर गुरु डॉक्टरजी का यही दृष्टिकोण होता है । उसके कारण कोई हिन्दुत्वनिष्ठ अथवा संगठन के संकट में होने का ज्ञात होते ही परात्पर गुरु डॉक्टरजी स्मरणपूर्वक ‘कोई उनसे मिलने गए हैं न ?’और ‘क्या उन्हें किसी सहायता की आवश्यकता है ?’, ऐसा पूछते हैं ।
संकट से घिरे हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों को आधार देने के संदर्भ में दो अनुभव बताता हूं ।
१. एक संत के भक्तों को आध्यात्मिक दृष्टिकोण देकर आधार देना
एक संत को किसी आरोप में बंदी बनाए जाने के उपरांत उनके भक्तों में निराधार होने की भावना व्याप्त हो गई थी । सनातन संस्था और परात्पर गुरुदेवजी ने भी बंदी का तीव्र विरोध किया था । उसके कारण उन संत के कुछ भक्तों को परात्पर गुरु डॉक्टरजी का आधार प्रतीत होता था । ‘ऐसे कठिन प्रसंग में भक्तों की श्रद्धा को बनाए रखकर उनकी साधना निरंतर चलती रहे, इतना आधार देना आवश्यक है’, इस कर्तव्यभावना के साथ उन्होंने उन संतों के कुछ भक्तों को आध्यात्मिक दृष्टिकोण देकर आधार दिया । इन संतजी के संदर्भ में सनातन प्रभात और सनातन पंचांग में छापा जाता है; इसके कारण अनेक लोगों ने नियतकालिक लेना बंद कर दिया, साथ ही पंचांग लेना अस्वीकार किया; परंतु ‘इस हानि की अपेक्षा उन संत के साथ खडे रहना और उनके भक्तों का मनोबल बढाना अधिक महत्त्वपूर्ण है’, परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने यह भूमिका अपनाई ।
२. एक हिन्दुत्वनिष्ठ नेता के कठिन काल में मानसिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर उनकी सहायता करना
एक संगठन के कार्यकर्ताओं में निहित आंतरिक विवाद, संगठन के कार्यकताओं पर पुलिस का हो रहा अत्याचार, विविध प्रकरणों में अभियोग पंजीकृत होना, विविध प्रांतों में प्रवेशबंदी, आर्थिक तंगी जैसे विविध कारणों से उनके संगठन का कार्य लगभग रुक गया था, जिससे उस संगठन के प्रमुख नेता में निराशा छा गई थी और उसके चलते उनके मन में सामाजिक जीवन से संन्यास लेने के विचार आ रहे थे । परात्पर गुरु डॉक्टरजी को यह ज्ञात होने पर उन्होंने उन्हें मानसिक आधार दिया और उनका मनोबल बढाने के लिए चिकित्सा भी बताई, साथ ही ‘संगठन के कार्य में सर्वाेपरि सहायता करने का आश्वासन दिया । उसके उपरांत भी समय-समय पर उन्होंने उनकी और उनके कार्य की जानकारी ली और हिन्दू जनजागृति समिति के कार्यकर्ताओं को उनकी सर्वाेपरि सहायता करने के निर्देश दिए ।
छोटे संगठनों का कार्य बढने हेतु उनका मार्गदर्शन कर सहायता करना
हिन्दुत्वनिष्ठों को संगठित करने का कार्य करते समय कुछ छोटे संगठनों के साथ भी संपर्क हुआ । इन संगठनों के पदाधिकारियों में हिन्दुत्व का कार्य करने की लालसा थी; परंतु ‘कार्य की दिशा कैसी होनी चाहिए और संगठन का कार्य कैसे बढाना चाहिए ?’, इसके प्रति वे अनभिज्ञ थे । परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने ऐसे संगठनों के पदाधिकारियों को प्रोत्साहित करने हेतु उसी संगठन के मार्गदर्शन में कुछ उपक्रम चलाने के लिए कहा, साथ ही इन पदाधिकारियों को ‘कार्य कैसे करना चाहिए ?’ इसका प्रशिक्षण देने हेतु विविध उपाय सुझाए । उनमें से कुछ पदाधिकारियों को आश्रम का व्यवस्थापन सीखने हेतु कुछ दिनों के लिए आश्रम में बुलाया, तो कुछ हिन्दुत्वनिष्ठों को ‘हिन्दू जनजागृति समिति’ के कार्यकर्ताओं के साथ कुछ दिन विविध स्थानों पर जाकर ‘वे हिन्दू-संगठन कैसे करते हैं ?’, यह सीखने के लिए कहा ।
वादविवाद हल करने हेतु अगुआई करने के लिए कहना
असम में एक संगठन के पदाधिकारियों के बीच वादविवाद था । इस कारण संगठन का कार्य थमसा गया था । तब परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने ‘उस संगठन के सभी पदाधिकारियों की बैठक लेकर उनके बीच का वाद-विवाद सुलझाने हेतु प्रयास करें’, ऐसा हिन्दू जनजागृति समिति के कार्यकर्ताओं को बताया ।