मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी ने २ दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी की बुलाई सर्वदलीय बैठक में ‘भारत-चीन के मध्य हुए पंचशील समझौते का पालन करने की मांग की ।’ उस समय इसी पार्टी के दूसरे नेता डी. राजा ने इस विषय में कहा कि ‘अमेरिका से सहायता नहीं लेनी चाहिए ।’ ऊपरी स्तर पर इन दोनों साम्यवादी नेताओं ने अपनी भलमनसाहत का परिचय देते हुए प्रधानमंत्री की आहूत बैठक में अनेक सूत्र उपस्थित किए; किंतु उनमें चीन के प्रति अनुनय का उग्र गंध अनुभव हो रहा था । पूर्वकाल में भारत में एक कहावत प्रचलित थी, ‘वर्षा चीन में होने पर भी भारत के साम्यवादी यहां छाता तान देते हैं ।’ चीन के विरुद्ध कुछ होने पर भारत के साम्यवादी उसका विरोध करते हैं । इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय साम्यवादियों की नाल चीन से जुडी है ।
पंचशील की ओट में विश्वासघात
सीताराम येचुरी पंचशील का पालन करने के लिए भारत से तो कहते हैं, पर यही बात वे चीन से क्यों नहीं कहते ? भारत और चीन में वर्ष १९५३ और वर्ष १९५४ में अनेक बैठकों के पश्चात एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जो ‘पंचशील समझौता’ नाम से प्रसिद्ध है । इसमें एक-दूसरे की प्रादेशिक अखंडता और राजनीतिक सार्वभौमिकता को मान्यता देना, एक-दूसरे पर आक्रमण न करना, एक-दूसरे के आंतरिक विषयों में हस्तक्षेप न करना, परस्पर समभाव रखना तथा एक-दूसरे के हितों की रक्षा करना और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का समावेश था । जब-जब भारत और चीन के मध्य सीमा विवाद खडा होता है, तब-तब पंचशील समझौते की चर्चा की जाती है । वैसे तो पंचशील समझौता बहुत लुभावना शब्द लगता है, पर इसे भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री नेहरू की बडी भारी चूक मानी जाती है ।
भारत और चीन के मध्य लगभग ३ सहस्र ५०० किलोमीटर लंबी सीमा है । इस सीमा पर चीन की विस्तारवादी नीति के कारण तनाव उत्पन्न होता रहता है । चीन ने वर्ष १९५० में स्वतंत्र प्रदेश तिब्बत पर आक्रमण कर उसे अपने नियंत्रण में ले लिया । चीन की आक्रामकता से डरकर कहिए अथवा उसकी धूर्तता न समझ पाने के कारण, नेहरू ने पंचशील संधि पर हस्ताक्षर किए । यह संधि होने पर ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारे लगाए गए । परंतु, इस संधि से भारत को इतनी बडी हानि हुई कि तिब्बत के विषय में भारत को वर्ष १९०४ की ‘एंग्लो तिब्बत संधि’ में मिले सब अधिकार खोने पडे । इसी प्रकार, भारत ने स्वीकार कर लिया कि तिब्बत चीन का भूभाग है । २४ अप्रैल १९५४ को हुई इस संधि के पश्चात वर्ष १९५७ में चीन ने तिब्बत तक जाने के लिए मार्ग बना लिया । भारत जिसे अपना प्रदेश मानता है, उस अक्साई चीन में से ही यह मार्ग जाता है । इस विषय में भारत अनजान रहा । उस समय चीन ने भारत को धोखा दिया था । वर्ष १९६२ में चीन ने भारत पर आक्रमण कर लाखों किलोमीटर भूभाग पर अधिकार कर लिया ।
चीन और भारत के साम्यवादी
तत्कालीन भारतीय शासकों ने विशेषत: नेहरू ने चीन से सदैव मित्रता बनाए रखने को प्रधानता दी । इस मित्रता के बदले भारत को अपने कुछ भूभाग या अधिकार खोने पडें, तो भी चलेगा, ऐसी नेहरू की सोच थी । चीन के प्रति नरम नीति अपनानेवाले कांग्रेसी, देश के साम्यवादियों को अपने लगें, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए ।
चीन में पडोसी देशों को निगलने की राक्षसी प्रवृत्ति है । चीन की सीमा लगभग १८ देशों से लगती है और प्रत्येक देश से उसका सीमाविवाद है । ताइवान और हांगकांग पर चीन अपना अधिकार बता रहा है । भारत के अनेक भूभागों पर चीन अपना अधिकार बता रहा है । इतना ही नहीं, भारत का कोई मंत्री अरुणाचल प्रदेश में आने पर चीन बौखला जाता है । जब पूरा विश्व कोरोना संकट से जूझ रहा था, तब चीन युद्धाभ्यास कर रहा था । चीन कभी भी आक्रमण कर सकता है, इससे जापान, फिलिपीन्स भयभीत हैं । ऐसे चीन के साथ येचुरी पंचशील समझौते का पालन करने की सलाह देते हैं, तो इससे उनकी मानसिकता भारतविरोधी कैसे है, यह ध्यान में आता है । विश्व पर कोरोना का जैविक युद्ध लादनेवाले चीन को २ शब्द सुनाने का साहस येचुरी और डी. राजा क्यों नहीं करते ? चीन से विनम्रतापूर्वक व्यवहार करने की बात करनेवाले ये नेता क्या कभी हिन्दुत्वनिष्ठों की नृशंस हत्या करनेवाले अपने कार्यकर्ताओं को ऐसा उपदेश करेंगे ? ऐसे समाचार आ रहे हैं कि चीन के अनेक हस्तक इस देश में सक्रिय हैं । तो कैसे मानें कि उनमें ये साम्यवादी नहीं होंगे ? चीन से संभावित युद्ध के समय ऐसे लोग बाधा बन सकते हैं, यह जानकर सरकार उनपर पैनी दृष्टि रखे, यह भारतीयों की अपेक्षा है ।