साधकों की शंकाओं का समाधान कर उन्हें साधना के लिए प्रोत्साहित करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का अमूल्य मार्गदर्शन !

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने वर्ष १९९० से अध्यात्मप्रसार का कार्य आरंभ किया । उसके अंतर्गत उन्होंने ‘आनंदप्राप्ति हेतु साधना’ विषय पर अभ्यासवर्ग लेना, विभिन्न ग्रंथों का संकलन करना, अनेक बडे प्रवचन लेना’ जैसी विभिन्न पद्धतियां अपनाई । आरंभ से ही ‘जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान करना’ तथा ‘अच्छा साधक कैसे बनें ?’, इस विषय में मार्गदर्शन करना उनके कार्य का एकमात्र उद्देश्य था । ‘साधना के संदर्भ में साधकों की समस्याएं समझ लेना तथा उनका समाधान कर उन्हें उपाय बताना’, उनके कार्य का एक अभिन्न अंग है । ‘बालक तोतले बोल बोले, तब भी माता समझ जाती है ।’ इस कहावत के अनुसार साधकों की साधना से संबंधित समस्याएं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के तुरंत ध्यान में आती हैं तथा वे उन्हें उसके अचूक उपाय भी बताते हैं’, इसकी अनेक साधकों ने अनुभूति ली है । इस लेख में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा विभिन्न स्थानों पर किए गए मार्गदर्शन में समाहित कुछ चयनित सूत्र यहां दिएगए हैं ।

(भाग २)

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी

८. समष्टि साधना का महत्त्व

८ अ. अन्यों को साधना बताकर उन्हें साधना की ओर मोडना समष्टि साधना है !

एक साधिका : अनेक बार हम विभिन्न आश्रमों में जाते हैं । वहां सेवा करते हैं, उदा. गुरुपूर्णिमा के दिन व्यासपीठ की सजावट
करना । उस दिन हम लोगों को भोजन परोसने की सेवा करते हैं, तो उस समय हमारी व्यष्टि एवं समष्टि, ये दोनों साधनाएं होती हैं या केवल समष्टि साधना ही होती है ?

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : इससे एक प्रकार की व्यष्टि साधना होती है । इससे मन सेवा करने का अभ्यस्थ होता
है । समष्टि साधना क्या है ? अन्यों को साधना बताकर उन्हें साधना की ओर मोडना । जब वे भी साधना करने लगते हैं, तब वह समष्टि साधना होती है ।

८ आ. नामस्मरण करते हुए सेवा करने से सेवा अच्छी होती है !

एक साधिका : यदि नामस्मरण करते हुए सेवा की, तो क्या वह समष्टि साधना होती है ?

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : उसके कारण हम जो सेवा करते हैं, वह सेवा अच्छी होती है; परंतु वह भी व्यष्टि सेवा ही हुई ।

८ इ. ‘पूरा विश्व ईश्वर का ही है’, ऐसा प्रतीत होकर हम कुछ करने लगे, तो उससे समष्टि साधना होती है !

एक साधिका : समष्टि साधना के लिए हमें और क्या करना पडेगा ?

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : केवल व्यष्टि साधना की, तो साधक अधिक से अधिक ५०-६० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर तक आकर ही रुक जाता है । जब उसमें ‘ये सब मेरे हैैं, ईश्वर के हैैं’, यह भाव उत्पन्न होता है; ‘अब ईश्वर के लिए कुछ करना चाहिए’, ऐसा उसे लगने लगता है, तो उसकी समष्टि साधना होने लगती है । ईश्वर का यही विचार है, ‘पूरा विश्व मेरा है और मैं सभी का ध्यान रखता हूं ।’

८ ई. समष्टि साधना प्रभावकारी होने हेतु स्वयं की व्यष्टि साधना अच्छी होना आवश्यक !

एक साधिका : नमस्कार ! वर्तमान कलियुग की साधना क्या है ? नामस्मरण ही न ?

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : युग चाहे कोई भी हो; परंतु व्यष्टि एवं समष्टि साधना का महत्त्व सबसे अधिक है !

व्यष्टि एवं समष्टि, ये दो साधनाएं होती हैं । व्यष्टि साधना करना अर्थात ‘मुझे ईश्वरप्राप्ति करनी है’ । ‘समष्टि साधना क्या है ?’, सबको साथ लेकर आगे बढना, अर्थात हम सबका विचार करते हैं । इसमें हम ईश्वर की भांति सभी को साथ लेकर आगे बढने का विचार करने लगते हैं, इसलिए वह महत्त्वपूर्ण है; परंतु उसके लिए हमारी स्वयं की व्यष्टि साधना अच्छी होनी चाहिए । वह यदि अच्छी हो, तभी हमारी वाणी में चैतन्य आता है । उसके लिए हम जो बोलते हैं, उससे अन्यों के मन पर प्रभाव पडता है । अतः वे भी साधना करने लगते हैं ।

एक साधिका : तो इसलिए नामस्मरण अधिक करना चाहिए न ?

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : हां !’

८ उ. दूसरों को साधना सिखाना समष्टि साधना है । इसलिए उसमें अधिक बोलना पडे, तो भी ऊर्जा मिलती है !

एक साधिका : अधिक बोलने से ऊर्जा क्षीण होती है और हम नामजप से भी विचलित होते हैं ।

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : अधिक बोलना किस बारे में है ? हम समष्टि साधना कर रहे हैं । दूसरों को भी यदि हम साधना का महत्त्व इत्यादि बताते हैं, तो उसमें ऊर्जा क्षीण नहीं होती; अपितु उसमें ऊर्जा मिलती है, क्योंकि हम समष्टि साधना कर रहे हैं ।

८ ऊ. ‘घर के लोगों से अच्छा व्यवहार करना और बीमार व्यक्तियों की सेवा करना’, यह समष्टि साधना नहीं, अपितु कर्तव्य है !

एक साधिका : ‘मैं घर के लोगों से अच्छा व्यवहार करती हूं । परिवार के सदस्य बीमार होने पर उनकी सेवा करती हूं ।  साथ ही ‘घर के काम करते समय ईश्वर उस माध्यम से मेरी समष्टि साधना करवा रहे हैं । मेरी आध्यात्मिक उन्नति हो’, क्या ऐसा भाव रखकर प्रत्येक कृति करने से ‘समष्टि साधना’ हो सकती है ? क्या वह समष्टि का छोटा रूप ही होता है ?

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : घर में समष्टि सेवा नहीं होती। वह कर्तव्य हुआ ।

८ ए. साथ नौकरी करनेवाले व्यक्तियों को साधना बताने से थोडी समष्टि साधना होती है !

एक साधिका : मैं अस्पताल में काम करती हूं । ‘नौकरी ईश्वर ने मुझे दिया हुआ ‘ईश्वरप्राप्ति का साधन’ है’, ऐसा भाव रखकर वहां का कार्य मैं सेवाभाव से करती हूं, तो क्या उससे मेरी ‘समष्टि साधना’ हो सकती है ? मैं रोगियों की प्रत्यक्ष सेवा नहीं करती । मैं अस्पताल में रोगियों से संबंधित काम ‘सेवा’ के रूप में करती हूं ।

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : तो वह नौकरी ही हुई ! जो काम हैं, वह मैंने किए । क्या आप प्रत्येक व्यक्ति से बोलते समय साधना के विषय में कुछ बोलती हैं ? नौकरी के स्थान पर संपर्क में आनेवाले लोगों को साधना बताकर ‘वे साधना कर रहे हैं न ?’, क्या इस ओर आपका ध्यान होता है ?

एक साधिका : मेरे संपर्क में आनेवाले व्यक्तियों से साधना के विषय में ही बात होती है, अर्थात ‘वे कौनसा नामजप करते हैं ?’ मैं उनसे प्रार्थना करने को कहती हूं कि ‘अब ईश्वरीय राज्य में नागरिक बनने के लिए पात्र होने हेतु हमसे साधना करवाएं ।’ क्या उससे ‘समष्टि साधना’ होती है ?

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : होती है, पर बहुत अल्प होती है । अन्य समष्टि साधना करनेवाले लोगों को देखा है क्या ? रात-दिन वे समष्टि साधना ही करते रहते हैं । वैसे नौकरी के स्थान पर कुछ लोगों को साधना बताई । जो मिले उन्हें बताया, तो बहुत अल्प समष्टि होती है । आप धीरे-धीरे समष्टि साधना बढाएं ।

८ ऐ. जिस व्यक्ति की आरंभ से ही समष्टि साधना करने में रुचि है, उसे व्यष्टि और समष्टि, दोनों साधना एक ही समय पर करना आवश्यक है !

एक साधक : नमस्कार ! आपने कहा, ‘पहले व्यष्टि साधना करके फिर समष्टि साधना करें । अब व्यष्टि साधना पहले करनी है, फिर समष्टि की ओर जाना है या व्यष्टि और समष्टि साधना, दोनों एक ही समय पर करनी हैं ?

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : एक साथ करें ! जिसकी समष्टि साधना करने में रुचि ही नहीं है, उसे प्रथम व्यष्टि साधना करनी चाहिए । उसे परिपूर्ण करने का प्रयास करना चाहिए और फिर समष्टि साधना करनी चाहिए । जिसकी आरंभ से ही समष्टि साधना के प्रति रुचि है, उसे व्यष्टि साधना एवं समष्टि साधना एक साथ ही करनी चाहिए ।

(क्रमशः)