सन्तों के पास लूटने योग्य दो वस्तुएं होती हैं – नामजप और सेवा !
डॉ. आठवलेजी ने उनके गुरु के पास से इन दोनों वस्तुओं को भरपूर लूटा । गुरु के सान्निध्य में उनका नामजप अखण्ड होता था । इसी प्रकार, उन्होंने गुरुचरणों में तन-मन-धन समर्पित कर परिपूर्ण सेवा की । इसलिए, गुरु ने भी उन्हें कहा, ‘‘डॉक्टर, मैंने आपको ज्ञान, भक्ति और वैराग्य दिया !’’ ऐसे शिष्योत्तम डॉ. आठवलेजी के जीवन के ‘जिज्ञासु’ से ‘उत्तम शिष्य’ तक की यात्रा का संक्षिप्त वर्णन करनेवाला यह भाग !

१. वर्ष १९८३ से डॉ. आठवलेजी का अध्यात्म समझने के लिए संतों के पास जाना और तुरंत साधना आरम्भ करना :

सम्मोहन उपचार-विशेषज्ञ के रूप में अल्प काल में ही विख्यात हुए डॉ. आठवलेजी के ध्यान में आया कि ‘सम्मोहन उपचार से स्वस्थ न हुए कुछ मनोरोगी, संतों की बताई साधना करने से तथा नारायण बलि, त्रिपिंडी श्राद्ध, नाग बलि जैसे धार्मिक अनुष्ठान करने से स्वस्थ हो जाते हैं ।’ यह देखकर स्पष्ट हुआ कि ‘केवल स्वभावदोष और अहं सब मनोविकारों का मूल कारण नहीं होता; अपितु ‘प्रारब्ध तथा अनिष्ट शक्तियों की बाधा’, ये आध्यात्मिक कारण भी हो सकते हैं ।’ इसलिए, अध्यात्म समझने के लिए वे वर्ष १९८३ से सन्तों के पास जाने लगे और संतों के बताए अनुसार साधना भी तुरंत आरंभ की ।
वर्ष १९८३ से वर्ष १९८७ की अवधि में उन्होंने अध्यात्म के विशेषज्ञ २५ से अधिक संतों के पास जाकर अध्यात्म समझा । इससे वे अध्यात्मशास्त्र की श्रेष्ठता भी समझ सके । डॉ. आठवलेजी को अध्यात्म सिखानेवाले संत ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि अनेक योगमार्गानुसार साधना करते थे ।
इसलिए, डॉ. आठवलेजी के लिए विविध साधनामार्गाें का तुलनात्मक अध्ययन भी संभव हुआ ।
संतों द्वारा अध्यात्म का मौलिक भाग सिखाए जाने पर डॉ. आठवलेजी द्वारा उनके चरणों में व्यक्त की गई कृतज्ञता !‘मैं जिन भी संतों से मिला, उनमें से अधिकतर ने मुझे अध्यात्म का मौलिक भाग अनेक प्रकार से सिखाया । इस ज्ञान का उपयोग मेरे द्वारा संकलित हो रहे ग्रंथों के लिए मैं कर सका । कुछ संतों द्वारा सिखाए आध्यात्मिक उपचारों (टिप्पणी) का लाभ साधकों को होनेवाले अनिष्ट शक्तियों के कष्ट दूर करने के लिए मैं कर सका । ऐसे सब संतों के चरणों में मैं शतशः कृतज्ञ हूं ।’ – डॉ. आठवले टिप्पणी – ‘आध्यात्मिक उपचार’ अर्थात, अनिष्ट शक्तियों से व्यक्ति को होनेवाले कष्ट दूर करने के लिए की जानेवाली कृतियां |
२. डॉ. आठवलेजी को प.पू. भक्तराज महाराजजी ‘गुरु’ रूप में मिलना
२ अ. प.पू. अण्णा करंदीकरजी ने डॉ. आठवलेजी की प.पू. भक्तराज महाराजजी से प्रथम भेंट कराना : वर्ष १९८६ में डॉ. आठवलेजी महाराष्ट्र के पालघर जनपद में स्थित डहाणू के निवासी प.पू. अण्णा करंदीकरजी के पास अध्यात्म संबंधी शंकाओं का समाधान करने के लिए जाने लगे । प.पू. अण्णा ने डॉ. आठवलेजी को अध्यात्म का सैद्धान्तिक एवं सूक्ष्म भाग सिखाया । वे डॉ. आठवलेजी से विविध सूक्ष्म प्रयोग करवाते थे । उनमें ज्ञान और शक्ति का अपूर्व संगम था । उन्होंने डॉ. आठवलेजी से कहा कि ‘आपके गुरु इंदौर, मध्य प्रदेश में हैं ।’ पश्चात वे डॉ. आठवलेजी, डॉ. (श्रीमती) कुंदा आठवलेजी एवं श्री. विवेक वारंग को इंदौर में प.पू. भक्तराज महाराजजी के पास ले गए । गुरुवार, २३.७.१९८७ को इन सबको गुरु प.पू. भक्तराज महाराजजी (प.पू. बाबा) के प्रथम दर्शन हुए !

२ आ. भेंट के अगले ही दिन डॉ. आठवलेजी को प.पू. भक्तराज महाराजजी से गुरुमंत्र मिलना : दूसरे दिन अर्थात २४.७.१९८७ को प.पू. बाबा डॉ. आठवलेजी, डॉ. (श्रीमती) कुंदा आठवलेजी एवं श्री. विवेक वारंग को इंदौर के प.पू. धांडेशास्त्रीजी के पास ले गए । वहां प.पू. अण्णा करंदीकर (टिप्पणी १) भी उपस्थित थे । तब प.पू. धांडेशास्त्रीजी (टिप्पणी २) ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ जप कर रहे थे । तब प.पू. बाबा ने प.पू. धांडेशास्त्रीजी द्वारा किया जा रहा ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ मन्त्रजप ही डॉ. आठवलेजी, डॉ. (श्रीमती) कुंदा आठवलेजी एवं श्री. विवेक वारंग को गुरुमंत्र स्वरूप दिया ।
टिप्पणी १ – प.पू. अण्णा करंदीकरजी ने २७.१.१९८९ को देहत्याग किया ।
टिप्पणी २ – प.पू. धांडेशास्त्रीजी ने वर्ष १९९२ में देहत्याग किया ।
३. डॉ. आठवलेजी द्वारा की गई आदर्श गुरुसेवा
३ अ. गुरुचरणों में तन-मन-धन अर्पित करना
३ अ १. तन अर्पित कर की गुरुसेवा
३ अ १ अ. गुरु के आश्रम में स्वच्छता के साथ अन्य सभी प्रकार की सेवाएं करना : डॉ. आठवलेजी प.पू. भक्तराज महाराजजी (प.पू. बाबा) के जीवनकाल में उनके दर्शन के लिए मुंबई से इंदौर उनके आश्रम में जाया करते थे । आश्रम में पहुंचने पर यहां-वहां न जाकर डॉ. आठवलेजी सर्वप्रथम सीधे प.पू. बाबा के दर्शन करने जाते और साथ में जो साधक होते, उन्हें भी उनके दर्शन के लिए ले जाते । प.पू. बाबा के दर्शन करने के उपरांत आश्रम प्रबंधन द्वारा निवास हेतु दिए कक्ष में वे अपना सर्व सामान रखते और अन्य साधकों के निवास की व्यवस्था देखते । यह सर्व होने के उपरांत वे आश्रम की सेवा प्रारंभ करते । ‘आश्रम के शौचालय एवं स्नानगृह स्वच्छ करना, सर्व कक्षों के जाले निकालना, पंखे और बत्ती स्वच्छ करना, भक्तों की चप्पलें एक पंक्ति में लगाने के लिए लकडी के रैक बनाना, भोजन के समय भक्तों को भोजन परोसना, भोजन की जूठी पत्तलें उठाना, आश्रम के आसपास का परिसर स्वच्छ करना’ आदि अनेक सेवाएं वे स्वयं करते ।

३ अ १ आ. कडी धूप में आश्रम परिसर के कांटे और छोटे-बडे पत्थर स्वयं उठाना : प.पू. बाबा का महाराष्ट्र के पुणे स्थित कांदळी में भी आश्रम है । आश्रम के आसपास का परिसर कांटों से भरा था । सर्वत्र पत्थर थे । डॉक्टरजी वह परिसर स्वच्छ करते थे । उनके हाथों में कांटे चुभते, पत्थर भी बहुत भारी थे; परंतु तब भी वे उठाते । कडी धूप रहती थी, यह सेवा करते समय अन्य कुछ साधक थक जाते थे; परंतु डॉ. आठवलेजी बिना थके सर्व सेवाएं स्वयं करते एवं सहसाधकों से भी करवा लेते ।
३ अ १ इ. गुरु के भजनों के कार्यक्रम के समय बैठक व्यवस्था से लेकर सर्व सेवाएं अंत तक खडे रहकर करना : प.पू. बाबा के भजनों के कार्यक्रम के समय इंदौर आश्रम के सभागृह में बहुत भीड हो जाती थी । ऐसे समय पर डॉ. आठवलेजी सर्व भक्तों के बैठने की व्यवस्था करना, किसी को पानी की आवश्यकता हो तो देना, किसी को सहायता की आवश्यकता हो तो वह करना आदि सर्व सेवाएं अविरत और अंत तक खडे रहकर करते । प.पू. बाबा के प्रारंभिक भजन से अंतिम भजन तक यह सेवा वे बिना थके करते । प.पू. बाबा भी बीच-बीच में ‘डॉ. आठवले क्या कर रहे हैं’, यह देखते रहते । प.पू. बाबा जब उन्हें बैठने के लिए कहते, तभी वे नीचे बैठते । तब तक उनकी सेवा अविरत चलती रहती ।
गुरु जो भी कहते, डॉ. आठवलेजी उसका तत्काल आज्ञापालन करते थे । ‘श्री गुरु को क्या अपेक्षित होगा, अच्छा लगेगा’, यह सोचकर उन्होंने अपने गुरु की सेवा भावपूर्ण की ।
३ अ २. मन अर्पित कर की गुरुसेवा : ‘डॉ. आठवलेजी ने गुरुचरणों में मन का भी पूर्णतः त्याग किया । उनके मन में अखंड गुरुकार्य के ही विचार रहते । ‘अनावश्यक बातें करना, घूमने जाना, दूरदर्शन देखना’, हम साधकों ने उन्हें ये सब करते हुए कभी देखा ही नहीं ।
३ अ ३. धन अर्पित कर की गुरुसेवा : तन एवं मन का त्याग करना सरल होता है; परंतु उनकी तुलना में धन का त्याग करना कठिन है ! डॉ. आठवलेजी ने गुरुचरणों में तन एवं मन सहित धन का भी त्याग किया ।
३ अ ३ अ. डॉ. आठवलेजी एवं उनकी पत्नी डॉ. (श्रीमती) कुंदा आठवलेजी द्वारा गुरुकार्य के लिए किया बडा त्याग ! : डॉ. आठवले दंपति ने गुरुकार्य हेतु समर्पित होने के लिए केवल अच्छा चलनेवाला व्यवसाय ही बंद नहीं किया, अपितु अपने बचाकर रखे हुए पैसे भी गुरुकार्य में उपयोग किए तथा अपने घर को भी ‘आश्रम’ बना या ! ‘सनातन भारतीय संस्कृति संस्था’ की स्थापना के उपरांत आरंभ के काल में संस्था का कार्य दूर-दूर तक नहीं पहुंचा था । इस कारण संस्था को मिलनेवाला अर्पण नगण्य था ।
संस्था की ओर से किया जानेवाला अध्यात्मप्रसार का कार्य, ग्रंथ-निर्मिति का कार्य इत्यादि के लिए अर्पण से कोई विशेष धन नहीं मिलता था । ऐसे में इन कार्याें के लिए आवश्यक पैसे डॉ. आठवलेजी स्वयं ही देते ।

अपना शीव, मुंबई स्थित घर ‘आश्रम’ बनाने के कारण वहां सेवा के लिए अनेक साधक आते । परात्पर गुरु डॉक्टरजी तथा उनकी पत्नी श्रीमती कुंदाजी ने शीव आश्रम के द्वार साधकों के लिए सदैव खुले रखे तथा सेवा के लिए आनेवाले साधकों के खाने-पीने से लेकर निवास तक की सभी बातों का प्रेमपूर्वक ध्यान रखा । इन दोनों के त्याग के कारण आज सनातन का कार्य आकाश की ऊंचाइयों को छू रहा है ! इनके चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता !
– (पू.) श्री. संदीप आळशी (२०.५.२०२२)
३ आ. अपने गुरु की सीख विविध माध्यमों से सब तक पहुंचाना
३ आ १. प.पू. भक्तराज महाराजजी के गुरुपूर्णिमा महोत्सवों का आयोजन करना : वर्ष १९८८ से शिष्य डॉ. आठवलेजी प.पू. बाबा के गुरुपूर्णिमा महोत्सव में जाने लगे । वर्ष १९९२, १९९३ एवं १९९५ में डॉ. आठवलेजी ने ‘स्वयं एवं साधकों से गुरुसेवा हो तथा उसके द्वारा सभी को गुरुपूर्णिमा पर १ सहस्र गुना कार्यरत गुरुतत्त्व का लाभ हो’, इस उद्देश्य से प.पू. बाबा के गुरुपूर्णिमा महोत्सवों का आयोजन स्वयं किया । इस अवसर पर डॉ. आठवलेजी ने साधकों को कृति के स्तर पर सिखाया कि ‘गुरुपूर्णिमा का नियोजन कैसे करना चाहिए ?’ यह नियोजन प.पू. बाबा को भी भाता था ।
इन गुरुपूर्णिमा महोत्सवों में ‘संतसम्मान, संतों का मार्गदर्शन, साधकों को हुई अनुभूतियों का कथन आदि कार्यक्रम होते थे । संतों के मार्गदर्शन और साधकों के अनुभूतिकथन से साधकों को साधना करने की प्रेरणा मिलती थी । साधकों ने ‘गुरुपूर्णिमा से कितना आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किया ?’, यह संख्या भी डॉ. आठवलेजी कार्यक्रम के उपरांत प्रतिशत में बताते थे ।
३ आ २. गुरु के ‘भजनों की श्रव्य-मुद्रिकाएं’ और उनके ‘गुरुपूर्णिमा महोत्सवों की दृश्य-श्रव्य मुद्रिकाएं’ प्रकाशित करना : डॉ. आठवलेजी ने प.पू. भक्तराज महाराज (प.पू. बाबा) रचित और गाए भजनों का बडे परिश्रम से संग्रह किया । इनमें से अनेक भजनों का ध्वनिमुद्रण (रेकॉर्डिंग) उन्होंने प.पू. बाबा के भजन-कार्यक्रमों के समय किया, तो कुछ भजनों का ध्वनिमुद्रण प.पू. बाबा के भक्तों से प्राप्त किया । ये भजन चैतन्य, आनंद एवं शांति की अनुभूति देते हैं । डॉ. आठवलेजी के अथक प्रयत्नों के कारण प.पू. भक्तराज महाराजजी के अमृत महोत्सव के दिन ‘भजनामृत’ श्रव्य-मुद्रिकाओं (ऑडियो कैसेट्स) के (१२ भागों) और भजनों का तथा गुरुपूर्णिमा महोत्सव की ‘दर्शन मुद्रिका’ के (१६ भागों) का बाबा के करकमलों से लोकार्पण हुआ ।
३ आ २ अ. गुरु प.पू. भक्तराज महाराजजी के भजनों का ध्वनिमुद्रण अभिलेखन करने का महत्त्व : संतों की वाणी में पर्याप्त चैतन्य होता है । संत तुकाराम महाराजजी, संत तुलसीदासजी आदि संतों के कालखण्ड में ध्वनिमुद्रण (रेकॉर्डिंग) सुविधा न होने के कारण उनके द्वारा गाए गए अभंगों, दोहों आदि का ध्वनिमुद्रण नहीं किया जा सका । इससे मानवजाति की एक प्रकार से आध्यात्मिक हानि ही हुई । ‘प.पू. भक्तराज महाराजजी के भजनों के विषय में ऐसा न हो’, इसके लिए प.पू. डॉक्टरजी ने प.पू. भक्तराज महाराजजी के भजन-कार्यक्रमों के समय उनका ध्वनिमुद्रण कर लिया । ‘रामायण बोले, महाभारत बोले, भागवत बोले, तो ये भजन ही बनेंगे तेरे ।’ ‘गीता बोले, तो यही मिलेगी । ज्ञानेश्वरी, भागवत का सार इन भजनों में ही मिलेगा ।’ प.पू. अनंतानंद साईश (प.पू. भक्तराज महाराजजी के गुरु) ने प.पू. बाबा के भजनों के विषय में जो उद्गार व्यक्त किए थे, उससे भजनों की श्रेष्ठता ध्यान में आती है और आज भी यह अनुभव किया जा सकता है ।
३ आ २. गुरु से संबंधित ग्रंथ प्रकाशित करना : गुरु के प्रति भाव के कारण तथा अपने गुरु की महानता एवं सीख सर्व ओर पहुंचाने के लिए डॉ. आठवलेजी ने प.पू. बाबा के भजन (टिप्पणी ५), उनका चरित्र (५ खंड) एवं उनकी सीख (३ खंड) से संबंधित ग्रंथ संकलित कर प्रकाशित किए हैं । (प.पू. बाबा के अमृत महोत्सव में उनके चरित्रग्रंथ का लोकार्पण हुआ । तब प.पू. बाबा ने कहा, ‘‘चरित्र-लेखन हो तो ऐसा !’’) ये ग्रंथ साधक, भक्त एवं शिष्यों के लिए मार्गदर्शन की अनमोल धरोहर ही हैं ।
टिप्पणी ३ – प.पू. बाबा द्वारा मराठी भाषा में लिखे गए भजन सनातन द्वारा प्रकाशित ‘प.पू. भक्तराज महाराज विरचित भजनामृत (मराठी)’ ग्रंथ में तथा उनके हिन्दी भाषा में लिखे भजन, ‘प.पू. भक्तराज महाराज विरचित भजनामृत (हिन्दी)’ ग्रंथ में दिए गए हैं ।
३ इ. गुरु के ‘अमृत महोत्सव’ का उत्तम आयोजन करना

३ इ १. एक वर्ष पूर्व से अमृत महोत्सव की तैयारी प्रारंभ करना : ‘प.पू. भक्तराज महाराजजी का अमृत महोत्सव समारोह (आयु के ७५ वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में शुभारंभ) ८ एवं ९ फरवरी १९९५ को इंदौर में मनाया गया । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में महाराष्ट्र एवं गोवा के सनातन संस्था के साधक इस अमृत महोत्सव की तैयारी लगभग १ वर्ष पहले से ही कर रहे थे । प.पू. भक्तराज महाराजजी के इंदौर और अन्यत्र के भक्तों ने भी इस तैयारी में सहयोग किया । इस समारोह के लिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने अथक परिश्रम किए । अमृत महोत्सव के आयोजन का मुख्य दायित्व परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के पास था । डॉ. आठवलेजी ने महोत्सव के लिए अलग-अलग समितियां स्थापित कर उनमें सेवाएं बांट दी । उन्होंने गोवा के साधकों से प.पू. भक्तराज महाराजजी के जीवनचरित्र पर आधारित नाटक ‘संत भक्तराज’ तैयार करवाया ।
३ इ २. एक मास पूर्व इंदौर में चल रही तैयारी पर बारीकी से ध्यान रखना : एक मास पूर्व अर्थात २० जनवरी १९९५ से इंदौर में अमृत महोत्सव की तैयारी प्रारंभ हो गई थी । यह तैयारी परात्पर गुरु डॉक्टरजी प.पू. भक्तराज महाराजजी के कुछ भक्तों से करवा रहे थे । प.पू. बाबा के ‘भक्तवात्सल्य आश्रम’ के सामने स्थित भूमि पर ‘श्री अनंतानंद साईश नगर’ नामक नगरी बसानी थी । अतः वहां व्यासपीठ, रसोईघर, प्रसाधनगृह सहित सर्व व्यवस्था करनी थी । बाहर से आनेवाले ३ सहस्र भक्तों के निवास के लिए तंबू, एक ही समय पर २ सहस्र लोग महाप्रसाद ग्रहण कर पाएं, इस हेतु भोजनकक्ष और मुख्य कार्यक्रम में १० सहस्र भक्तों के बैठने के लिए बडा मंडप आदि का निर्माण किया गया था । फरवरी माह होने के कारण ठंड के दिन थे । इसलिए अतिरिक्त गद्दों एवं रजाईयों की व्यवस्था की गई थी ।
‘प.पू. बाबा के जीवन में ‘भजन’, ‘भ्रमण’ और ‘भंडारा’ का महत्त्व विशद करनेवाले फलक, प.पू. बाबा के सुवचन एवं भजन पंक्तियों के १०० कपडे के फलक, ५० सूचनाफलक आदि मुंबई के साधकों ने बनाए थे । खंजरी (डफली), झांज, वाहन के टायर आदि के चित्र और भजन पंक्तियों से युक्त २६ बडे प्रवेशद्वार पुणे में बनाए गए थे । रत्नागिरी और गोवा में अन्तर्गत दूरभाष (‘इंटरकॉम’) की सुविधा की गई थी । परात्पर गुरु डॉक्टरजी इन सबकी ओर बारीकी से ध्यान दे रहे थे ।’
– (पू.) श्री. संदीप आळशी (२०.५.२०२२)
३ इ ३. अमृत महोत्सव में प.पू. भक्तराज महाराजजी द्वारा डॉ. आठवलेजी को श्रीकृष्णार्जुन का रथ देना : अमृत महोत्सव के दिन प.पू. बाबा ने डॉ. आठवलेजी को बुलाया और उन्हें पौन घंटा श्रीकृष्ण-अर्जुन की महानता बताई । तत्पश्चात उन्होंने डॉक्टरजी को चांदी का श्रीकृष्णार्जुन का रथ दिया । प.पू. बाबा ने कहा, ‘‘भविष्य में जब गोवा में अपना आश्रम बनेगा, यह रथ वहां रखिए ।’’ वास्तव में भी वर्ष २००५ में रामनाथी, गोवा में सनातन के मुख्य आश्रम की निर्मिति हुई । वहां यह रथ रखा है ।
डॉ. आठवलेजी ने इस समारोह का आयोजन लगन से एवं अथक परिश्रम लेकर किया । इसके द्वारा गुरुसेवा का आदर्श प्रस्तुत कर उन्होंने मानो गुरुचरणों में कृतज्ञता का भावपुष्प ही अर्पित किया है । इस समारोह के उपरांत प.पू. बाबा ने कहा, ‘‘ऐसा समारोह न कभी हुआ है और न कभी होगा !’’

सर्वसाधारणत: गुरुप्राप्ति के पश्चात कुछ वर्ष गुरु के मार्गदर्शन अनुसार कठोर साधना और सेवा करने पर एकाध शिष्य ही ‘गुरु’पद का अधिकारी बन सकता है । डॉ. आठवलेजी गुरु के मार्गदर्शन में केवल ४ वर्ष साधना कर गुरुपद पर पहुंचे ! इससे, उनके भीतर के उत्तम शिष्यत्व के दर्शन होते हैं !
३ ई. गुरु के अंतिम अस्वस्थता के समय की सेवा एवं गुरु का देहत्याग : वर्ष १९९५ में डॉ. आठवलेजी ने प.पू. बाबा की अंतिम अस्वस्थता के समय इंदौर में रहकर उनकी ८ मास सेवा
की । १७.११.१९९५ को प.पू. बाबा का महानिर्वाण हुआ । प.पू. बाबा के अंतिम क्षणों में भी डॉ. आठवलेजी इंदौर में उपस्थित थे । इंदौर से निकली बाबा की अंतिम यात्रा के साथ वे कांदळी (पुणे, महाराष्ट्र) जाकर अंतिम संस्कार होने तक की सभी सेवाओं में सम्मिलित हुए ।
४. गुरुपत्नी प.पू. सुशीला कसरेकरजी (प.पू. जीजी) के प्रति डॉ. आठवलेजी का भाव :

डॉ. आठवलेजी जब गुरु का भंडारा (श्रद्धालुओं को भोजन कराना), उत्सव आदि के समय उनके पास जाते थे, तब प.पू. जीजी का आशीर्वाद अवश्य लेते थे, पश्चात उन्हें अपनी ओर से अर्पण देते थे । वर्ष २०१४ में जब वे रामनाथी आश्रम में आई थीं, तब भी डॉ. आठवलेजी के मन में उनके प्रति शिष्यभाव हीथा । प.पू. जीजी ने १८.९.२०२२ को देहत्याग किया ।
५. प.पू. भक्तराज महाराजजी के महानिर्वाण के उपरांत उनके उत्तराधिकारी प.पू. रामानंद महाराजजी (प.पू. दादा) का डॉ. आठवलेजी को गुरुरूप में मार्गदर्शन करना :
‘प.पू. बाबा के निर्वाण के उपरांत मुझे प.पू. रामानंद महाराजजी (प.पू. दादा) से गुरुरूप में मार्गदर्शन प्राप्त हुआ । प.पू. दादा की आध्यात्मिक स्थिति के विषय में प.पू. बाबा कहते थे कि उनकी ‘स्थितप्रज्ञ’ अवस्था है । प.पू. दादा ने मुझे कभी भी प.पू. बाबा की कमी अनुभव नहीं होने दी । उन्होंने मुझपर प.पू. बाबा जैसा ही अपार प्रेम बरसाया ।’ – डॉ. आठवले
डॉ. आठवलेजी का प्रति प.पू. रामानंद महाराजजी के प्रति सदैव शिष्यभाव था । प.पू. रामानंद महाराजजी ने ११ मार्च २०१४ को इंदौर (मध्य प्रदेश) में देहत्याग किया ।
– (पू.) संदीप आळशी (२९.५.२०१६) (क्रमशः)
(सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी के चरित्र के विषय में आगामी ग्रंथ से लेखन)