सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में चल रहे आध्यात्मिक शोध कार्य को समाज से मिलनेवाला अभूतपूर्व प्रत्युत्तर !

विगत ५ वर्षों से दैनिक ‘सनातन प्रभात’ से प्रत्येक रविवार को ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ के संस्थापक सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में किए जानेवाले विभिन्न शोधकार्यजन्य लेख प्रकाशित किए जा रहे हैं । ये लेख लिखते समय ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ के साधकों को सीखने के लिए मिले सूत्र, साथ ही पाठकों, जिज्ञासुओं तथा हितचिंतकों से इन लेखों को मिला प्रत्युत्तर इत्यादि सूत्र देखेंगे ।

१. शोधकार्यजन्य लेख लिखते समय ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ के साधकों को सीखने के लिए मिले सूत्र

१ अ. लेखन की सेवा से साधिका में विभिन्न गुणों का विकास होना : लगभग ६ वर्षों से मैं शोधकार्यजन्य लेख लिखने की सेवा सीख रही हूं । आरंभिक काल में मुझे इस विचार से तनाव आता था कि ‘क्या मैं ये लेख लिख पाऊंगी ?’ उस समय मैं श्री गुरुदेवजी के (सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के) चरणों में शरणागत होकर प्रार्थना करती थी । तब मुझे ऐसा प्रतीत होता कि ‘वे सूक्ष्म से मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं ।’ शोधकार्यजन्य लेख लिखने की सेवा सीखते समय धीरे-धीरे मुझमें एकाग्रता, दृढता, अभ्यासुवृत्ति, निरीक्षण क्षमता, सीखने की वृत्ति इत्यादि गुणों का विकास होता गया । आरंभिक काल में किया हुआ लेखन तथा वर्तमान में किए जा रहे लेखन का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ‘इन ६ वर्षाें की अवधि में श्री गुरुदेवजी ने इस सेवा के लिए मुझे तैयार करने में कितने अपार परिश्रम उठाए हैं’, इसका भान होकर बहुत कृतज्ञता व्यक्त हुई ।

श्रीमती मधुरा धनंजय कर्वे

१ आ. ‘साधक को सेवा का तनाव न आकर उसे उस सेवा से आनंद कैसे मिलेगा ?’, इसकी ओर श्री गुरुदेवजी का निरंतर ध्यान रहना : लेख में आवश्यक अध्यात्मशास्त्रीय सूत्र सुलभ तथा सरल भाषा में लिखे गए, तो उससे पाठकों को उन्हें समझने में सरलता होती है । ‘लेखन में कठिन शब्दों का उपयोग टालना, कोष्टक में अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ देना, वाक्य छोटे, सरल तथा अर्थपूर्ण लिखना, व्याकरण की शुद्धता रखना’ जैसी अनेक बातें गुरुदेवजी ने अत्यंत प्रेमपूर्वक सिखाईं । ‘पाठकों का कितना विचार करते हैं ?’, साथ ही ‘साधक पर सेवा का तनाव न आकर उस सेवा से उसे आनंद कैसे मिलेगा ? वह नए-नए सूत्र कैसे सीख सकेगा ?’, इसकी ओर उनका निरंतर ध्यान होता है । कोई लेख उन्हें अच्छा लगा, तो वे उसकी प्रशंसा कर साधक को प्रोत्साहित करते हैं तथा उसके लिए प्रसाद भी भेजते हैं । उसके कारण साधक का सेवा में उत्साह बढता है । साथ ही साधक में ‘मैं यह सेवा और परिपूर्ण तथा भावपूर्ण कैसे करूं ?’, यह लगन उत्पन्न होती है, इसका मैंने अनेक बार अनुभव किया है ।

१ इ. श्री गुरुदेवजी की कृपा से साधिका ने सूक्ष्म परीक्षण करना सीखा : ‘पिछले २ वर्षों से पाक्षिक में प्रकाशित हो रहे शोधकार्यजन्य लेख विशेषतापूर्ण हैं’, ऐसा अभिमत अनेक लोगों ने सूचित किया । उन्होंने यह भी बताया, ‘हम आपका सूक्ष्म परीक्षण सदैव पढते हैं । वह बहुत सरल एवं सुलभ होता है ।’ इसका मुझे बहुत आश्चर्य हुआ; क्योंकि मुझे तो सूक्ष्म परीक्षण करना नहीं आता । जब मैंने पाक्षिक में प्रकाशित होनेवाले लेखों को पाठकों की दृष्टि से पढना आरंभ किया, तब मुझे यह ज्ञात हुआ कि मेरे ध्यान में आए बिना श्री गुरुदेवजी ने मुझे सूक्ष्म परीक्षण करना सिखाया । इसके लिए मैं गुरुदेवजी के चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता व्यक्त करती हूं ।


‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ के लेखों को प्राप्त प्रत्युत्तर !

१. ‘नामजप करते हुए बनाई गई रसोई सात्त्विक एवं स्वादिष्ट बनती है’, इसका अनुभव करना : एक गृहिणी ने बताया कि हम प्रतिदिन सब्जी मंडी से सब्जी ले आते हैं । उसे पानी से धोकर काटते हैं तथा बनाते हैं । ये सभी कृतियां करते समय उन्हें उचित पद्धति से किया, तो कष्टदायक स्पंदनों से हमारी रक्षा होती है; यह बात मुझे आहार से संबंधित विभिन्न लेख पढते हुए ध्यान में आई । अब मैं सब्जी खरीदकर घर लाने के उपरांत उसे विभूति के जल से धोती हूं । उसके उपरांत उचित पद्धति से तथा नामजप करते हुए उसे काटती हूं । ऐसा करना मुझे अच्छा लगता है । ‘नामजप करते हुए बनाई रसोई सात्त्विक एवं स्वादिष्ट बनती है’, इसका मैंने अनुभव किया है ।’

२. धार्मिक कृत्य, शांति अनुष्ठान, यज्ञ एवं होम-हवन का आध्यात्मिक महत्त्व ध्यान में आना : एक जिज्ञासु ने बताया, ‘हमारे यहां विभिन्न प्रसंगों में धार्मिक कृत्य, शांति अनुष्ठान, यज्ञ, होम-हवन इत्यादि किया जाता है । ये बातें पारंपारिक पद्धति से चली आई हैं; इसलिए हम उन्हें करते रहते हैं; परंतु ‘उस माध्यम से किस प्रकार सात्त्विकता ग्रहण की जा सकती है ?’, यह बात ये लेख पढकर सीखने को मिली । उसके कारण इन कृत्यों को भावपूर्ण करने का प्रयास होने लगा । उससे मन को प्रसन्नता प्रतीत होती है तथा हमारे महान ऋषि-मुनियों के प्रति कृतज्ञता प्रतीत होती है ।’

३. देवतापूजन करते समय उसे भावपूर्ण करने का महत्त्व ध्यान में आना : एक हितचिंतक ने बताया कि पहले वे बहुत जल्दबाजी में पूजा-अर्चना करते थे । उसके कारण उन्हें उससे आनंद नहीं मिलता था । देवतापूजन से संबंधित शोधकार्यजन्य लेख पढकर भावपूर्ण पूजा का महत्त्व उनके मन पर अंकित हुआ । अब वे भावपूर्ण पूजा-अर्चना करने का प्रयास करते हैं । इससे उन्हें चैतन्य एवं आत्मिक संतोष मिलता है, साथ ही उन्हें स्वयं में ईश्वर के प्रति भाव जागृत होने में भी सहायता मिली ।

 

२. ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ के शोधकार्यजन्य लेखों का पाठकों, जिज्ञासुओं तथा हितचिंतकों से प्राप्त प्रत्युत्तर !

२ अ. लेख पढकर उसमें दिए सूत्रों के अनुसार जीवनशैली में सकारात्मक परिवर्तन लाने की प्रेरणा मिलना : अनेक पाठकों ने यह सूचित किया कि ये लेख बहुत ही अध्ययनपूर्ण होते हैं एवं हमें वैसी कृति करने के लिए प्रेरित करते हैं, उदा. कुमकुम लगाना, सात्त्विक वेशभूषा धारण करना, सात्त्विक आहार ग्रहण करना आदि विषयों पर आधारित शोधकार्यजन्य लेख पढकर ‘उसके अनुसार कृति करने से कैसे हमारे ‘ऑरा’ पर सकारात्मक परिणाम होता है ?’, इसे ध्यान में लेकर उस प्रकार कृति करना आरंभ किया । एक पाठक ने हमें सूचित किया, ‘पहले मुझे काले कपडे पहनना अच्छा लगता था; परंतु अब आपका लेख पढकर समझ में आया कि ‘काले कपडे पहनने की अपेक्षा सात्त्विक रंग के कपडे पहनना क्यों आवश्यक है ?’ वर्तमान में मैं संभवतः सात्त्विक रंग के ही कपडे पहनता हूं । उससे मेरे मन को अच्छा लगता है ।’ और एक पाठक ने बताया, ‘हम प्रतिदिन घर में घी का दीपक जलाते हैं; परंतु आपका लेख पढने पर उसका आध्यात्मिक महत्त्व ध्यान में आया । उसके कारण अब मुझसे वह कृति भावपूर्ण पद्धति से होती है ।’

२ आ. ‘कोई भी वस्तु खरीदते समय उसका चयन कैसे करना चाहिए ?’, यह समझ में आना : एक पाठक ने कहा, ‘‘नित्य जीवन में हम अनेक वस्तुओं का उपयोग करते हैं, साथ ही बाजार से विभिन्न प्रकार की जीवनोपयोगी वस्तुएं खरीदते हैं; परंतु ऐसा करते समय ‘किसी वस्तु का आकर्षक होने के साथ ही सात्त्विक होना कितना आवश्यक है ?’, यह मुझे आपके विभिन्न लेखों से सीखने के लिए मिला, उदा. ‘कपडों पर की जानेवाली कलाकारी जटिल न होकर दिखने में सुलभ एवं सात्त्विक होनी चाहिए’, ‘कृत्रिम धागों की अपेक्षा प्राकृतिक धागों से बनाए कपडों का उपयोग करना हितकारी है’, ‘आभूषण खरीदते समय उसकी कलाकारी सात्त्विक होनी चाहिए’ इत्यादि । अतः दुकान में खरीदारी के लिए जाते समय इन सूत्रों का विचार कर वस्तुओं का चुनाव किया जाता है ।’

२ इ. शोधकार्यजन्य लेखों से साधना का महत्त्व समझ में आना : कुछ पाठकों ने बताया कि आपके शोधकार्यजन्य लेखों का विषय कोई भी हो; परंतु वह साधना करने के लिए प्रेरित करता है । हमें जैसे संभव है वैसे साधना करने का हम प्रयास करते हैं । इससे हमें आनंद मिलता है  । कुछ जिज्ञासु उनकी साधना संबंधी शंकाएं पूछते हैं ।

२ ई. आध्यात्मिक शोध कार्य का पूरे विश्व में प्रसार हो, यह लगन रखनेवाले पाठक, हितचिंतक एवं जिज्ञासु ! : ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ की ओर से किए जानेवाले विभिन्न आध्यात्मिक शोध कार्य देखकर अनेक पाठक एवं जिज्ञासु प्रभावित होकर बताते हैं, ‘आपका शोध कार्य अप्रतिम एवं विशेषतापूर्ण है । वह पूरे विश्व में पहुंचना चाहिए । आप हमें इन शोधकार्यजन्य लेखों की ‘लिंक’ भेजें । हम अपने संबंधियों, परिचितों तथा मित्र-परिवार को ये लेख पढने के लिए भेजेंगे ।’

कुछ जिज्ञासु ‘शोध कार्य के विभिन्न विषय, साथ ही शोध कार्य और अच्छा होने के लिए हम क्या प्रयास कर सकते हैं ?’, जैसे सूत्र भी स्मरणपूर्वक सुझाते हैं ।

‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ की ओर से किए जानेवाले शोधकार्याें का पाठकों, जिज्ञासुओं तथा हितचिंतकों द्वारा मिलनेवाला अभूतपूर्व प्रत्युत्तर देखकर श्री गुरुदेवजी ने हमें सेवा के लिए ‘आध्यात्मिक शोध कार्य’ जैसा एक सुंदर माध्यम उपलब्ध कराया; इसके लिए उनके चरणों में चाहे कितनी भी कृतज्ञता व्यक्त की जाए, अल्प ही है । इस सेवा से हम सभी साधकों की तथा पाठकों, जिज्ञासुओं एवं हितचिंतकों की आध्यात्मिक उन्नति हो’, यही श्री गुरुदेवजी के चरणों में आर्तता से प्रार्थना है ।’

– श्रीमती मधुरा धनंजय कर्वे, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (३१.३.२०२४)